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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/4/10

वैचारिक बाज़ार में शून्यकाल-हिन्दी व्यंग्य (vaicharik bazar mein shoonykal-hindi vyangya)

कॉमनवेल्थ गेम (राष्ट्रमंडल खेल) और क्रिकेट ने इंटरनेट पर इस लेखक के हिन्दी ब्लॉग पर पाठकों की संख्या एकदम कम कर दी। इसमें कोई खास बात नहीं है क्योंकि जब व्यवसायिक प्रचार माध्यमों-टीवी, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाओं का किसी खास विषय पर अभियान प्रारंभ होता है तब देश के आम आदमी-पाठक, श्रोता तथा दर्शक-अपना ध्यान वहीं केंद्रित कर देते हैं। क्रिकेट और धार्मिक विवाद इन व्यवसायिक प्रचार माध्यमों का बहुत बड़ा हथियार है-बीच बीच में चुनावों का अवसर भी आ जाता है।
अभी हिन्दी दिवस के दो दिन पहले इस लेखक के हिन्दी ब्लॉगों पर पाठक तथा पाठक संख्या की गुणात्मक वृद्धि दर्ज की गयी थी। उसके बाद कहीं क्लब स्तरीय प्रतियोगिता हुई तो पाठक संख्या एकदम कम हो गयी। उसके बाद उसमें कोई सुधार नहीं हुआ। इसी बीच कॉमनवेल्थ गेम आ गये। फिर आ रहा था अयोध्या में राम मंदिर और रामजन्मभूमि का मुद्दा। ऐसे में प्रयोग तौर पर कुछ हास्य कवितायें और लेख लिखकर पाठकों के मानस का ज्ञान प्राप्त करना दिलचस्प रहा। कई ब्लाग होने के कारण यह सुविधा होती है कि एक ही पाठ दो विभिन्न वेबसाईट के ब्लाग पर रख कर देखें जायें। राम मंदिर और रामजन्म भूमि मसले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आने से पहले ही अंतर्जाल पर हिन्दी पाठकों की खोज सर्ज इंजिनों पर प्रारंभ हो गयी थी। जिस दिन फैसला आया उस दिन लिखे गये एक लेख ने अच्छी खासी पाठक संख्या प्राप्त की। विभिन्न शब्दों से राम मंदिर और रामन्जन्म भूमि पर लिखे गये उस पाठ ने इतनी तेजी से पाठक जुटाये जो कि पहला अनुभव था। इसके बावजूद यह सच है कि उस ब्लाग पर सर्च इंजिनों में खोज वाले शब्दों में उस पाठ को बढ़त नहीं दिखाई दी। हिन्दी साहित्य वाले शब्दों ने तब भी वहां अपनी बढ़त दिखाई। इसका मतलब यह कि व्यवसायिक प्रचार माध्यमों के ढेर सारे प्रचार के बावजूद इस मुद्दे में लोगों ने अधिक दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। वह पाठ डेशबोर्ड पर नंबर एक पर था पर वह केवल इस कारण कि अन्य शब्दों से खोजे अन्य पाठ एक साथ इतनी बड़ी संख्या में नहीं देखे जाते। उसके पीछे खड़ा संत कबीरदास के दोहे का पाठ तथा हास्य कविताऐं उस पाठ से अधिक पीछे नहीं थी। अन्य ब्लागों पर राम मंदिर के संबंध पर लिखी गयी कविताओं पर भी पाठक साहित्यक शब्दों की तलाश करते हुए आये यानि राम मंदिर उनकी खोज का विषय नहीं था।
