शुरुआत बाबा रामदेव ने की है और उन्होंने आदि शंकराचार्य के इस सिद्धांत की आलोचना की है जिसमें वह कहते हैं कि ‘ब्रह्मा सत्य जगत मिथ्या’। इससे अनेक धर्मगुरु भड़क उठे हैं। यह स्वाभाविक है क्योंकि ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या के नारे के सहारे ही अनेक लोगों का रोजगार चल रहा है। बाबा रामदेव का कहना है कि इस वजह से हिन्दू एक तरह से इस संसार से विरक्त हो गया और परिणामस्वरूप विदेशी लोगों के चंगुल में फंस गया।
यहां यह एक बार यह स्पष्ट कर दें कि यह लेखक बाबा रामदेव का शिष्य नहीं है पर उनकी योग सिखाने के प्रयासों का हर हाल में समर्थन करता हैं।
आदि शंकराचार्य को हिन्दू धर्म का संस्थापक माना जाता है पर सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान-जिसकी वजह से यह देश विश्व में अध्यात्म गुरु के रूप में जानता जाता है-का मुख्य आधार वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण और श्रीगीता तथा अन्य प्राचीन ग्रंथ हैं। इन सबका निचोड़ श्रीगीता में हैं-अर्थात अगर हम श्रीगीता को ही पढ़ लें तो फिर अन्य ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता नहीं है-समय मिले तो श्रीमद्भागवत को पढ़ने पर भी अच्छी जानकारी मिल जाती है। यह लेखक कोइ सिद्ध नहीं है पर ऐसा लगता है कि लोगों ने श्रीगीता खूब पढ़ी है पर उसे समझ शायद कम ही लोग पाते हैं। आदि शंकराचार्य हिन्दू धर्म की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है पर बहुत कम लोग उनके बारे में जानते हैं। इस देश में ऐसे लोग भी है जो शंकराचार्य के पंथ के अनुयायी नहीं है-इसका आशय यह है कि हर हिन्दू शंकराचार्य का माने यह आवश्यक नहीं है।
अधिकतर लोग श्रीगीता को सन्यास या सांख्ययोग का प्रेरक मानते हैं। बहुत कम लोग इस बात को समझते हैं कि श्रीगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इस सिद्धांत को एकदम खारिज किया है। एक तरह से वह यह मानते हैं कि सांख्ययोग तो विरले मनुष्य के लिये संभव है और हर किसी के लिये उस पर चलना कठिन है।
श्रीगीता में निष्काम भाव से कर्म का भाव लोग किसी भी कर्म के फल प्रति आशा का भाव न रखने से रखते हैं। मगर इसका आशय गलत समझाया जाता है। आप कहीं नौकरी या व्यवसाय करते हैं तो वेतन या लाभ का विचार त्याग दें, यह इसका आशय कतई नहीं है। वहां से जो धन प्राप्त करते हैं तो उसने अन्य दायित्वों में व्यय करते हैं। इसका मतलब यह है कि वह धन आपको प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये क्योंकि वह आपके कर्म का हिस्सा है। समस्या तब होती है जब आप उस धन को फल मानकर प्रसन्न होकर शांति से बैठ जाते हैं। फल का अर्थ है कि हमने मानव यौनि प्राप्त कर इस सृष्टि के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करते हुए -जैसे निष्प्रयोजन दया, पर्यावरण की रक्षा तथा गरीबों की सेवा-भगवान भक्ति कर अपने आत्मा को संतुष्ट करें। यही आत्मा का संतोष है।
दरअसल हुआ यह कि हमारे समाज में यह मान लिया गया है कि गेंहुआ वस्त्र पहनकर सब प्रकार के सांसरिक सुख से परे रहने वाले के ही धार्मिक सच को ब्रह्म सत्य मानेंगे या फिर कोई उच्च पद पर बैठा कहेगा तो उसे सुनेंगेे। यहीं से शुरुआत होती है इस समाज के विघटन और पतन की। इतना ही नहीं कि धर्म के व्यापार करने वाले चाहे कितना भी पैसा वसूल कर लें माना तो उसे भी सन्यासी जाता है क्योंकि वह किसी प्रत्यक्ष नौकरी या व्यवसाय में नहीं रहते। अगर आप नौकरी या व्यवसाय करें तो आपके ज्ञान को कभी प्रमाणिक नहीं माना जायेगा।
यह लेखक मानता है कि श्रीगीता ज्ञान और विज्ञान की इकलौती पुस्तक है और समाज को इससे विरक्त रखने के बकायदा योजनाबद्ध प्रयास हुए हैं। यह प्रयास कब प्रारंभ हुऐ कहना कठिन है पर इतना तय है कि जब से विचार और ज्ञान को धर्म से जोड़ा गया होगा तभी इसकी शुरुआत हुई होगी। वैसे बाबा रामदेव ने जो यह वैचारिक संघर्ष प्रारंभ किया है उसमें उनकी विजय का आधार श्रीगीता का ज्ञान ही बन सकता है बशर्ते उसकी शब्दशः वर्तमान संदर्भ में व्याख्या करें। वह शब्द के अर्थ में कोई नया शब्द न जोड़ें और वर्तमान संदर्भ में उसकी व्याख्या करें तो उनको जीतना सहज होगा।
टीवी पर उनके इस बयान का विरोध करने वालों के पास सिवाय शोर करने के अलावा और कोई तर्क नहीं है। बहरहाल यह धर्मयुद्ध अगर चलता है तो उससे देश में वैचारिक चेतना आयेगी। शायद कुछ लोगों को यह मजाक लगे पर याद रहे इस देश की समस्या इसका गरीब या कमजोर होना नहीं बल्कि वैचारिक रूप से खोखला होना है। आखिरी बात यह है कि ज्ञान कोई अधिक व्यापक नहीं होता पर उसके अनुरूप चलने वाले का मार्ग बड़ा होता है। उस मार्ग को ही ज्ञान मान लेना ठीक नहीं है। बहरहाल अगर इस विषय पर अगर बहस चलती है तो निरंतर इस पर लिखेंगे।
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1 comment:
चलिए यह एक बहाना बनें कि कुछ लोग इस बहाने ही सही दर्शन पर कुछ रुची दिखा सकें।
उक्त कथन शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत, जिसे मायावाद भी कहा जाता है, का मूलवाक्य है। ये भाववादी दर्शन के मुख्य पैरोकार रहे हैं।
वहीं चाहे आज हमें योग अध्यात्म के साथ नाभीनालबद्ध दिखता है, पर यह दर्शन की भौतिकवादी परंपरा के विकास का अंग रहा है, जिससे सांख्य भी जुडा हुआ है।
जाहिर है भाववादी और भौतिकवादी परंपराओं में यह वैचारिक संघर्ष काफ़ी पुराना है।
यही कारण है कि बाबा रामदेव, अपनी सोच में सापेक्षतः प्रगतिशील नज़र आते हैं।
पर आप निश्चिंत रहें।
हितसाधन की नाभीनालबद्धता ऐसा कुछ भी नहीं होने देगी, और यह सिर्फ़ शगूफ़ा ही रह जाने वाला है।
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