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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/13/08

अध्यात्म और धर्म अलग-अलग विषय हैं-आलेख

अध्यात्म और धर्म दो पृथक विषय हैं। अध्यात्म यानि वह जीवात्मा जो हमारी देह का संचालन करने वाले तत्वों को बांधे हुए है और धर्म से आशय तो उन कर्मकांडों के समूह से है जो कल्पित स्वर्ग में जाने का मार्ग बताता है।

अध्यात्म को जानना ज्ञान है और जिस परमात्मा का वह अंश है उसका स्मरण करना भक्ति कहलाता है। पूरे विश्व मे भारत को विश्व गुरू किसी धर्म विशेष के कारण नहीं बल्कि अध्यात्म ज्ञान के कारण कहा जाता है-यह सत्य के स्त्रोतों की खोज पर आधारित है जिसका उदाहरण कहीं अन्य देखने को नहीं मिलता।
अध्यात्म का ज्ञान जब मनुष्य को हो जाता है तो फिर उसे धार्मिक कर्मकांडों के निर्वहन के लिये प्रेरित नहीं किया जा सकता, यही कारण है कि धर्मगुरू भारतीय अध्यात्म के मूल तत्वों का सतही वर्णन करते हुए केवल भक्ति करने की प्रेरणा देते हैं। वह उन कर्मकांडों से -जिनमें कई अतार्किक और अवैज्ञानिक हैं- अपने भक्तों को दूर रहने का संदेश कभी नहीं देते। वजह भक्तगण कर्मकांडों से दूर रहकर समय बिता नहीं सकते और ऐसे में वह अध्यात्म के मूल तत्वों को जानने के लिये प्रेरित हो सकते हैं। मनुष्य का मन चंचल है वह भटकेगा और जब भक्त गणों का मन भटकते हुए अध्यात्मिक ज्ञान की ओर चला गया तो वह उन सांसरिक गतिविधियों से विरक्त हो जायेगा जो भ्रम की उत्पादक होती हैं। यही कारण है कि भारत में अध्यात्म के नाम तमाम तरह की कथायें कहकर भक्तों को उसमें व्यस्त रखने का प्रयास किया जाता है।
भारतीय अध्यात्म साकार से निराकार की ओर जाने वाली विधि का प्रतिपादक है। मनुष्य के मन में निराकार देव की स्थापना का आशय यह कि वह इस धरा पर विद्यमान किसी भी स्वरूप को परमात्मा के समकक्ष नहीं मानेगा। ऐसे में अपने देह को देवताओं की तरह पुजवाने के आदी हो चुके कथित संतों को वह कभी नहीं स्वीकार करेगा तब उनके लिये दान-दक्षिणा के नाम वह कोई व्यय करने की बजाय सुपात्र पर उसे व्यय कर पुण्य कमाना चाहेगा।

इस पूरे विश्व में विभिन्न धर्मों के लेकर अनेक एतिहासिक संघर्ष हो चुके हैं-कई देशों के विभाजन ही धर्म के आधार पर हुए हैं। कहते हैं कि सभी धर्म शांति, अहिंसा और प्रेम का संदेश देते हैं फिर पूरे विश्व में उनके अनुयायियों के बीच द्वंद्व क्यों होता है? इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे सकता। वजह यह है कि धर्म के नाम पर समूह बनाकर लोगों को एकजुट किया जाता है ताकि उनका उपयोग समय आने पर राजनीतिक रूप से किया जा सके।

कहते हैं कि धर्म को राजनीति से दूर रखना चाहिये पर सभी धर्मों का इतिहास देखें तो वह राजनीतिक द्वंद्वों और संघर्षों के परिणाम के बाद ही उनका अभ्युदय हुआ है। विजेताओं को नायक और पराजित का खलनायक बताते हुए क्रमशः उनकी प्रवृत्तियो और कृत्यों की प्रशंसा और दुष्प्रवृत्तियों और दुष्कर्मों की निंदा कर लोगों में कथित रूप से चेतना लाने का प्रयास किया जाता है। कई जगह संघर्ष हुए हैं और फिर शूरू होता है सभी धर्मों के बीच सामंजस्य और समन्वय का प्रयास।
भारतीय अध्यात्म कोई सांसरिक विषयों से विरक्ति का प्रेरक नहीं हैं जैसा कि कुछ लोग कहते हैं बल्कि वह इस संसार में नियम के साथ कार्य करने का संदेश देता है। वह देह और अध्यात्म में समन्वय के विज्ञान का प्रतिपादक है। इसमें शब्दों का स्वामी ओम बताया गया है जिसके नियमित उच्चारण से मन और वाणी के विकार भस्म होते हैं।

