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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

2/17/10

हिंसा में उद्भव है तो पराभव भी-हिन्दी लेख (gandhiji ki ahinsa niti-hindi article)

जब किसी व्यक्ति के हाथ में हथियार होता है तो वह उसे चलाकर दिखाना चाहता है कि वह एक योद्धा है। उसका मन स्वाभाविक रूप से हिंसा के लिये प्रवृत्त होता है। जब लोग उससे डरते हैं तो उसे विजय की अनुभूति होती है पर दरअसल ऐसा करके वह अपने लिये संकट बुलाता है। जब उसे हिंसा के लिये तत्पर देखकर भीड़ में लोग चुप हैं तो उनमें उसे जैसे ही कुछ लोग भी जरूर होंगे जो यह हथियार जुटाकर उसे चुनौती देने का अपना सोच बनायें। ऐसा करके वह अपने विरोधी बना रहा होता है।
हिंसा चाहे हाथ से या वाणी से, तात्कालिक रूप से लाभदायक भले लगे कालांतर में अपने पतन का कारण भी होती है।
इसे देश में बुद्धिजीवियों में हिटलर और गांधीजी को लेकर हमेशा बहस चलती है। अनेक लोग गांधी को अहिंसा नीति का यह कहते हुए विरोध करते हैं कि उससे समाज की रक्षा नहंी हो सकती पर जब देश में एक संविधान और सेना है तो समाज को हिंसा से रक्षित बनाने का ख्याल ही बेमानी है। दरअसल गांधी ने अहिंसा के रूप में कोई नया विचार व्यक्त नहीं किया था क्योंकि वह भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में सदियों से मौजूद है। उन्होंने आधुनिक सभ्यता- जिसमें देशों के गठन और उनके संविधानों के कारण समाजों वाद विवाद से पनपने वाली हिंसक संघर्षों की परंपरा कम हो रही थी-में अहिंसा की राजनीति करना सिखाया।
पहले हिटलर की बात करें। हिटलर का अंत क्या हुआ? उसने आत्महत्या की थी। उसने अपने देश के लिये अनेक युद्ध किये पर उससे अपने देश को क्या मिला? एक विभाजन! हिटलर मर गया उसके बाद भी जर्मनी खड़ा रहा और अब तो दोनों जर्मनी भी एक हो गये। उसी हिटलर को आज जर्मनी में नफरत से देखा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो हिटलर की चाल चलेगा, वैसी ही मौत मरेगा।
वैसे तो गांधीजी के इस देश में भक्त बहुत हैं पर वह अहिंसा की उनकी नीति की व्याख्या कम ही लोग कर पाये हैं। वह उनकी नीतियों की बात तो करते हैं पर उसके परिणामों का सकारात्मक पक्ष नहीं रखते। गांधीजी ने अंग्रेजों को मानसिक रूप से इतना तंग किया होगा इसका अंदाजा उनके भक्त भी नहीं लगा सकते। एक तरफ पूरा विश्व गांधी जी को सराहता है और हिटलर के नाम से हर कोई नफरत करता है। सच तो यह है कि हिंसा या हिंसक आंदोलन करना हमेशा ही विरोधियों और शत्रुओं को जीत का आसानी से अवसर देना ही है। किसी वस्तु या बहिष्कार की अहिंसक कोशिश और हिंसक कोशिश में अंतर होता है।
गांधी जी ने लोगों को विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की अपील की। तब अनेक लोगों ने अपने ही घर से विदेशी वस्तुऐं निकालकर आग के हवाले की। इतिहास में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता कि उस समय लोगों ने विदेशी वस्तुओं के विक्रय केंद्र जलाये या उनके इस्तेमाल करने वालों को पीटा। इस बात का भी उल्लेख नहीं मिलता कि कितने लोगों ने तब भी विदेशी वस्तुओं का उपयोग जारी रखा। मान लीजिये अगर उस समय गांधी समर्थकों ने हिंसा का सहारा लिया होता तो क्या होता? प्रचार माध्यम बता रहे होते कि किस तरह अभी भी ऐसे लोग हैं जो विदेशी वस्तुओं का उपयेाग कर रहे हैं? हो सकता है कि कुछ यह भी कहते कि ‘देखिये गांधी जी को जनता करारा जवाब’।
