लोकतंत्र में प्रचार मंत्र चलता है,
अंधेरे में रौशनी का वादा जलता है।
‘दीपकबापू’ आंख कान मुंह बंद रखें
क्रांति का नारा विज्ञापन में पलता है।
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सत्ता के गलियारों में
बेबस का कोई हमदर्द नहीं होता।
गर्दन कटे आम इंसानों की
तख्तनशीनों को इसका दर्द नहीं होता।
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आतंक के सहारे रक्षानीति पली है,
कत्ल से पहरेदारों की रोटी चली है।
‘दीपकबापू’ भय का व्यापार खूब चलाते
बहस में विज्ञापन की रौशनी जली है।
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पुते चेहरे चंद शब्द कह पाते,
पराये भाव से ही दर्द सह पाते।
‘दीपकबापू’ रुपहले पर्दे के ख्वाब
सच्चाई के दरिया में ही बह जाते।
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नारों पर दिमाग न लगाना
वादों में दिल न फसाना।
कहें दीपकबापू इश्तिहार पढ़कर
सच्चाई से अक्ल न लड़ाना।
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न उनकी हार न जीत है,
दलालों की धंधे से प्रीत है।
कहें दीपकबापू पशु जैसी प्रजा माने
हर दरबार की यही रीत है।
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चीख कर धर्म चेतना जगाते,
रक्षा के नाम दानपात्र लगाते।
‘दीपकबापू’ कमान में तलवार रखे
बंद कमरे में जंग के नारे लगाते।
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जिस पर भरोसा करें तोड़ देता है,
हमारा हिस्सा अपने में जोड़ देता है।
‘दीपकबापू’ नया नारा और वादा
नये धोखे की ओर मोड़ देता है।
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