रुपहले पर्दे पर एक बार चेहरा दिखा, प्रसिद्ध जनसेवक फिर जमीन पर कहां टिका।
‘दीपकबापू’ मान अपमान का मोल लगाते, पूछें किसका ख्याल कितने में कहां बिका।।
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वानर जैसी पेड़ों पर नित उछलकूद करते हैं, व्यस्त होने का स्वांग रचते हैं।
‘दीपकबापू’ अपन बाजूओं पर भरोसा करें, मददगारों की चाहत से डरते हैं।।
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चंद हादसों से रास्ते बदनाम नहीं होते, लालच की मस्ती में दूसरे काम नहीं होते।
‘दीपकबापू’ जनसेवकों में ढूंढते न भला, करें न वह सेवा जिसके दाम नहीं होते।।
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अपने लायक सभी तख्त तलाश करते, मिले आराम से रोटी सभी यह आस करते।
‘दीपकबापू’ चाहतों का जाल खुद बुनते, कभी गम कभी खुशी से उसमें वास करते।।
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अंतर्मन कर दिया बेरंग बाहर ढूंढते रंग, अच्छा बुरा देखकर नहीं करते कभी संग।
‘दीपकबापू’ समय बदलते हुए बहुत देखा, शीतलता बरसी कभी ताप ने किया तंग।।
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