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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/1/12

हिन्दी दिवस पर लेख-हिंदी का महत्व बस इतना है यह दिन अंग्रेजी माता पर ग्रहण लगने जैसा है (article on hindi diwas-hindi ka mahatva angreji par grahan lagane jais-hindi divas par lekh)

    सितम्बर महीना प्रारंभ हो गया है।  अंतर्जाल पर सक्रिय  अपने बीस हिन्दी ब्लॉग पत्रिकाओं  की स्थिति का अवलोकन करने पर पता चला कि पाठक संख्या दो गुना से अधिक बढ़ी है। 14 सितंबर को हिन्दी दिवस के आसपास अधिकतर ब्लाग अपने निर्माणकाल से अब तक की सर्वाधिक संख्या का पिछला कीर्तिमान ध्वस्त कर देंगे। अभी इस लेखक के बीस ब्लॉग के नियमित पाठक दो हजारे से पच्चीस सौ के आसपास है।  14 सितम्बर के आसपास यह संख्या प्रदंह से बीस हजार के आसपास पहुंच सकती है।  पिछली बार यह संख्या दस हजार के आसपास थी। कुछ ब्लाग तो अकेले ही दो हजार के पास पहुंचे थे पार नहीं हुए यह अलग बात है। इस बार लगता है कि वह दो हजारे की संख्या पार करेंगे।
       हिन्दी दिवस के तत्काल बाद उनका जो हाल होगा वह दर्दनाक दिखेगा।  14 सितंबर के आसपस ऐसा लगेगा कि पूरा देश हिन्दी मय हो रहा है तो तत्काल बाद यह अनुभव होगा  कि अंग्रेजी माता ने अपना वर्चस्व प्राप्त कर लिया है।  एक तरह से 14 सितंबर का दिन अंग्रेजी के लिये ऐसा ही होता है जैसे कि सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण। उस दौरान अंग्रेजी और भारतीय समाज के बीच हिन्दी नाम का ग्रह ऐसे ही आता है जैसे ग्रहण लग रहा हो।  धीरे धीरे जैसे ग्रहण हटता वैसे ही कम होती पाठक संख्या अं्रग्रेजी को अपने पूर्ण रूप में आने की सुविधा प्रदान करती है।
      यह ब्लॉग लेखक अंतर्जाल पर छह साल से सक्रिय है।  प्रारंभ में हिन्दी दिवस पर अनेक लेख लिखे।  यह लेख आजकल अंतर्जाल पर छाये हुए हैं। इसमें एक लेख हिन्दी के महत्व पर लिखा था।  उस पर कुछ बुद्धिमान पाठक अक्सर नाराजगी जताते हैं कि उसमे हिन्दी का महत्व नहीं बताया गया। कुछ तो इतनी बदतमीजी से टिप्पणियां इस तरह लिखते हैं जैसे कि लेखक उनके बाप का वेतनभोगी नौकर हो।  तब मस्तिष्क के क्रोध की ज्वाला प्रज्जवलित होती है जिसे अपने अध्यातिमक ज्ञान साधना से पैदा  जल डालकर शांत करना पड़ता है। अंतर्जाल पर अब हमारा सफर अकेलेपन के साथ है। पहले इस आभासी दुनियां के एक दो मित्र अलग अलग नामों से जुड़े थे पर फेसबुक के प्रचलन में आते ही वह नदारत हो गये।  यह मित्र व्यवसायिक लेखक हैं यह अनुमान हमने लगा लिया था इसलिये उनकी आलोचना या प्रशंसा से प्रभावित नहीं हुए।  अलबत्ता उनके बारे में हमारी धारणा यह थी कि वह सात्विक प्रवृत्ति के होंगे।  इनमें से कुछ मित्र अभी भी ब्लाग वगैरह पर सम्मेलन करते हैं पर हमारी याद उनको याद नहीं आती।  इससे यह बात साफ हो जाती है कि अंतर्जाल पर लेखन से किसी प्रकार की आशा रखना व्यर्थ है।  सवाल यह पूछा जायेगा कि फिर यह लेख लिखा क्यों जा रहा है?
