दीपक बापू ने जब सुबह देखा
कि आज 14 सितंबर हिन्दी दिवस है
तब एक नये सफेद कपड़े-धोती, कुर्ता
और टोपी-पहनकर घर से बाहर निकले। जेब में एक लघु साहित्यक पत्रिका में अपनी रचनायें प्रकाशित करने के लिये अपनी
दो कवितायें जेब में डालीं और चौड़ी सड़क पर फुटपाथ अपने पांव बढ़ाने लगे। मन ही मन सोच रहे थे कि चलो बड़ी पत्रिकाओं में
छप नहीं सकते क्यों न एक लघु साहित्यक पत्रिका को अपनी कविताओं का दान कर हिन्दी
दिवस मनायें। वहां का संपादक छापे या नहीं उसकी मर्जी, अपना तो कर्तव्य
करना ही चाहिये।
वह मस्ती से फुटपाथ पर चले
जा रहे थे। रास्ते में एक काईयों का सभागार पड़ता था। उन्होंने तय किया था कि उसकी
तरफ देखेंगे भी नहीं। जब उस काईयां सभागार का दरवाजा आया तो उन्होंने अपना मुंह
फेर लिया-अपनी नाकामी का सबसे यही श्रेष्ठ तरीका भी है कि जो पंसद न हो उसकी
उपेक्षा कर दो। अचानक अंदर से आवाज आई-‘‘ओए, फ्लाप कवि! तू यहां कैसे आ गया?
दीपक बापू को काटो तो खून नहीं। उन्होंने अपना मुंह गेट की तरफ किया तो
देखा आलोचक महाराज खड़े थे। एक दम सफेद
चिकना चूड़ीदार पायजामा और कुर्ता पहने थे। गले में सोने की चेन और मुंह में पान
था। दीपक बापू हैरान रह गये। एक तो काईयों
के सभागार से चिढ़ तिस पर पुराने बैरी का
मिलना उनके लिये हिन्दी दिवस के अवसर भारी अपशकुन जैसा था।
उन्होंने आलोचक महाराज से कहा-‘‘महाराज, हम यहां आ नहीं
रहे। गुजर कर जा रहे हैं। आप यहां कैसे?
आलोचक महाराज ने पास जाकर एक जगह पान की पीक को थूका और फिर वापस आकर बोले-‘दिख नहीं रहा। यह इतना बड़ा बैनर टंगा है ‘हिन्दी दिवस पर महासम्मेलन’। अब
यह बताओ इस शहर में हमारे बिना कोई हिन्दी का कार्यक्रम हो सकता है। कोई वरिष्ठ
लेखक या कवि ऐसा नहंी है जो हमारे बिना यहां किसी बड़े अखबार में अपना कविता छोड़िये
क्षणिका तक छपवा सके। फिर यह कैसे संभव है
कि हिन्दी दिवस पर कोई हमारे बिना कार्यक्रम हो जाये।’’
दीपक बापू बोले-‘‘आपका
कहना सही है। आपकी कृपा नहीं हुई तो हम यहां फ्लाप कवि माने जाते हैं। बहुत प्रयास किया कि आप हमारी कवितायें को बड़े
पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित करने के लिये
सिफारिश करें। कितनी बार चाय पिलाई,
पान खिलाया और कितनी बार तो ठंडा पेय भी
आपकी सेवा में प्रस्तुत किया। छोटे मोटे पत्र और पत्रिकाओं में छपवाने के अलावा
कोई अन्य सहायता नहीं दी। बड़े प्रकाशन तो
हमसे मुंहफेरे ही रहे।’
आलोचक महाराज बोले-‘सस्ती
सेवा की वैसा ही मेवा मिला। अगर दारु,
मांस तथा खाने का इंतजाम किया होता तो
तुम्हें कवि बना देते। अभी तुमने कहा कि तुम फ्लॉप कवि हो। किसी दूसरे से न कहना।
हमारी रचनत्मक दृष्टि से तुम तो कवि ही नहीं हो।’’
दीपक बापू बोले-‘‘महाराज
आप हिन्दी के बहुत बड़े ठेकेदार हैं। चलिये मान लेते हैं! वैसे आपका एक चेला आपको
बदनाम कर रहा है कि आपने उसकी अनेक कवितायें चुराकर अपने नाम से छपवाईं। उस दिन मिला था। हमने उसे समझाया कि पानी में रहकर मगर से बैर नहीं
किया जाता।’
आलोचक महाराज आंखें फाड़कर गुस्से में बोले-‘‘अच्छा! तू हमें ठेकदार और मगर बोलकर एक ही पंक्ति में
दो झटके दे रहा है। समझ ले आज से हमने
तुझे बैन कर दिया। अब तो तू छोटे पत्र पत्रिकाओं में भीअपनी कवितायें नहीं छपवा सकता। वैसे तू जा
कहां रहा है?
