अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान जो अपनी छवि बनायी वह अब फीकी हो गयी लगती है । नहीं हुई तो हो जायेगी। अब उनकी जगह स्वाभाविक रूप से अरविंद केजरीवाल उन लोगों के नायक होंगे जिन्होंने कथित रूप से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रारंभ किया था। अन्ना हजारे कह जरूर रहे हैं कि उनका आंदोलन दो भागों में बंट गया है पर सच बात तो यह कि वह उस बड़े आंदोलन से स्वयं बाहर हो गये हैं जो अरविंद केजरीवाल ने प्रारंभ किया था। यह आंदोलन छोटे रूप में प्रारंभ हुआ पर पहले बाबा रामदेव और फिर बाद के अन्ना हजारे की वजह से बृहद आकार ले गया।
एक बात तय रही अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों के बिना अन्ना हजारे राष्ट्रीय छवि नहीं बना सकते थे क्योंकि उनके पहले के सारे आंदोलन महाराष्ट्र में शुरु होकर वहीं खत्म हो गये थे। उनकी छवि एक प्रादेशिक गांधीवादी छवि की थी।
जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से लक्ष्य नहीं मिला तो एक राजनीतिक दल बनाने का फैसला हुआ। अन्ना हमेंशा ही ‘‘मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा’’, ‘‘ रातनीतिक दल नहीं बनाऊंगा’’ और किसी का चुनाव प्रचार नहीं करूंगा’’ तथा अन्या वाक्यांश दोहराते रहे। इसी दौरान उन्होंने चुनाव में ईमानदार प्रत्याशियों का समर्थन करने की बात कही थी। ऐसे में अरविंद केजरीवाल और अन्य साथियों के राजनीतिक दल बनाने के फैसले से किनारा करना भले ही वह सिद्धांतों से जोड़े पर हम जैसे आम लेखक जानते हैं कि इस देश में बिना किसी चालाकी के सार्वजनिक प्रचार नहीं मिलता। इस देश में पेशेवर आंदोलनकारियों का एक समूह सक्रिय रहा है जो कथित रूप से जनहित के लिये कार्यरत रहने का दावा करता है पर कहीं न कहीं वह ऐसे लोगों से धन लेकर यह काम करता है जो चाहते हैं कि समाज के असंतोष को कोई उग्र रूप न मिले इसलिये अहिंसक आंदोलन चलते रहें। कहने का अभिप्राय यह है कि यह पेशेवर आंदोलनकारी आमजन और शिखर पुरुषों के बीच शोषण और अंसतोष के बीच युद्धविराम रखने के लिये टाईमपास की तरह मौजूद रहते हैं। हवा में लाठियां भांजते हैं। देश की समस्याओं की दुहाई देकर बताते हैं कि भ्रष्टाचार नाम का एक राक्षस है जिसका कोई न नाम है न रूप है पर अपना दुष्प्रभाव हम पर डाल रहा है। परेशानहाल लोग उनकी शरण लेते हैं। अखबारों के खूब खबर छपती है। नतीजा ढाक के तीन पात।
हमें यह तो मालुम था कि एक दिन अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल की टीम अलग अलग हो जायेंगे पर किस तरह होंगे यह ज्ञान नहीं था। अन्ना हजारे ने पूरे दो साल का टाईम पास किया। अखबारों को पृष्ठ रंगने का अवसर मिला तो टीवी चैनल वालों ने भी विज्ञापन का समय खूब पास किया। ऐसे में अन्ना हजारे ने पैकअप कर लिया। अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल की जोड़ी लंबे समय की साथी नहीं थी। इसको लेकर हमारे विचारों के कई दृष्टिकोण हैं। विस्तार से लिखना तो मुश्किल है पर क्षेत्रीय, भाषाई तथा व्यवहार शैली की भिन्नता है। फिर अन्ना केजरीवाल ने अपनी लड़ाई एक आम आदमी के रूप में प्रारंभ की थी और अन्ना हजारे भारत के अन्य शिखर पुरुषों की तरह अपनी इस आदत को नहीं छोड़ सकते थे कि किसी आम आदमी को बिना किसी आधार के उच्च शिखर पर पहुंचने दिया जाये। एक आम आदमी का महत्वांकाक्षी होना ऐसे शिखर पुरुषो की दृष्टि में महापाप है।
