पहले तो प्रश्न यह है कि क्या हम सर्वधर्म समभाव की विचाराधारा से सहमत हैं? जवाब अगर हां है तो फिर यह समझाना पड़ेगा कि धर्म का आशय क्या है? भारत विश्वगुरु है इसलिये धर्म के विषय में उसकी परिभाषा ही सर्वोपरि होना चाहिये पर हमारे स्वाधीनता आंदोलन में सभी मसीहा पश्चिम की विचारधारा से प्रभावित थे। उन्होंने भारतीय दर्शन में परिभाषित धर्म की व्याख्या को न समझा न इसका प्रयास किया। नतीजा यह हुआ कि वह सब पश्चिम की ‘पूजा पद्धति’ को ही धर्म मानने की प्रवृत्ति को यही अपनी आधुनिक विचाराधारा के साथ प्रवाहित करते रहे। हम इन महापुरुषों का विरोध नहीं कर रहे पर यह भी साफ कर रहे हैं कि इनमें कोई ब्रह्मा नहीं था जिसकी रचना को अंतिम मान लें। न ही इनमें कोई कृष्ण जैसा ज्ञानी था जिसे उनकी तरह पूजें। इन महापुरुषों ने स्वाधीनता आंदोलन चलाया जो कि राजसी विषय था उसमें सात्विकता का पुट दिखाने की उनकी कोशिश केवल भारतीय जनमानस को प्रभावित कर अपने साथ लाना था।
सच बात तो यह है कि जिन पूजा पद्धतियों को पश्चिमी विचारधारा धर्म मानती है वह केवल राजनीतिक विचाराधारायें हैं। इनके माध्यम से राजकीय वर्ग समाज पर नियंत्रण करने का प्रयास करता है। इसके लिये राजकीय पुरुष पूजा पद्धति के नियंत्रक को अपना दलाल बना लेते हैं। हम यहां हिन्दूवाद की बात करते हैं। पहले यहां कोई हिन्दू पहचान नहीं थी न आज है। आज हम कहते हैं कि हमारा देश भिन्न भिन्न धर्मों को मानने वाला है तो गलत है। कहा तो यह जाना चाहिये कि हमारा देश भिन्न पूजा पद्धतियों वाला है। चार प्रकार के भक्त तो हमारी गीता ने ही बताये हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। पद्धतियां भी तीन है-सात्विक देव, राजसी यक्ष और राक्षस और तामसी प्रेत पूजा करते हैं। मतलब यह कि भारतीय दर्शन में तो भिन्न पूजा पद्धतियों का स्वाभाविक मान्य किया गया है। इतना ही नहीं किसी पूजा पद्धति के आधार पर वर्ग या जाति की पहचान नहीं मानी गयी बल्कि उन्हें समान भाव से देखने का विचार व्यक्त किया गया है। जबकि पश्चिमी विचारधारा पूजा पद्धति के आधार पर न केवल पहचान करती है वरन् अनेक देश तो अपने कानूनों में ही अपनी पूजा पद्धति को मान्य करते हैं। हमारे यहां पश्चिमी राजनीतिक पंथिक विचाराधारा के प्रतीक यह इष्ट का नाम लेने की मनायी नहीं है पर अनेक देशों में राम, कृष्ण का नाम लेना भी अपराध है।
आखिर यह पश्चिमी राजनीतिक पंथिक विचाराधारायें भारत में आयी कैसे? पुराने समय में अनेक विदेशी भारत आये। कुछ ने पद, पैसे और प्रतिष्ठा से राजकीय दरबारों में स्थान बनाया। राजाओं ने उन्हें विदेशी पंथिक आराधना स्थल बनाने की इजाजत यह सोचकर दी कि यह भी एक पूजा पद्धति होगी। अनेक लोगों ने भी इसे सहजता से लिया। जब तक देश का बंटवारा नहीं हुआ तब तक भारतपंथियों को यह आभास ही नहीं था कि वह इन विदेशियों के राजसी षडयंत्र का शिकार हुए हैं। यही कारण है कि अब भारतपंथी लोग वैचारिक प्रतिकार करने लगे हैं। हम स्वयं को भारतपंथी कहते हैं