उस महान विभूति को अपने ही देश में अप्रासंगिक बनाने के लिये अनेक विदेशी ताकतें सक्रिय हैं और उनका मुख्य उद्देश्य गांधीजी को विश्व मसीहा को तोड़ते रहना है। हमारे यहां के अनेक बुद्धिजीवी हिटलर की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते। एक आत्महत्या करने वाला व्यक्ति उनका प्रेरक है, तब उनकी बुद्धि की स्तर समझा जा सकता है। हिटलर कभी विजेता न बन सका और गांधी जी के नाम की प्रसिद्धि इतनी है कि उसके सामने जीत हार का विचार ही नहीं आता। हिंसा में उद्भव है तो पराभव भी है। अहिंसा की राजनीति भी कोई ऐसे वैसे लोग नहीं कर सकते। जिनके पास बुद्धि, बल और धैर्य है उन्हीं के बूते ही इस पथ पर चलना।
हमारे यहां अनेक आंदोलन होते हैं जिनके व्यक्ति, फिल्म, वस्तु, समाज या भाषा के बहिष्कार का आह्वान होता है। उनकी सबसे बड़ी कमी यही होती है कि वह हिंसा से ओतप्रोत होकर जनसमर्थन से दूर हो जाते हैं। ऐसे आंदोलन करने वाले अपने बहिष्कार के साथ दूसरे पर दबाव डालने लगते हैं। तय बात है कि हिंसा होती है। इस कारण सैद्धांतिक रूप से सहमत होने वाले भी दूर हो जाते हैं और उससे विरोधियों को भी अवसर मिल जाता है। तब यह बात दब जाती है कि कितने लोगों ने बहिष्कार किया बल्कि कितने लोगों ने नहीं किया यह सिद्ध कर आंदोलन की हवा निकाल दी जाती है।
सच तो यह है कि इस देश में जो हिंसक आंदोलन चल रहे हैं उनकी सफलता इसलिये संदिग्ध रही है क्योंकि वह हिंसक हो उठते हैं-दूसरे शब्दों में कहें तो येनकेन प्रकरेण उनकी विरोधी ही उनका लाभ उठाते हैं। भारत का जनमानस कभी हिंसा का साथ नहीं देता, यही कारण है कि इस देश पर विदेशी काबिज हो गये क्योंकि देश के शिखर पुरुष आपस में हिंसा करते थे और जनता का समर्थन कम हो गया होगा।
अंतिम बात यह कि हिंसा चाहे तलवार से हो वाणी से दोनों ही स्वयं के लिये खतरनाक है। किसी के लिये अभद्र और आक्रामक शब्द लिख कर हम यह सोचकर भले ही प्रसन्न हों कि हमने अपनी भड़ास निकाल ली पर अंततोगत्वा वह अपने लिये ही खतरनाक है। तब आपके अपने भी यह सोचकर डर जाते हैं कि कहीं ऐसे ही शब्दों का प्रयोग कहीं उनके विरुद्ध भी न करने लगें। हिटलर पराजित हुआ, उसने आत्म हत्या की क्योंकि वह हिंसा में लीन था जबकि गांधीजी ने अपना जीवन सहजता से व्यतीत किया क्योंकि उनको अपने प्रति कहीं भी हिंसा का भय नहीं था। नाथूराम गोडसे उनके शरीर को नष्ट कर सका पर उनके व्यक्तित्व को नहीं जो हमेशा ही सूरज की तरह चमकता रहने वाला था। भले ही कुछ लोग इस बात को न माने पर सच यह है कि उनकी अहिंसा की राजनीति आज के समाज के लिये उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय थी। गांधीजी को संत कहा जाता है पर इसका अर्थ कतई नहीं है कि उनमें राजनीतिक चतुराई का अभाव था, और उनके द्वारा चलाया गया अहिंसक आंदोलन इसी का ही प्रमाण है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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