अपने जानने के लिये देह, मन और विचारों के विकार बाहर निकालना जरूरी है इसके लिये आवश्यक है योगासन, प्राणायाम और मंत्रोच्चार के साथ ध्यान करना आवश्यक है। उस समय साधन इस संसार से परे रहता है और तभी समझ सकता है अध्यात्म क्या है? अक्सर जब बहसें होती हैं तो समस्त धर्मों की परस्पर तुलना की जाती है। सभी के विद्वान अपने धर्मों की प्रशंसा में लग जाते हैं पर हल कुछ नहीं निकलता। आदमी अपने को जानने का प्रयास नहीं करे इसलिये उसके समक्ष अनेक तरह की पवित्र पुस्तकों से उद्धरण
प्रस्तुत कर उसे उदारता, परोपकार, अहिंसा और अन्य अच्छी बातें सीख कर उसमें अमल करने का संदेश सभी के धर्मगुरू देते हैं जबकि मनुष्य के अंर्तमन में स्थित विकार उसे कभी अच्छे काम के लिये प्रेरित नहीं कर सकते। इस संसार में शांति और सुख रहे इसके लिये आवश्यक है कि सभी नहीं तो अधिकतम संख्या में ऐसे मनुष्य रहना चाहिये जो अध्यात्म ज्ञान से परिपूर्ण हों। मगर इसके लिये आवश्यक है कि लोग इस बात को समझें कि अध्यात्म और धर्म दो पृथक विषय हैं और जितना भारतीय अध्यात्म में इस विषय में ज्ञान है कहीं अन्य नहीं है।
भारतीय अध्यात्म के संपूर्ण रहस्यों को प्रतिपादित करती है श्रीगीता। श्रीगीता के अध्ययन, चिंतन और मनन से ज्ञान प्राप्त कर हर मनुष्य अपने आपको स्वस्थ अनुभव कर सकता है। अगर इसे कुछ लोग धर्म से जोड़कर देखते हैं तो उनके लिये कुछ कहना व्यर्थ है क्योंकि धार्मिक संकीर्णता ऐसा संक्रमित रोगाणु है जो पीढ़ी दर पीढ़ी फैलता है। इस मामले में किसी पर आक्षेप करना ठीक नहीं है, पर जो मन और देह से त्रस्त हैं उनके लिये भारतीय अध्यात्म एक शक्ति की तरह सिद्ध होगा इसमें संशय नहीं। क्रमशः
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5 comments:

Prabhakar Pandey said...

ऐसे लेख लिखना जारी रखें। सुंदरतम प्रस्तुति।
सादर साधुवाद।

दिनेशराय द्विवेदी said...

व्यवहार से ज्ञान की ओर, धर्म से आध्यात्म की और चलना ही जीवन का ध्येय होना चाहिए। दिशा यही रहे तो संप्रदायों का भेद ही समाप्त हो जाए।

राज भाटिय़ा said...

दीपक जी, मेरे पास शब्द् नही हे आप के इस लेख के लिये धन्यवाद करने के लिये, बहुत बार पढा आप का यह लेख ओर हर बार दिल मे उतरता गया. आप के बांलग से बहुत अच्छी बाते पढने को मिलती हे, धन्यवाद

राजीव तनेजा said...

ज्ञान से भरपूर एक उत्तम नहीं बल्कि अति उत्तम लेख.....

यूँ ही मार्गदर्शन करते रहें

ललितमोहन त्रिवेदी said...

जो धारण किया जाता है वह धर्म है और अपने भीतर की यात्रा आध्यात्म! दीपक जी ,आपने धर्म और आध्यात्म का अच्छा विश्लेषण किया है !चिन्तन जारी रखें !

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