क्योंकि हिन्दू शब्द तो हमें प्रतिकार स्वरूप कहना पड़ता है। चूंकि पश्चिमी विचाराधारा के अनुसार पूजा पद्धति धर्म है और विदेशी विचाराधारा वाले स्वयं को अपनी पूजा पद्धति के आधार पर अपनी विदेषी पहचान देते हैं तो हमें मजबूरी में कहना पड़ता है कि हम हिन्दू हैं। हम जब बात भारतपंथ की बात करते हैं तो हमारा आशय भारत, भारती और भारतीयता से है। हमारा देश भारत वर्ष, हमारी वह सब भाषायें भारती हैं जो यहां पैदा हुई हैं। हमारा खानपान, पहनावा, पर्व तथा सात्विक विचार भारतीयता है। शायद कुछ भारतपंथी स्वयं को हिन्दू और हिन्दुस्तानी कहकर खुश हो लें पर पर यह भारत को मिटाने की एक साजिश का शिकार होते हैं। हमारा क्षेत्र भारतवर्ष है। यहां तक कि इस इलाके को भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता था। अब केवल हम भारतीयपंथी ही इसे भारत कहते हैं पर विदेशी पंथिक विचाराधारा इसे इंडिया या हिन्दुस्तान कहकर हमें भरमा रहे हैं। हमारी हिन्दुत्ववादी विचाराधारा हमारा मूल संस्कार नहीं है न ही हिन्दू राष्ट्र की कोई कल्पना है वरन् हमें विदेशी राजनीतिक पंथिक समूहों को हिलाने के लिये सब कहना पड़ता है। हमारे यहां कर्म ही धर्म माना गया है। राजा का धर्म, प्रजा का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, शिक्षक का धर्म, शिष्य का धर्म। गीता के अनुसार मनुष्य का कर्तव्य ही धर्म है और करना कर्म। दरअसल हम जिस पश्चिम धर्मनिरपेक्ष धारा को यहां लाये हैं उसकी यहां कोई आवश्यकता नहीं है। हमारे दर्शन के अनुसार तो धर्मनिरपेक्ष मनुष्य तो तामसी होता है जो अपने कर्म से विमुख रहता है।
हम भारतपंथी सात्विक हैं। विदेश राजनीतिक पंथिक विचाराधाराओं के भ्रम में फंस गये हैं। वह केवल अपनी पूजा पद्धति ही नहीं वरन् वहां के विचार, पहनावा तथा दूसरे की पद्धति से परे रहने की प्रवृत्तियां यहां भी चला रहे हैं। वह हिन्दुस्तानी या इंडियन दिखना चाहते हैं भारतीय कहते हुए उनका मूंह सूख जाता है। वह यहां भीड़ में अपनी पहचान अलग रखते हुए कहते हैं कि संविधान को अलग पहचान नहीं करना चाहिये। उनके रहन सहन और पहनावे पर नज़र डालें तो पता लगा जायेगा कि यह विदेशी राजनीतिक पंथों के सैनिकों के रूप में हमारे सामने इतराते हैं और कहते हैं कि तुम स्वयं को भारतीय भी नहीं कह सकते। देखा जाये तो भारतीय दर्शन जिसे सुविधा के लिये हम हिन्दू धर्म भी कहते हैं वह सात्विकता पर आधारित है और इनका शुद्ध राजसी है जो हमें बताते हैं कि हमने भारत बनाया है जबकि यह जानते ही नही कि भारत, भारती और भारतीयता है क्या?
इस समय देश में नागरिकता कानून पर विवाद चल रहा है। विदेशों में रहने वाले कुछ प्रगतिशील हिन्दूओं को अपने धर्म पर शर्म आ रही है। आयेगी क्योंकि उन्होंने ढेर सारा अंग्रेजी साहित्य पढ़ लिया है और पश्चिमी विचाराधारा उनकी नज़र में श्रेष्ठ है। वह अगर भारतीय सत्य साहित्य का अध्ययन करते तो यकीनन वह कहते कि हमारा देश महान है।
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