- राज्य प्रमुख अगर विधान के अनुसार अपराधियों को दण्ड और संमार्गियों को सम्मान देता है और शत्रुओं से प्रजा के रक्षा करता है तो प्रजा भी धन-धान्य और प्रान प्रण से राज्य की संपत्ति बढाती है। जो ऐसा नहीं करता उस राज्य प्रमुख का भला नहीं होता।
- जब राज्य प्रमुख न्याय परायण होता है तभी वह अपने प्रजा को त्रिवर्ग अर्थ, धर्म काम का साधन करा सकता है, अन्यथा अवश्य ही वह त्रिवर्ग का नाशक होता है।
- धर्म की सहायता से विधर्मी राज्य प्रमुख ने भी चिरकाल तक पृथ्वी को भोगा है और अधर्म करने वाला राज्य प्रमुख शीघ्र नष्ट हो जाता है।
- विनय (विनम्रता) से ही इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जाती है। विनय से युक्त पुरुष ही शास्त्र को प्राप्त होता है। इसमें निष्ठा करने के उपरांत ही संपूर्ण शास्त्रों के अर्थ प्रकट हुए हैं
- राज्य प्रमुख के लिए यही उचित है प्रथम तो स्वंय के अन्दर विनय का भाव स्थापित करे, फिर अपने मंत्री, भृत्य , अपने परिवार और उसके पश्चात प्रजा में उसे स्थापित करे।
- बडे जटिल, विषयरूपी अरण्य में दौड़ते हुए मन को मथने वाले इन्द्रियरुप हाथी को ज्ञानरूपी अंकुश से वशीभूत करना चाहिए।
- अपने प्रयत्न से ही मन अर्थों से रहित होकर व्यक्ति अचल होता है। आत्मा और मन के संयोग से ही कार्य की संपूर्ण प्रवृत्ति प्रगट होती है।
भ्रमजाल फैलाकर सिंहासन पा जाते-दीपकबापूवाणी (bhramjal Failakar singhasan
paa jaate-DeepakbapuWani
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*छोड़ चुके हम सब चाहत,*
*मजबूरी से न समझना आहत।*
*कहें दीपकबापू खुश होंगे हम*
*ढूंढ लो अपने लिये तुम राहत।*
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*बुझे मन से न बात करो*
*कभी दिल से भी हंसा...
6 years ago
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