व्यवसायिक प्रचार माध्यम अपने विज्ञापनदाताओं के लिये काम करते हैं इसलिये उनसे अब यह अपेक्षा तो करना ही बेकार है कि वह आम दर्शक या श्रोता के मनोभावों के अनुसार कार्य करें। राम मंदिर का निर्णय के आगे जो प्रभाव होंगे उसका अनुमान बहुत कम बुद्धिजीवी कर रहे हैं क्योंकि वह मानते हैं कि जैसा वह सोचते हैं कि वही समाज की सोच है। दरअसल संगठित विचाराधाराओं के बुद्धिजीवियों के हाथ में यह मुद्दा अलादीन के चिराग के जिन्न की तरह था। चाहे जब उसे बुला लेते थे। दो पक्ष में दो विरोध में! इससे भी आगे भी यह मुद्दा जाता था जब एतिहासिक तथ्यों की तोड़फोड़ कर इसे देश के बहुसंख्यक संप्रदाय को अन्यायी साबित करने का प्रयास किया जाता था। धर्मनिरेपक्षता के नाम पर रोटी सैंकने वालों के हाथ में राम मंदिर एक ऐसा मुद्दा रहा जिसने उनको अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाये। यह अलग बात है कि वह अब उसे लेकर नक्सलवाद की रौशनी जला रहे हैं। सच तो यह है कि देश को बांटकर अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता दिखाने वाला एक वर्ग बेहद निराश हुआ है। यह बात हम लिख जरूर रहे हैं पर सच बात यह है कि अगर प्रसिद्धि की बात की जाये तो ऐसे लेखक हमसे कई गुना अधिक प्रसिद्ध होंगे और व्यवसायिक प्रचार माध्यमों के एक स्तंभ के रूप में सक्रिय हैं।
व्यवसायिक प्रचार माध्यमों को संकट आगे अधिक गहराने वाला है क्योंकि उनके हाथ से एक मुद्दा निकल गया है। गनीमत है कि आतंकवाद का मुद्दा है वरना सभी गये थे काम से।
इसके बावजूद यह सच है कि इन व्यवसायिक प्रचार माध्यमों को हिन्दी ब्लॉग चुनौती नहीं दे सकते। इसका कारण यह है कि इन्हीं प्रचार माध्यमों का प्रभाव अंतर्जाल पर भी है। वह ट्विटर, फेसबुक तथा आरकुट में अपने महारथियों को सक्रिय किये हुए हैं। आम भारतीय की मनोरंजन की भूख अभी भी इन्हीं व्यवसायिक प्रचार माध्यमों की परोसी गयी सामग्री के इर्दगिर्द घूमती है। क्रिकेट खेल के साथ ही उसके खिलाड़ी तथा फिल्मों के साथ उसके अभिनेता और अभिनेत्रियां व्यवसायिक प्रचार माध्यमों का बहुत बड़ा हथियार है। भारतीय जनमानस की भावनाओं को भुनाने के लिये धर्म का अंधविश्वास है तो बाहर के लोगों को भुलाने के लिये धर्मनिरपेक्षता के नाम पर रामंदिर के समर्थक थे। समर्थक तथा विरोध दोनो पक्षों के तयशुदा विद्वानों का पैनल इन प्रचार माध्यमों के पास रहा है जिनका नाम सुनते सुनते हमें बरसों हो गये। आम आदमी की भूमिका को यह प्रचार माध्यम एकदम नकारते हुए अपने तयशुदा विषय चुनते हैं जो कि इनके विज्ञापनदाताओं की मांग होती है। कुछ और नहीं मिलेगा तो किसी माफिया को खराब बताते हुए उसके महल, कार, तथा सुविधा के अन्य साधनों का वर्णन करने लगेंगे।
इन व्यवसायिक प्रचार माध्यमों के प्रभाव से हम भी अछूते नहीं है सो इतनी बकवास लिख ली। असल बात मनोरंजन और ध्यान की है। ध्यान यानि मनोरंजन की खोज में भटकता मन का भाव!
