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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/27/19

आंखें कहां पढें कान ज्ञानी बने अब-दीपकबापूवाणी (Ankhen kahan padhen kan gyani bane ab-DeepakBapuwani)


वह रोज नये रूप रचेंगे,
प्रायोजकं के संकेत पर नचेंगे।
कहें दीपकबापू चोर हो या सिपाही
पर्दे पर विज्ञापन से जचेंगे।।
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हर सामान पर नज़र हैं डाले,
वाणी धवल पर मन के हैं काले।
कहें दीपकबापू किससे बतियायें
सबकी आंखों पर लगे हैं जाले।।
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दया कभी भीख में न मिले,
ममता कभी सीख में न मिले।
कहें दीपकबापू करो पराक्रम ऐसा
कभी जो तारीख में मिले।
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किससे वफा की उम्मीद करें
सबके दिल में कातिल बसे हैं।
‘दीपकबापू’ किससे प्या जतायें
सबके जज़्बात बहुत कसे हैं।
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चिट्ठी लिखने का चलन नहीं अब,
आंखें कहां पढें कान ज्ञानी बने अब।
कहें दीपकबापू पत्थर दिल हुए
जज़्बात में जड़ता आ गयी अब।।
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जलती धूप में जलने का डर है,
भारी सर्दी में गलने का डर है।
‘दीपकबापू’ बैठे सोचते रहे तो
खोपड़ी चिंताओं का घर है।
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उम्मीद से बजाते सब अपना राग,
छिपाते कुर्सी पर बैठने से लगे दाग।
कहें दीपकबापू पर्दे से फेरो मुंह
जमीन पर बैठे खाओ रोटी राग।
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