           हिन्दी लेखन केवल स्वांतसुखाय ही हो सकता है और जिन लोगों को यह बुरी आदत बचपन से लग जाती है वह किसी की परवाह भी नहीं करते। लिखना एकांत संाधना है जिसमें सिद्ध लेखन हो सकता है।  शोर शराबा कर लिखी गयी रचना  कभी सार्थक विंषय को छू नहीं सकती।  जिस विषय पर भीड़ में या उसे लक्ष्य कर लिखा जायेगा वह कभी गहराई तक नहीं पहुंच सकता। ऐसे शब्द सतह पर ही अपना प्रभाव खो बैठते हैं। इसलिये भीड़ में जाकर जो अपनी रचनाओं  प्रचार करते हैं वह लेखक प्रसिद्ध जरूर हो जाते हैं पर उनका विषय कभी जनमानस का हिस्सा नहंीं बनता।  यही कारण है कि हिन्दी में कबीर, तुलसीदास, मीरा, सूरदास, रहीम तथा भक्ति काल के गणमान्य कवियों के बाद उन जैसा कोई नहीं हुआ। प्रसिद्ध बहुत हैं पर उनकी तुलना करने किसी से नहीं की जा सकती।  वजह जानना चाहेंगे तो समझ लीजिये संस्कृत के पेट से निकली हिन्दी अध्यात्म की भाषा है। सांसरिक विषयों -शिक्षा, स्वास्थ्य, साहित्य तथा विज्ञान- पर इसमें बहुत सारे अनुवाद हुए पर उनका लक्ष्य व्यवसायिक था।  इससे हिन्दी भाषियों को पठन पाठन की सुविधा हुई पर भाषा तो मौलिक लेखन से समृद्ध होती है।  जिन लोगों ने मौलिक साहित्य लेखन किया वह सांसरिक विषयों तक ही सीमित रहे इस कारण उनकी रचनायें सर्वकालीन नहीं बन सकीं।  भारतीय जनमानस का यह मूल भाव है कि वह अध्यात्म ज्ञान से परे भले ही हो पर जब तक किसी रचना में वह तत्व नहीं उसे स्वीकार नहीं करेगा। यही कारण है कि जिन लेखकों या कवियों से अध्यात्म का तत्व मिला वह भारतीय जनमानस में पूज्यनीय हो गया।
       हिन्दी भाषा को रोटी की भाषा बनाने के प्रयास भी हुए। उसमें भी सफलता नहीं मिली।  कुछ लोगों ने तो यह तक माना कि हिन्दी अनुवाद की भाषा है।  यह सच भी है।  भारत विश्व में जिस प्राचीनकालीन अध्यात्मिक ज्ञान के कारण गुरु माना जाता है वह संस्कृत में है।  यह तो भारत के कुछ धाार्मिक प्रकाशन संगठनो की मेहरबानी है कि वह ज्ञान हिन्दी में उपलब्ध है । इतना ही नहीं हिन्दी के जिस भक्तिकाल को स्वर्णकाल भी कहा जाता है वह भी कवियों की स्थानीय भाषा में है जिसे हिन्दी में जोड़ा गया।  सीधी बात है कि हिन्दी भाषा संस्कृत और भारतीय भाषाओं की नयी पीढ़ी है।  व्यापक होने के कारण इसने राष्ट्रभाषा का दर्जा पा लिया है।  अब यही भाषा आगे बढ़ रही है।  यह अलग बात है कि हिन्दी भाषा की चिंता करने वाले कुछ बुद्धिजीवी अफलातूनी निर्णयों और प्रयासों से हिन्दी भाषियों को भटकाव के रास्ते पर ले चल पड़े हैं।  उनके निर्णय और प्रयास  हिन्दी भाषा के विकास से अधिक हिन्दी भाषियों को गुलाम बनाये रखने के लिये अधिक हैं।  पहला निर्णय तो हिन्दी में अंग्र्रेजी भाषा के शब्द जबरन शामिल करने वाला है।  अगर यह निर्णय सर्वमान्य हो जाये तो हिन्दी में केवल हो गया, आ गया, आ रहा है, है, हो रहा है और था यानि केवल क्रियात्मक शब्द ही रह जायेंगे।  