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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

3/11/18

बनी जो मूर्तियां कभी टूट जायेंगी-दीपकबापूवाणी (murtiyan jo bani toot jaayengi-Deepakbapuwani)

सेठ कहलाते जरूर मगर कर्ज में डूबे हैं, महलों में बनाई बस्ती मगर मर्ज में ऊबे हैं।
‘दीपकबापू’ लूट की राह चलते है कमाने, अपनी भावी पीढ़ियों के फर्ज में मंसूबे हैं।।
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पर्दे पर प्रेरणा के नायक रोज बदलते हैं, विज्ञापन दर में उनके चेहरे ढलते हैं।
‘दीपकबापू’ राम कृष्ण जैसा किसी को माने नहीं, वही उनकी भक्ति में पलते है।।
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पहले मुश्किल को दावत देकर बुलाते, अपने हाथ में हल के लिये तलवारें झुलाते।
‘दीपकबापू’ मन बहलाना अब बंद कर दिया, भक्ति रस पिलाकर उसे रोज सुलाते।।
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बनी जो मूर्तियां कभी टूट जायेंगी, रगीन तस्वीरें अपने रंगों से कभी रूठ जायेंगी।
‘दीपकबापू’ अज्ञान के नशे में हुए चूर, पत्थरबाजों की आंखें भी जरूर फूट जायेंगी।।
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कपड़े जैसे मन बदले समझें नहीं धर्म, जिससे बने पहचान नहीं करते वह अपना कर्म।
‘दीपकबापू’ सब रिश्ते भुलाकर करते मौज, कामी पुरुष को देव मानते नहीं होती शर्म।।
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रोटिया पका लेते हमेशा भूख से ज्यादा, देशी र्लक्ष्मी के रहते विदेशी लाने का वादा।
दीपकबापू मूर्तियों पर सिमटा दी अपनी श्रद्धा, नारों में व्यापारी कल्याण का नहीं इरादा।।
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अपने घर में रोटी पर मक्खन लगाते, बाहर भूखे इंसान में क्रांति जगाते।
‘दीपकबापू’ दलालों पर यकीन नहीं करते, जो भलाई के सौदे हिस्सा पाते।।
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