कल कॉमनवेल्थ गेम का उद्घाटन था। इतनी बुरी हालत कभी पिछले दो वर्ष में ब्लॉग की दर्ज नहीं की गयी। सारे ब्लॉग मिलकर हजार पाठकों के लिये तरस गये। दिन में मोहाली में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच चल रहा क्रिकेट टेस्ट मैच और रात को नई दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों का उद्घाटन यानि संगठित बाज़ार तथा प्रचार माध्यमों का मिलजुला तमाशा हिन्दी ब्लॉग जगत के पाठक कम कर देता है। यह बात इस बात को दर्शाती है कि भारतीय नये प्रकार के मनोरंजन की तलाश में रहते हैं। दूसरा यह भी कि टेस्ट मैच को क्रिकेट के दर्शक फिर अधिक मिलने लगे हैं।
इधर हम तो क्रिकेट से बहुत दूर निकल गये हैं। इसका मतलब क्या मनोरंजन से दूर हो गये हैं। नहीं! एक तो अच्छी टाईपिंग गति तथा लिखने के निरंतर अभ्यास से ब्लॉग पर ही लिखने का मज़ा आने लगा है। इसके बावजूद दूसरा सच यह भी है कि आजकल मजेदार नहंी लिख रहे। इसका कारण यह है कि दिन में मिलने वाले एक घंटे का हम सदुपयोग करें तो शायद कुछ अच्छा लिख सकते हैं मगर वह समय हम मनोरंजन में लगा देते हैं पर बाद में सोचते हैं कि इससे तो कोई हास्य कविता ही लिख लेते। निष्कर्ष यह है कि मनोरंजन सकारात्मक लगता है पर उसका परिणाम नकारात्मक होता है। मनोरंजन की घटना समाप्त होते ही शरीर तो थकता ही है मन में भी निराशा होती है क्योंकि वह कुछ कहना चाहता है मगर कह नहंी पाता। वह खुद लिखना चाहता है, वह खुद गाना चाहता है, वह खुद अभिनय करना चाहता है या वह खुद संगीत बज़ाना चाहता है। यह सभी के बस में नहंी होता तब एक निराशा होती है। मतलब मनोरंजन गया गड्ढे में। अगर आता भी है तो भी इसका पछतावा कि मैंने वक्त खराब करने की बज़ाय अपने को अभिव्यक्त क्यों नहीं किया?
हमारे लिखने का मतलब यह नहीं कि प्रशंसा बटोरें बल्कि स्वयं को अभिव्यक्त कर अपने आपको खुश करना है कि हम भी लिख सकते हैं। अच्छा या बुरा लिखा मगर लिखा तो सही!
आखिरी बात यह कि आज इस बात का पछतावा होता है कि हमने क्रिकेट मैच देखकर और राम मंदिर पर चर्चाऐं सुनकर अपना वक्त कई बरस खराब किया। इससे अच्छा तो कुछ उपन्यास वगैरह लिखते भले ही नहीं छपता पर तसल्ली तो कर लेते कि हमने लिखा। कहीं छपने या इनाम मिलने की संभावना तो लिखने के एक बरस बाद ही त्याग दी क्योंकि मालुम चल गया था कि बिना बड़ी शख्सियतों की चाटुकारिता के कुछ नहीं होगा। अब इस बात का आभास होता है कि हिन्दी से कमाने वाले शिखर पुरुष किसी हिन्दी भाषी को लोकप्रियता के शिखर पर नहीं पहुंचा सकते क्योंकि तब उनको अपने छोटेपन का अहसास होगा। प्रसंगवश एक मित्र ब्लॉग लेखक का पाठ याद आया। उन्होंने राम मंदिर का विरोध करने वाले अनेक विद्वानों पर जमकर शब्दों की बरसात की। दिलचस्प यह कि यह सभी विद्वान अंग्रेजी में बोलने, लिखने और पढ़ने वाले हैं। उनकी बात वह लोग नहीं पढ़ेंगे कि क्योंकि संदेह है कि उन विद्वानों को हिन्दी पढ़ना आती भी होगी। कम से कम हम इस बात से संतुष्ट हैं कि हमें कम लोग ही पढ़ते हैं। इससे विवाद में फंसने की गुंजायश नहीं होती। हम विवाद से नहीं डरते पर शर्त यह कि कोई इसके लिये प्रायोजक मिल जाये। दूसरे शब्दों में कहें कि जितने भी विवाद होते हैं उनका प्रयोजक होता है। सारा संसार ही प्रायोजन पर चल रहा है। ऐसे में अप्रायोजित हमारे ब्लॉग जब बाज़ार और उसके प्रचारक तनकर खड़े होते हैं तब घुटने टेक देते हैं। राममंदिर मुद्दे के पटाक्षेप के बाद वैचारिक बाज़ार में शून्यकाल दिख रहा है तब हमें लगा कि अपनी बात चुपके से लिख दें ताकि अधिक लोग न पढ़ सकें।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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