आखिर वह ऐसा क्यों कर रहे हैं? अक्सर हम लोग सुनते हैं कि मानव तस्करी होती है। इसे तस्करी इसलिये कहा जाता है क्योंकि वह गैर कानूनी है मगर कागजों पर कानूनी रूप से मनुष्य की कबूतरबाजी भी होती है जिसे हम मानव निर्यात कह सकते हैं। यहां का आदमी विकसित देशों में जाकर नौकरी करे इसी कारण उसे हिन्दी भाषा के सहारे अंग्रेजी का ज्ञान कराया जा रहा है। इसका प्रमाण यह है कि अमेरिका में किसी उच्च पद पर पहुंचने वाले आदमी का यहां गुणगान किया जाता है।  इस तरह यह संदेश यहां नयी पीढ़ी को दिया जाता है कि अगर तुम्हारे अंदर प्रतिभा है तो बाहर जाओ यहां तुम्हारे लिये कुछ भी नहीं।  अमेरिका में सफल होकर ही तुम हमारा नाम रौशन कर सकते हैं।  यह गुलाम संस्कृति का  साम्राज्यवादी स्वरूप है। विकसित देश अपना राज्य कायम करने के लिये लड़ते हैं तो यहां के बुद्धिमान गुलामी पाने के लिये वैसा ही संघर्ष करते दिखते है।
             एक दूसरा प्रयास भी हो रहा है। हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने का।  इतना घटिया प्रयास देखकर यह लगता है कि जैसे देश से गुलाम बाहर भेजने की कुछ लोगों को बहुत जल्दी है। अध्यात्म ज्ञान से पैदल लोगों को श्रीमद्भागवत गीता का कोई सिद्धांत समझाना कठिन है। ऐसे में उनको सांसरिक विषय का यह सिद्धांत बताना भी मूर्खता है कि भाषा और भाव का संबंध भूमि से होता है। भारत भूमि के लिये न तो अंग्रेजी की गुंजायश है न अरबी की।  यहां से वहां लोग जा सकते है पर भाषा भाव और भूमि तो यहीं रहनी है।  हिन्दी दिवस के मौके पर नयी पीढ़ी के लोगों को सलाह है कि वह खूब अंग्रेजी पढ़ें। खूब लिखें पर वह शुद्ध हो।  उसी तरह हिन्दी में पढ़ें और लिखें पर उसका मौलिक स्वरूप भूलें नही। उनको  हिन्दी कभी कमाकर नहीं देगी पर अंग्रेजी कभी उनको शांति नहीं देगी।  अगर वह दोनों का मिश्रण करेंगे तो रोटी और शांति दोनों से जायेंगे।  भारत में गरीब और निम्म मध्यम वर्ग के लोगों के बीच हिन्दी हमेशा रहेगी और उनको उनको सम्मान नहीं मिलेगा तो अंग्रेजी में हिन्दी मिक्चर से उनको विदेश में भी नौकरी नहीं मिलेगी।
     आखिर में एक मजेदार बात। कहा जाता है कि संस्कृत में बाहरी भाषाओं के शब्द शामिल करने की गुंजायश न होने के कारण लुप्त हो गयी।  इसके बावजूद यह सच्चाई है कि संस्कृत को जानने वाले विद्वानों को आज भी  अत्यंत सात्विक माना जाता है।  जिनको संस्कृत का ज्ञान है उनको लो सम्मानीय मानते हैं।  जिस तरह हिन्दी के कर्णधार हिन्दी को हिंग्लिश बना रहे हैं उससे हिन्दी जानने वालों को भी आगे चलकर ऐसे ही अध्यात्मिक पुरुष माना जायेगा।  महत्वपूर्ण बात यह है कि कमाने के लिये भाषा महत्वपूर्ण नहीं है।  विभाजन पूर्व भारत से बाहर गये भारतीयों ने बिना अंग्रेजी के वहां अपने धंधे कायम किये।  उसी तरह विभाजन बाद वर्तमान भारत में आये लोगों को हिन्दी नहीं आती पर वह यहां जम गये।  मूल बात है अपना व्यवहार और योग्यता। इन दोनों के लिये अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली होना आवश्यक है। हिन्दी भाषा के ज्ञान से ऐसी शक्ति आती है। यह बात हमने इसलिये लिखी क्योंकि अब हमने हिन्दी भाषा से अलग होती एक हिंग्लिश भाषा का अभ्युदय भी देख लिया है जिसे बोलने वाले रोजी रोटी पाने के लिये जुगाड़ कर रहे हैं।   ऐसे में अध्यात्मिक रूप से बलशाली बने रहने के लिये हमारी वाणी, विचार तथा व्यवहार में शुद्ध हिन्दी का होना अनिवार्य है। 
