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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/1/09

निष्काम भाव से आशय लक्ष्यहीन या सन्यासी जीवन नहीं-हिंदी लेख (shri gita ke nishkam bhav ka ashay-hindi lekh)

श्री गीता में निष्काम भाव को लेकर अधिकतर लोग भ्रमित रहते हैं। उनके लगता है कि यह कैसे संभव है कि हम कोई काम करें और फिर उससे फल की आशा न करें। कुछ विद्वान तो मानवीय स्वभाव की कमजोरियों का बहाना कर यह भी प्रचार करते हैं कि ‘निष्काम भाव’ से काम करना संभव नहीं है। लोग सोचते हैं कि निष्काम भाव से काम करने का मतलब यह है कि
1. अगर कहीं नौकरी या व्यवसाय करें तो वहां वेतन या दाम न भी मिले तो चुप होकर भगवान भरोसे बैठ जायें और किसी प्रकार का संघर्ष न करें।
2. अगर फल की कामना ही न हो तो कर्म शुरु ही क्यों करें?
3.अपने और परिवार का भरण भोषण करन अपनी जिम्मेदारी है और इसका निर्वाह करने के लिये कहीं से धन प्राप्त करने की आशा पर ही काम किया जा सकता है।
कुल मिलाकर निष्काम होने में वह सन्यासत्व की अनुभूति करते हैं और उनको लगता है कि यह उनका विषय नहीं है। सच बात तो यह है कि हिन्दू धर्म के अधिकतर संत और साधु सकाम भक्ति के पोषक हैं। वह भक्तों से अपनी सेवा सुश्रुपा कराना चाहते हैं इसलिये वह निष्काम भक्ति का संदेश इस ढंग से देेते हैं कि भ्रम पैदा होता है। निष्काम भाव से जीवन गुजााने का मतलब लक्ष्यहीन और त्यागी जीवन बिताना नहीं है-यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये।
दरअसल निष्काम भाव से जीवन व्यतीत करने सुखमय हो जाता है और जब इसकी वजह से कोई सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करेगा तो वह क्यों अपनी मानसिक अशांति से मुक्ति प्राप्त करने के लिये इन गुरुओं के पास जायेगा।
निष्काम भाव से तब तक नहीं रहा जा सकता जब तक फल का स्वरूप न जान लिया जाये। जब फल का स्वरूप जान लेते हैं तब स्वतः निष्काम भाव को प्राप्त हो जाते हैं।
निष्काम भाव से काम करना संभव है मगर पहले फल का स्वरूप समझा जाये। कोई भी कहीं नौकरी या व्यवसाय करता है तो उसे भौतिक परिलब्धियां प्राप्त होती हैं पर यह फल नहीं है क्योंकि उसका उपयोग तो हर कोई अपने और परिवार के भरण भोषण करता है। हमने एक जगह से धन लिया और दूसरी जगह खर्च किया तो उसे फल कैसे कहा जा सकता है। फल तो वह है जो हमारे पास रहे। हम जब भौतिक परिलब्धियों को फल मान लेते हैं तो अपना यह बृहद जीवन संकीर्ण दायरों में कैद कर लेते हैं। हमें अपने दैहिक आवश्यकताओं के लिये परिश्रम और व्यवसाय करना ही होता है और उसके लिये वेतन या दाम प्राप्त करना कर्म का हिस्सा है न कि फल का। जब फल है मन की शांति और मोक्ष। वह भक्ति से प्राप्त होता है। उसमें भी आपको निष्कर्म भाव से लगना चाहिये क्योंकि तभी आपका ध्यान अपनी आत्मा से साक्षात्कार पर केंद्रित हो सकेगा। यही ध्यान आपकी देह, मन और विचारों को शुद्ध करता है जिससे आप जीवन में हर पल नवीनता अनुभव कर सकते हैं। जहां आपने कामनायें स्थापित की वहां यह ध्यान नहीं लगेगा और मामला जस का तस।
ऐसे अनेक लोग हैं जो मंदिर नहीं जाते पर फिर भी निष्काम भाव से जीकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। कमाते हैं और अपने धन का उपयोग अपने पर जमकर करते हैं। वह इसलिये धन कमाते हैं क्योंकि उनका खर्च करना होता है। धन को लक्ष्य या फल मानना अपने स्वतंत्र मन को दायरों में कैद करना है और उससे वह विचलित होता है। हम अपने मन की शांति के लिये इधर उधर धन संग्रह के लिये जूझते हैं और फिर उसका खर्च भी करते हैं। यह तो अच्छे भले मनुष्य जीवन का धन के इर्दगिर्द घूमना हो गया। फिर उस