दीपक बापू बोले-‘‘में
अमुक त्रैमासिक के लिये दो कवितायें लेकर
जा रहा हूं।
आलोचक महाराज बोले-‘‘यहा
कौनसी पत्रिका है। जरा पता देना! देखता हूं कैसे छापता है?’’
दीपक बापू ने जेब से दो कविताओं के साथ बीस का नोट निकाला और बोले-‘‘महाराज, आप नहीं रोक पायेंगे। देखों यह चाय के लिये बीस का नोट
भी साथ ले जा रहा हूं।’’
आलोचक महाराज-‘‘अमुक
पत्रिका का संपादक इतना सस्ता है? मैं
उसकी खबर लेता हूं। इतने सस्ते में कवितायें छापेगा तो क्या खाक इज्जत कमायेंगा,’’
दीपक बापू बोले-‘‘नहीं
महाराज! उस पत्रिका के बाहर एक होटल वाला है। उसके यहां दो चाय पीऊंगा। वह खुश
होकर दोनो कवितायें छपवा देगा। एक चाय पी तो एक छपवायेगा। इसलिये उसकी दुकान दो तीन घंटे बैठना पड़ेगा। अच्छा, हम चलते हैं।’’
आलोचक महाराज बोले-‘‘सुनो!
तुम बीस रुपये का खर्च क्यों करते हो? यहां कार्यक्रम में बैठकर हमारी संख्या बढ़ाओ। में तुम्हें आधा कप चाय भी
पिलाऊगा और एक उबाऊ नाम की एक नयी पत्रिका है उसमें एक या दो नहीं बल्कि तीन
कवितायें छपवा दूंगा।’’
दीपक बापू बोले-‘‘महाराज,
हम अंदर आने को तैयार हैं मगर आप हमसे मंच पर एक कविता सुनाने का मौका दें।’’
आलोचक महाराज बोले-‘‘यह
संभव नहीं है! तुम निकल लो यहां से। पता
लगा कि तुम्हारी कविता कहीं लोगों को पंसद आ गयी और धोखे से कहीं तुम्हें महाकवि
मान बैठे तो मेरी साहित्यक दुकान ही बदं
हो जायेगी। मेरे बहुत से मशहूर कवि चेले मुझसे नाराज हो जायेंगे। तुमने ही कहा था
कि हम हिन्दी के ठेकेदार हैं। बरसों से यह काम कर रहे हैं। हम किसी ऐसे कवि या
लेखक को पनपने का मौका नहीं दे सकते जो हमारे नियंत्रण से बाहर हो। तुम इसी तरह के
आदमी हो।’’
दीपक बापू हंसकर बोले-‘‘ठीक
है। चलता हूं।’’
आलोचक महाराज बोले-‘‘ऐसा
करो। तुम दस श्रोंता ढूंढकर लाओ। मै तुम्हें एक क्षणिका सुनाने का अवसर दूंगा।’’
दीपक बापू बोले-‘‘महाराज,
आपके पास श्रोताओं की क्या कमी है?
