किराये की भीड़ मंच के सामने है सजीं है, वक्ता के हर शब्द पर ताली है बजी।
‘दीपकबापू’ अर्थ रस हीन हो गयी सभायें, होता वही जो सौदागरों की है मर्जी।
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सत्ता के गलियारों में ढोंगियों की भीड़ खड़ी है, दावे वादे निभाने पर अड़ी है।
‘दीपकबापू’ मसखरी करते घूमते मंच पर, कुर्सी पाने की दिल में जिद्द बड़ी हैै।।
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अपनी दौलत भूल दूसरे पर नज़र डालते, मुफ्त की चाहत दिल में हमेशा पालते।
‘दीपकबापू’ महंगे पलंग पर भी रहें बेचैन, दूसरे के आराम की चिंता में सोच ढालते।।
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कभी हंस कभी रोए मन का बहुत बड़ा है खेल, मिलाओ तो मिले नहीं खुद करे मेल।
‘दीपकबापू’ स्वयं कर्ता का भ्रम पालते हम, दास बनकर स्वामी निकाल लेता तेल।।
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लड़ने पर आमादा होते चुन लेते अपना रंग, पता नहीं कब छोड़ दें किसका संग।
‘दीपकबापू’ महलों में रहने वाले परजीवी, अपने सुख बचाते हुए रहें सदा तंग।।
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सबके मन मचले मकान की है आस, वहां पत्थर बसेगा जहां आज है घास।
‘दीपकबापू’ अनमोल चरित्र बेचते रुपयों में, सच कुचल आगे बढ़ता है विकास।।
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देह में दम हो तो दूसरे का काम करें, रोज बीमारी से लड़ते हर पल दवा भी भरें।
‘दीपकबापू’ सर्दी में सिकुड़ते गर्मी में सदा जलें, वर्षा में उनके कदम कीचड़ से डरें।।
लोकतंत्र का नाम वादों का है लगा मेला, कहीं गठजोड़ कहीं देता है दगा अकेला।
‘दीपकबापू’ करते सबको समर्थन का वादा, गोपनीय मतदान में नहीं कभी लगा धेला।।
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हमसे बड़े संगत न करे हम छोटे से डरें, जिंदगी चले खुद किसका दम भरें।
‘दीपकबापू’ समय चलते दोस्तों के चेहरे बदले, यादों के भंडार में किसे धरें।।
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