पर कुछ विद्वान धार्मिक विद्वानोें ने मोक्ष की बजाय स्वर्ग की प्राप्ति की कामना का अविष्कार कर लिया और उसके लिये अनेक तरह के कर्मकांडों का प्रचार किया जिनमें धन खर्च करना पड़ता है। इसलिये ऐसे गुरु अपने शिष्यों को धन के आसपास ही चक्कर लगवाते हैं। निष्काम भक्ति के संदेश के बीच श्री गीता का गुरु सेवा का संदेश जरूर सुनाते हैं ताकि शिष्य धन के चक्कर से मुक्त न हो। श्री गीता में गुरुजनों की सेवा करने को कहा गया है पर उसका आशय शिक्षा प्राप्ति तक ही सीमित है। श्रीगीता में तो भगवान ध्यान में निरंकार स्वरूप की तरफ जाने की बात कहते हैं तब वह दैहिक गुरु की जीवन भर सेवा का संदेश कैसे दे सकते हैं?
जीवन में निष्काम भाव से रहते हुए निष्प्रयोजन दया करना चाहिये। मोह और माया से परे रहने का तात्पर्य यह कतई नही है कोई वस्तु या व्यक्ति त्यागना है। अपने कर्तव्यों से विमुख होने की भी बात कहीं श्रीगीता में नहीं कही गयी। मूल बात तो भाव से हैं। कोई भौतिक वस्तु या व्यक्ति न पकड़ना है न छोड़ना है। मुख्य विषय है कि किसी में भाव लिप्त नहीं करना।
आप कहेंगे यह संभव नहीं तो कोई जबरदस्ती नहीं है कि आप यह संदेश माने। आप कामनाओं से भरे रहिये। यह जीवन अनवरत धारा से बहता है आप चाहें या न चाहें-हां, आप इस खुशफहमी रहिये कि आप उसका संचालन कर रहे हैं। सबको देने वाला दाता है पर यह समझते रहें कि आप किसी को पाल रहे हैं। मगर यह भी समझ लीजिये हमारे जन्म से पहले भी यह दुनियां चल रही थी और हमारे बाद भी यह चलते रहेगी। यह कटु सत्य ही तत्वज्ञान है और इसी से लोग भागते हैं। वह कामनायें पालते हुए अपने कर्तापन के अहंकार में इसलिये डूबे रहना चाहते हैं क्योंकि उनको लगता है कि जिंदा रहने के लिये कोई बहाना चाहिये।
मुख्य बात हमारी देह नहीं मन का चलना है। हमारे शरीर की इंद्रियां स्वतः काम करती हैं। अगर कोई पत्थर आंख की तरफ उछलता है तो वह स्वतः बंद हो जाती है-हम यह भ्रम पालते हैं तो पालते रहें कि हमने बंद की। कहीं रास्ते में बदबू आती है तो नाक स्वयं ही सांस लेना बंद कर देती है ताकि उससे शरीर विषाक्त न हो-हम भले ही भ्रम पालें कि हमने बंद की। एक मित्र ब्लाग लेखक ने आज इस विषय को उठाया तो लिखने का मन हुआ। उनके पाठ पर हमने यह टिप्पणी भी लिखी जो कि प्रस्तुत है। शेष फिर कभी।
आपने अच्छा विषय उठाया है पर निष्काम भाव से काम करना तभी संभव है जब फल का स्वरूप समझा जाये। कोई भी कहीं नौकरी या व्यवसाय करता है तो उसे भौतिक परिलब्धियां प्राप्त होती हैं पर यह फल नहीं है क्योंकि उसका उपयोग तो हर कोई अपने और परिवार के भरण भोषण करता है। आपने एक जगह से धन लिया और दूसरी जगह खर्च किया तो उसे फल कैसे कहा जा सकता है। फल तो वह है जो आपके पास रहे। हम जब भौतिक परिलब्धियों को फल मान लेते हैं तो अपना यह बृहद जीवन संकीर्ण दायरों में कैद कर लेते हैं। हमें अपने दैहिक आवश्यकताओं के लिये परिश्रम और व्यवसाय करना ही होता है और उसके लिये वेतन या दाम प्राप्त करना कर्म का हिस्सा है न कि फल का। जब फल है मन की शांति और मोक्ष। वह भक्ति से प्राप्त होता है। उसमें भी आपको निष्कर्म भाव से लगना चाहिये क्योंकि तभी आपका ध्यान अपनी आत्मा से साक्षात्कार पर केंद्रित हो सकेगा। यही ध्यान आपकी देह, मन और विचारों को शुद्ध करता है जिससे आप जीवन में हर पल नवीनता अनुभव कर सकते हैं। जहां आपने कामनायें स्थापित की वहां यह ध्यान नहीं लगेगा और मामला जस का तस।
अपनी समझ के अनुसार जो संक्षिप्त व्याख्या थी वह प्रस्तुत की। बाकी कोई सिद्ध तो हूं नहीं कि दावा करूं कि यह सब ब्रह्म वाक्य है।
दीपक भारतदीप

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