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप",
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja  ‘‘Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.कॉम

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Text Box:      गर्मी का समय था। स्कूल की इमारत के बाहर फूलों का पेड़ सूख रहा था। माली पास से गुजरा तो उसने उसे पुकार कर कहा‘-‘‘माली सर, आजकल आप मेरे पर पानी का छिड़काव नहीं करते हो। देखो, मैं गर्मी में  सूख रहा हूं।’’
माली ने कहा-‘‘तेरे पर पानी डालने का पैसा आजकल नहीं मिल रहा।  फाईल चालू है। जब पैसा मंजूर हो जायेगा। तेरा उद्धार अवश्य करूंगा।’’
     माली चला गया।  बहुत दिन बात आया तो उसके हाथ में पानी का बाल्टी थी। वह जब उस पर डालने के लिये उद्यत हुआ तो पेड़ ने कहा‘‘माली सर, अब छिड़काव की जरूरत नहीं है।  इतनी बरसात हो गयी है कि मैं पानी में आकंठ डूबा  हुआ हूं। लगता है सड़ न जाऊं। ऐसा करो पानी कहीं दूसरी जगह डालकर लोटे से मेरा यह पानी निकालो।’’
माली ने कहा-‘‘नहीं, मुझे पानी डालने का पैसा मिला है।  अब महीने भर तक यही कंरूगा। अगर तू मना करता है तो ठीक है कहीं  दूसरी जगह डाल दूंगा  पर  यह पानी की बाढ़ कम नहीं कर सकता क्योंकि इसका पैसा मुझे नहीं मिला।  अब जाकर तेरी दूसरी फाइल बनवाऊंगा। जब पैसा मंजूर होगा तब अगर तेरी मदद करूंगा।
      पेड़ ने कहा-‘‘जल्दी जाओ, पानी डालने का जो पैसा मिला  उसे बाढ़ राहत में बदलवाओ।‘‘
    माली ने कहा-‘‘नहीं, वह तो अब मेरे पास रहेगा। हां, तू यह शिकायत किसी से न करना कि मैं तुझ पर पानी नहीं डाल रहा वरना इस बाढ़ में तू सड़ जायेगा।’’ 
     वह माली दोबारा दिवाली पर आया तो देखा वह पेड़ मृतप्राय अवस्था में था।  माली के हाथ में खाली लोटा था।  उसने पेड़ से कहा-‘‘अरे, तेरा तो अब पानी उतर गया है।  तू तो यहां गिरी पड़ी अंतिम सांस ले रहा है।’’
   उस पेड़ ने कहा-‘‘ यह तेरी मेरी अंतिम मुलाकात है। बाढ़ ने इस बार इतना सताया कि अब मेरा अंतिम दिना आ गया है। अब तू यहां दूसरा पेड़ लगाने की तैयारी कर। हो सकता है कि दूसरा जन्म लेकर वापस आऊं’’
  माली ने कहा-‘‘वह तो ठीक है ! पर एक बात कह देता हूं  कि मरने के बाद मेरी यह शिकायत किसी से न करना कि मैने तेरा पानी नहीं निकाला वरना यहां दूसरा पेड़ नहीं लगाउंगा। वरना तू पुनर्जन्म को तरस जायेगा।’’
      पेड़ मर गया और माली दूसरी फाईल बनाने चला गया। 


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