सूरज का तेज चंद्रमा की शीतलता जाने नहीं, भक्ति नाटकीय करें भाव माने नहीं।
‘दीपकबापू’ ढूंढते दिल की तसल्ली बरसों तक, पथरीली सोच में रखने के खाने नहीं।।
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कालाधन ढूंढते उनके चेहरे काले हो गये, भ्रष्टाचार से लड़े आंखों में छाले हो गये।
‘दीपकबापू’ दहाड़ते थे भीड़ में शेर जैसे, महल बने पिंजरे पहरेदार स्वर्ण ताले हो गये।।
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चला रहे हैं लिपिक चपरासी राजकाज, राजा बेकार कर रहा अपने नाम पर नाज़
‘दीपकबापू’ भगवान भरोसे जीते हैं सदा, प्रजा कोष लूट लेते सेवक हो जाते बाज़।।
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बिगाड़ दिया देह मन विचार का यंत्र, जाप रहे बैठे अब गुरुओं और किताबें के मंत्र।
‘दीपकबापू’ अपनी नाव जल में चलायी नहीं, बता रहे शिष्यों को जलधारा का तंत्र।।
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नयी रीति चली गूंगों के बहरे बनते सरदार, मधुर वाचकों से तोतले ज्यादा हैं असरदार।
‘दीपकबापू’ नाकाबलियत छिपाते चालाकी से, वफा के पाखंड में माहिर हो गये गद्दार।।
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क्या सवाल करें जो कभी जवाब देते नहीं, हमदर्द बने दर्द की दवा साथ लेते नहीं।
‘दीपकबापू’ हंसते हुए पूरी जिंदगी गुजारते, नेकी दरिया में डाल चिंता लेते नहीं।
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