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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/26/10

श्री गुरुवाणी-चोर और जुआरी घानी में पीसे जाने योग्य (chor aur juari dandyogaya-shri guruvani)

‘चोर जार जूआर पीढ़ै घाणीअै।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार चोर और जुआरी घानी में पीसे जाने योग्य होते हैं।
‘सच्चा साहु सचो वणजारि। सचु वणंजहि गुर हेति अपारे।।
सचु विहाझहि सचु कमावहि सचो सचु कमावणआ।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार जो मनुष्य धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए ईमानदारी से कमाई करता है उसका व्यापार हमेशा बढ़ता है और उसकी सच्चाई को सारा समाज सराहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की समस्या अकेली नहीं है बल्कि कठिनाई इस बात की है कि देश में हालत ऐसे बना दिये गये हैं कि ईमानदारी से काम करने वाले को अधिक धन कमाने का अवसर ही नहीं मिलता। नौकरी, व्यवसाय, कला, साहित्य तथा अन्य व्यवसायिक क्षेत्रों में बेईमानी, चाटुकारिता तथा ढोंग को आश्रय मिल रहा है। यही कारण है कि देश भले ही अन्य देशों के मुकाबले धनी हो रहा है पर फिर भी यहां गरीबी भी बढ़ रही है। सच बात तो यह है कि बिना बेईमानी, भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी के शायद ही कोई अमीर बन पाता हो। इतना ही नहीं जिस धर्म को लेकर हम गर्व करते हैं उसकी आड़ जितने अधर्म के काम होते हैं शायद किसी अन्य में नहीं होते।
लोगों की हालत भी यह है कि वह धनी होने पर ही कलाकार, लेखक, ज्ञानी, तथा समाज सेवक मानते हैं। भ्रष्टाचार ऊपर से आता है यह सच है पर नीचे उसे प्रश्रय कौन दे रहा है यह भी देखने वाली बात है। आम आदमी यह जानते हुए भी बेईमानी से धनी बने व्यक्ति का सम्मान करता है भले ही वह कितना भी भ्रष्ट और अधर्मी क्यों न हो?
देश में अधर्म के कारण धन बढ़ रहा है पर कुल व्यापार देखें तो जस का तस है’-यानि देश में गरीब और असहाय तबका वहीं का वहीं है। यह देश के लिये शर्म की बात है कि जहां देश के विश्व में आर्थिक महाशक्ति होने के दावे हो रहे हैं वहीं चालीस प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनको शुद्ध खाना तो दूर अन्न का दाना तक नसीब नहीं है। एक तरह से देश का व्यापार वहीं का वहीं है जहां पहले था। अगर धर्म के सहारे धन कमाने वालों को प्रोत्साहन दिया जाये तभी इस स्थिति से उबरा जा सकता है। देश में इस समय जो वातावरण चल रहा है उसे कदापि सात्विक नहीं माना जा सकता। ऐसा लगता है कि तामस प्रवृत्ति के लोगों को महत्व बढ़ने से देश की हर पीढ़ी में निराशा का भाव व्याप्त है। इससे उबरना आवश्यक है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
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