हमारे टीवी चैनल और समाचार पत्र तथा अन्य संचार माध्यमों में अनेक
प्रतिभावान पुरुष भारतीय धर्म दर्शन का प्रचार करते हुए देखे और सुने जा सकते
हैं। इनमें अनेक तो सन्यासी होने का दावा
करते हैं। कोई गेरुए तो कोई श्वेत वस़्त्र पहनकर अपने लिये शिष्य संग्रह करते हुए
पंचतारा होटल जैसे आश्रम बनाते हुए यह दावा करता है कि वह धर्म का महान प्रचारक
है। प्राचीन ग्रंथों में तोते की तरह रटकर ज्ञान बघारने वाले इतने हैं लगता है कि
हमारा देश जल्द ही धर्ममय हो जायेगा और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, बेईमानी, मिलावट तथा आपसी सामाजिक
विवाद जल्दी समाप्त हो जायेंगे। यह
प्रतीक्षा बरसों से होती रही है पर हमेशा ही निराशा हाथ लगी। नित्त नये धार्मिक विवाद जब प्रचार माध्यमों पर
प्रायोजित रूप से होते हैं तब सन्यासियों
का समूह अपने चेहरा दिखाने के लिये प्रकट
होता है। इनमें कुछ सच्चे तो पेशेवर लोग होते हैं और इनका धर्म से केवल
इतना ही संबंध है कि यह उनके प्रतीक पवित्र रंगों को धारण कर लेते हैं। मजे की बात
यह है कि विश्व में प्रचलित जितने भी धर्म हैं उनके पवित्र ग्रंथों में कहीं भी
किसी खासरंग को पवित्र नहीं बताया गया पर सभी धर्मों के पेशेवर प्रचारकों ने अपने
प्रयासों से समाज में ऐसी धारणायें बना दी हैं जिससे संबंधित धर्म के लोग उनके
वस्त्र देखकर उन्हें सम्मान देने लगते हैं। पूज्यता तथा पैसा पाकर ऐसे धर्म के
ठेकेदार फूले नहीं समाते। यह स्वयं को सन्यासी
या त्यागी कहते हैं पर वास्तविकता यह है कि इनका कोई भी कर्म सन्यास का परिचायक
नहीं होता और लोग अज्ञानवश ही इनके जाल में फंसते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि--------------कपालं वृक्षमूलानि कुचैलमसहायता।रमता चैव सर्वस्मिन्नेतन्मुक्तस्व लक्षणाम्।।हिन्दी में भावार्थ-सन्यासी या मुक्त पुरुष पहचान करने वाले लक्षण होते हैं। वह खप्पर का उपयोग बर्तन के रूप में करता है। पेड़ के नीचे ही उसका घर होता है। वह पेड़ की छाल पहनता है। इसके अलावा वह अकेला जीवन जीते हुए सभी पर अपनी समान दृष्टि रखता है।
हमारे भारतीय दर्शन में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सन्यासी वही हो सकता
है जो न केवल घर परिवार का त्याग करे वरन् वह समाज से भी परे एकांत स्थान पर निवास
करे। भोजन, रहन सहन और व्यवहार में उसे संयम रखना
चाहिये। इसके विपरीत हम वर्तमान में
सन्यासियों को देखते हैं तो उनका रहन सहन किसी पूंजीपति या राज्य प्रमुख से कम
नहीं होता। सबसे बड़ी बात यह कि वह धार्मिक विषयों पर इस बोलते हैं जैसे कि वह
सन्यासी नहीं वरन् राजा हों। उनकी वाणी
में ऐसी आक्रामकता होती है जैसे कि भक्त गण
उनके अंतर्गत आने वाली प्रजा हों।
भारतीय शिक्षा में अध्यात्म का विषय नहीं रखा गया है इसलिये उच्च शिक्षा
प्राप्त करने के बावजूद भारतीय समाज धार्मिक रूप से अज्ञानी रहता है और कर्मकांडों
के लिये वह धार्मिक पेशेवरों की शरण में जाता है।
ज्ञान के अभाव की वजह से लोग सन्यासी,
कर्मयोगी और सद्गृहस्थ का आशय नहीं समझते और इसका
लाभ इन कथित धर्म विशेषज्ञों को मिलता है। प्राचीन ग्रथों से जो बात यही सुनायें
वही ठीक मान ली जाती है।
बहरहाल हमें अध्यात्मिक दृष्टि से श्रीमद्भागवत गीता तथा कर्मकांडों के
निर्वहन के समय मनुस्मृति का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। केवल वस्त्र के आधार पर
सन्यासी तथा कर्म के आधार योगी मानकर सभी की जयजयकार करने से कोई लाभ नहीं। सन्यास
की बात करना सहज है पर उसके धर्म का निर्वाह बहुत कठिन है इसलिये श्रीमद्भागवत
गीता में कर्मयोग को प्रधानता दी गयी है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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