अपने एक ब्लॉग पर इस लेखक ने लिखा था कि अन्ना टीम को अपने राजनीतिक दल के नाम में अन्ना हजारे का नाम जरूर रखना चाहिए। उनकी फोटो भी साथ रखें। लगता है कि किसी ने यह लेख पढ़ा होगा और अन्ना हजारे साहब को बताया होगा कि इस तरह अरविंद केजरीवाल और उनका पूरा भारत के प्रचार शिखर पर पहुंच जायेगा। अन्ना साहब ने कोई सार्वजनिक पद न लेने की कसम खाई है ऐसे में राजनीतिक दल का शिखर पद अरविंद केजरीवाल को ही मिलना था। यही उन्हें स्वीकार नहीं रहा होगा। अन्ना अब आंदोलन को जारी रखेंगे। अब उनके उस आंदोलन में नयी पीढ़ी के लोग कितनी रुचि लेंगे यह कह सकना कठिन है। अब तो नयी पीढ़ी के आंदोलनाकरियों के लिये संभवतः अरविंद केजरीवाल ही एक सहारा बचते दिख रहे हैं। एक बात साफ बता दें कि यह देश समाज हितैषी योद्धाओं का सम्मान करता है न कि पेशेवर आंदोलनकारियों का। योद्धा अपने अभियान को समय के अनुसार बदलकर चलते जाते हैं और पेशेवर आंदोलनकारी अपने आंदोलन को एक जगह टांग कर जमीन पर बैठे रहते हैं। टीवी और अखबार में प्रचार प्राप्त करना ही उनका लक्ष्य रहता है। जहां तक जनहित का सवाल है तो ऐसा कोई भी आंदोलन इस देश के इतिहास में दर्ज नहीं मिलता जिसने समाज की धारा बदली हो।
हम जैसे आम लोगों के लिये अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे एक ही समान हैं। अन्ना हजारे अगर अपने आंदोलन की दुकान बंद कर चले गये तो अभी अरविंद केजरीवाल और उनके साथी तो बचे हैं। यदि यह वाकई सामाजिक योद्धा हैं तो अपने अभियान को राजनीतिक दल में परिवर्तित कर आगे बढ़ेंगे और पेशवर आंदोलनकारी हैं तो उनके लिये भी तर्क तैयार है कि हम क्या करें अन्ना ही साथ छोड़ गये।
अब राजनीतिक दल बनाने के समर्थक लोगों के पास बस एक ही रास्ता है कि वह अरविंद केजरीवाल की छवि को उभारें। इस कदर कि अन्ना हजारे की छवि ढंक जाये। अन्ना हजारे की स्थिति तो यह है कि उनके विरोधी भी अब उनका नाम नहीं लेते और लोकतंत्र में यही बुरी बात है। लोकतंत्र में विरोधी होना ही सशक्त होने का प्रमाण है। अन्ना के विरोधियों ने उन पर आत्मप्रचार के लिये आंदोलन चलाने का आरोप लगाया था और पीछे हटते अन्ना उसे पुष्ट कर गये। एक जनलोकपाल बनने से देश में भ्रष्टाचार मिट जायेगा अन्ना साहब ने यह सपना दिखाया था। इस जनलोकपाल का जो स्वरूप अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने बनाया वह बनना अब दूर है। आखिरी सलाह अरविंद केजरीवाल को कि वह अब अन्ना हजारे की छवि से दूर होते जायें। उनकी छवि जो जनता में बनी थी वह अब नहंी रही। जो नयी पीढ़ी के लोग अन्ना हजारे के पीछे थे वह अब उनके पीछे आयेंगे बशर्ते वह अपने अभियान में निरंतरता बनाये रखें। इतना ही नहीं अब अन्ना हजारे का नाम लेना या फोटो छापना उनके सहयोगियों के प्रयासों पर विपरीत असर भी डाल सकता है। एक बात याद रखें कि आगे बढ़ते योद्धा को यहां समाज आंखों के बिठा लेता है और पीछे हटने पर वह उससे चिढ़ भी जाता है। अन्ना हजारे दृढ़ व्यक्तित्तव के स्वामी हैं इस पर यकीन नहीं किया जा सकता क्योंकि वह अपनी कई बातों से जिस तरह पीछे हटे हैं उससे लगता है कि उनका कोई सलाहकार समूह है जो उनको जैसा कहता है वैसा करते हैं। अन्ना हजारे सरल हैं यह बात निसंदेह सत्य है इसलिये उन्होंने अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को अपने कथित आंदोलन के मंचों पर आने से मना किया है। इससे लगता है कि वह नहीं चाहते कि अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों की छवि कहीं आहत हो। आजकल लोकतंत्र में प्रचार का महत्व है और केजरीवाल एंड कंपनी के लिये अन्ना हजारे का नाम लेना या उनसे जुड़ना उनकी छवि खराब होने की संभावनाऐं बढ़ा भी सकती है। बाकी भविष्य के गर्भ में क्या है देखेंगे हम लोग। अन्ना हजारे अब प्रचार परिदृश्य से गायब हो जायेंगे तो उनकी जगह लेने की संभावना अरविंद केजरीवाल की हो सकती है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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