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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

3/28/10

लेखकों की करनी और कथनी का अंतर-हिन्दी लेख (devnagari and roman lipi-hindi lekh)

यह दिलचस्प बात है कि लोग खाते हिन्दी और देवनागरी की हैं और बजाते अंग्रेजी और रोमन की हैं। अब यह कहना कठिन है कि हिन्दी के लेखकों पर फिल्म अभिनेत्रियों का प्रभाव है या उनके मन से ऐसी बाते स्वप्रेरणा से उपजती हैं कि ‘हिन्दी को रोमनलिपि में लिखा जाना चाहिये।’
क्या बात है! दरअसल अब ऐसी बहसें उत्तेजित नहीं करती क्योंकि बढ़ते आधुनिक प्रचार माध्यमों तथा अंतर्जाल पर हिन्दी की बढ़ती सक्रियता से पुराने प्रतिष्ठित लेखकों का दोगलापन भी सामने आने लगा है। कम से कम इस लेखक का तो यही अनुभव है कि अंतर्जाल पर हिन्दी की सक्रियता से कई लोगों के दिमाग को हैंग हुए जा रहा है।
जैसे अंतर्जाल पर हिन्दी की सक्रियता बढ़ रही है पुराने लेखक, उनके शिष्य तथा प्रकाशकों की नींद हराम होती जा रही है। वजह यह है कि अभी परंपरागत प्रचार संगठनों-टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं, व्यवसायिक प्रकाशनों तथा रेडियो-पर इस देश के शिखर वर्ग का -पूंजीपति, समाजसेवक, साधु संत और स्वनाम धन्य बुद्धिजीवी- एकछत्र राज्य रहा है। शक्तिशाली वर्ग द्वारा तयशुदा मुद्दे और उसके इर्दगिर्द घूमती बहसों के प्रारूप में फिट बैठने वाले बुद्धिजीवी पुरस्कार, नकद राशि तथा अन्य सुविधाओं को उपयोग करते हुए इस देश की मातृभाषा हिन्दी के भाग्यविधाता बन बैठे। उनकी ढेर सारी किताबें छपी, उनको पाठ्यक्रमों में ठूंसा गया फिर भी वह जनमानस में उन उनकी और न उनकी रचनाओं की साहित्यक छबि नहीं बनी। नतीजा सामने हैं कि आधुनिक काल के कुछ लेखकों के अलावा कोई हिन्दी लेखक जनप्रिय नहीं बन सका। तिस पर अनेक हिन्दी प्रकाशन संस्थान स्वतंत्र तथा हिन्दी लेखकों को चमकाने की बजाय अंग्रेजी के लेखकों के हिन्दी देवनागरी अनुवाद छापते हैं।
स्पष्टतः इस देश का हिन्दी पाठकों का एक बहुत बड़ा देवनागरी ही पढ़ता है। दूसरा यह कि हिन्दी अब देश के अनेक इलाकों में फैली है। ऐसे में अगर कुछ स्थापित लेखक हिन्दी को रोमन लिपि में स्थापित करने की बात कर रहे हैं तो जरा उनसे कहिये कि वह हिन्दी अखबारों में अपना लेख रोमन लिपि में क्यों नहंी छपवाते? जिस शुभ के लिये वह दूसरे लोगों को कह रहे हैं वह काम स्वयं ही शुरु क्यों नहीं कर देते।
ऐसे लेखकों को अपने लेख भेजते समय ही संपादक से स्पष्ट रूप से कह देना चाहिये कि यह हमारा लेखक रोमन तरह छापें। ऐसे लेखक अपने ऐसे लेख छपवाते हुए अपना दोगलापन उजागर ही करते हैं। उनको पता है कि वह छपेंगे ही इसलिये चाहे जो लिख लें। दूसरी बात यह कि नयी बात को-हां, कुछ लेखक इस श्रेय को लेने को ललायित रहते हैं-कहते हुए इस बात को भूल जाते हैं कि उनकी कथनी और करनी का अंतर उजागर हो रहा है। दरअसल ऐसे लेखकों को भी क्या कहें-संगठित प्रचार माध्यमों ने अपनी पूंजी की ताकत बनाये रखने के लिये ऐसे ही लेखकों को आगे किया।
इस लेखक का विचार है कि हिन्दी अनेक दौरों से गुजरते हुए अंतर्जाल पर अपने मौलिक स्वरूप में ही रहेगी। अलबत्ता इसमें नयी विद्यायें जुड़ेंगी। संभव है कि परंपरागत लेखन विद्यायें और शैलियां न चलें पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मौलिकता नये लेखकों को आगे ले आयेगी। हिन्दी की समस्या लिपि या अंतराष्ट्रीय न होना बताना एकदम मूर्खता है। दरअसल अंतर्जाल से परे रहकर जो हिन्दी के भविष्य की बात कर रहे हैं उनको शायद इस बात का अभी आभास नहीं है कि यहां अनुवाद टूल बहुत बड़ा खेल दिखाने वाले हैं। दूसरी बात यह कि भारत में अंग्रेजी का वजूद दो वजहों से हैं। एक तो यहां का खास वर्ग अभी तक देश के लोगों को अपनी अं्रग्रेजितय