हमं देख रहे हैं, उधर आठ दस लोग खड़े हैं। अंदर दूसरे लोग भी कार्यक्रम प्रांरभ होने की प्रतीक्षा कर रहे
होंगे।’’
आलोचक महाराज बोले-‘‘इनमें
कोई श्रोता या दर्शक नहीं है। इनमें कुछ
कवि, लेखक और संपादक हैं तो एक
विशिष्ट माननीय अतिथि हैं। श्रोता और दर्शकों का इंतजार हो रहा है। तुम ऐसा करो
किसी भीड़ एकत्रित करने वाले आदमी को जानते हो तो
उससे सौ पचास श्रोता और दर्शक किराये पर ले आओ। हम सभी के लिये एक एक
बिस्किट और आधी कप चाय का भी इंतजाम करेंगे।
तुम अगर यह काम कर सको तो तुम्हारे लिये एक नहीं दो क्षणिकायें सुनाने के
अवसर का इंतजाम कर दूंगा। पूरी कविता का समय किसी हालत में नहीं दे सकता।’’
दीपक बापू ने कुछ सोचा और बोले-‘‘अच्छा अभी आता हूं।’’
दीपक बापू सोच रहे थे कि उन्होंने जो निश्चय किया है वह शायद आलोचक महाराज
नहीं जानते। यह उनकी गलतफहमी थी। दोनों
जानते थे कि उस दिन अब उनकी मुलाकात नहीं होने वाली थी।
दीपक बापू थोड़ा आगे बढ़े तो फंदेबाज मिल गया। दीपक बापू उसे देखते ही बोले-‘‘पता नहीं, आज हिन्दी दिवस पर किसका मुंह देखकर हम घर से निकले
थे। पहले आलोचक महाराज मिले। उनसे पीछा
छुड़कार अभी सांस भी नहीं ली कि अब तुम मिल
गये। यह दोनों अपशकुन हुए हैं और अब मुझे दूसरे मार्ग से घर वापस जाना चाहिये।’’
फंदेबाज बोला-‘‘आपने
मेरी तुलना आलोचक महाराज जैसे आदमी से की हिन्दी दिवस के दिन आपकी इस टिप्पणी पर
मुझे बहुत दुःख है। उसने आपकी रचनाओं को
कई जगह छपने नहीं दिया और मैं आपकी हाथ से रची गयी अनेक हास्य कविताओं का जन्मदाता
हूं। क्या मुझे पता नहीं है आप सड़ी गली
पत्रिकाओं में मेरा नाम लेकर हास्य कवितायें लिखते हो। मैं तो इज्जत से आपको फ्लाप
कवि कहता हूं जबकि दूसरे लोग फूहड़ कवि कहते हैं।
अच्छा आप जा कहां रहें हैं़?’’
दीपक बापू बोले-‘‘अमुक
पत्रिका के दफ्तर जा रहा हूं। वहां दो कवितायें देनी हैं।’’
फंदेबाज बोला-‘चलो मैं
भी साथ चलता हूं। मैं अभी’’
दीपक बापू बोले-‘‘चलो! एक
से भले दो। वैसे भी वहां होटल में मुझे दो चाय अकेले पीनी पड़ती। अब तुम मेरे साथ एक चाय पी लेना तो दूसरी पीने की झंझट
से मैं बच जाऊंगा। उस होटल वाले ने चाय पीने की संख्या के हिसाब से कवितायें
छपवाने का वादा किया है।’’
फंदेबाज बोला-‘ःवह होटल
वाला तो बंद है। मैं भी उसकी दुकान पर चाय
पीने गया था पर पता लगा कि आज उसके पास दूध नहीं आया तो बंद करके चला गया।’’
दीपक बापू बोले-‘‘यही
होना था! मैंने पहले आलोचक महाराज और फिर तुम्हें देखा तो मुझे शक हो गया था कि आज कुछ अच्छा नहीं होने वाला। चलो दूसरे मार्ग से घर चलते हैं। अब वहां चलकर तुम्हें चाय पिलाते हैं। तुमसे
बातचीत में हो सकता है कि कोई ऐसी हास्य कविता हाथ लग जाये जो हमें राष्ट्रीय स्तर
पर प्रसिद्ध कर सके। उम्मीद पर आसमान टिका है और उसके नीचे खड़े हैं। वह हम पर नहीं गिरेगा यह तय है।
दोनों वहां से चल पड़े। दीपक बापू
के हिन्दी दिवस की चिंदी चिंदी हो चुकी थी।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
http://rajlekh.blogspot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
No comments:
Post a Comment