का अहसास कराकर श्रेष्ठ होने का प्रमाण पत्र प्रस्तुत करता था। अंतर्जाल पर उनकी भी पोल खुलने लगी है। दूसरा यह कि यहां लोग अंग्रेजी इसलिये पढ़ते रहे हैं कि अमेरिका में नौकरी मिल जायेगा या आस्ट्रेलिया में बसने का अवसर मिलेगा। अब यह तिल्स्मि टूटता नज़र आ रहा है। अगर इस देश के लोग अमेरिका या ब्रिटेन जाने का सपना छोड़े दें तो शायद अंग्रेजी का नामलेवा भी नहीं रहेगा। वैसे जब जो लोग हिन्दी को रोमन में लिखने की बात कर रहे हैं वह केवल ऐसे ही सपने संजोने वालों को ही देख पा रहे हैं और इस देश के 90 प्रतिशत से अधिक उस वर्ग के लोगों को अनदेखा कर रहे हैं जो अमेरिका या ब्रिटेन जाने के सपने नहंी देखेगा और न ही डाक्टर इंजीजियर बनने का ख्वाब ही पालेगा-यह वर्ग इस देश में हिन्दी देवनागरी को बचाने में सहायक है।
प्रसंगवश अब लोगों को यह भी पता लग गया है कि अनेक ऐसे लोग भी इन देशों में बस गये जो वहां जाने तक अंग्रेजी का एबीसी भी नहीं जानते थे। दूसरा यह भी कि यहां 90 से 95 प्रतिशत लोग ऐसे रहने ही हैं जो अमेरिका या ब्रिटेन को फतह करने का ख्वाब नहीं देखते। अतः अंग्रेजी सतही तौर पर कितनी भी समृद्ध रहे पर जमीन पर उसके औकात यही रहने वाली है।
इस देश के अधिकतर लोग सभ्रांत बनने की दौड़ से बाहर है पर हिन्दी से कमाने वालों को उससे पैसा निकलवाना है। इसलिये उनके पास देवनागरी के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यह मोबाइल भी ज्यादा दिन नहीं चलेगा क्योंकि उस पर अधिक सक्रियता से उंगलियां तबाह होती हैं। सो रोमन लिपि का उपदेश देने वाले इससे बचें। अगर ऐसा कर वह हिन्दी का भला चाहते हैं तो तत्काल कसम खायें कि वह अपने लेख रोमन लिपि में ही लिखेंगे। संपादक उसको छापें या नहीं। अब हमें भी यह याद नहीं रहा कि आखिर कौन लेखक हैं जो हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने की बात कर रहे हैं। वैसे हमने देखा है कि संगठित प्रचार माध्यमों की कृपा जिन पर अधिक है वही ऐसी बातें करते हैं। अब उन्हें कौन समझाये कि अंतर्जाल पर हिन्दी कम लिखी जा रही है पर इसका कारण अपने देश का अकुशल प्रबंधन है। इसका उदाहरण उन कंप्यूटर इंजीनियरों से बात करने पर मिलता है जो इस लेखक के यहां कंप्यूटर ठीक करने आते हैं। एक नहीं तीन चार बार ऐसा मौका आया। पांच छह इंजीनियरों से बात करने पर यह सुनकर आश्चर्य होता है कि वह जानते ही नहीं कि हिन्दी में आम आदमी ब्लाग लिख सकता है।
वह गूगल ईमेल पर हिन्दी लिखने की सुविधा के बारे में नहीं जानते। वह इंडिक टूल को ऐसे देखते हैं जैसे कि कोई बड़ा आश्चर्य देख रहे हों। जब वह इस लेखक के ब्लाग दिखते है तो उनको यकीन करना मुश्किल होता है कि हिन्दी इस तरह अपने पांव अंतर्जाल पर जमा रही है। वह खुश होते हैं और हिन्दी देवनागरी का टूल उन्हें बहुत खुश कर देता है।
इनके से अधिकतर इंजीनियर यह कहते हैं कि वह भी लिखना चाहते हैं और अभिव्यक्ति का इससे बेहतर स्वतंत्र और मौलिक साधन नहीं मिल सकता। इस देश का पूंजीपति वर्ग अंतर्जाल से कमाई कर रहा है पर इस पर ब्लाग लेखन के लिये लोगों को आकर्षित करने के लिये किसी संगठन को प्रायोजित नहीं कर पाया जो कि इसके तकनीकी पहलुओं से आम लोगों को अवगत कराये। यह काम स्वतंत्र और मौलिक ब्लाग लेखक स्वप्रेरणा से कर रहे हैं। अब इन पूंजीपतियों को कौन समझाये कि केवल मनोरंजन के नाम पर उनके इंटरनेट कनेक्शन अधिक समय तक नहीं चलेंगे और इसके लिये जरूरी है कि लोगों के अंदर स्वरचना की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दे। इसके बावजूद यह सच है कि इंटरनेट पर हिन्दी को आगे बढ़त मिलेगी वह भी उसके देवनागरी स्वरूप में। शेष फिर कभी।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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