मुझसे मुंह फेर गये अच्छा किया
मिलते तो दोनों का समय बर्बाद होता
विवाद के डर से भी बचे
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रसहीन गंधहीन रूपहीन शब्दहीन
स्वादहीन हैं जिंदगी
जिंदा रहने की मजबूरी
अच्छी या बुरी
मालूम नहीं
पर खुश रहो
प्राणवान है पर अर्थहीन नहीं है जिंदगी।
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पहले सामने थे अब हैं यादों में
गुजरे पल बंधे गये जिंदगी के धागों में
दीपकबापू बढ़़ाते रहें कदम
राह में चल रहे हमसफर
मतलब की खातिर
भरोसा निभाते
बेकार भरोसा करना है
दूर से आ रहे वादों में।
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बाहर चमक में छिपा दर्दीला जहां
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महल जैसे निवास की इच्छा
मिलने पर चैन भी रहता कहां
सुंदर वाहन में घूमने की चाहत
घूमने पर थकावट भी होती वहां
कहें दीपकबापू दिल में ढूंढो मजा
बाहर चमक में छिपा दर्दीला जहां।
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सिक्के के मोह में मन डोला था
हाथ में खाली झोला था
पसीने की धारा बहती रही
रोटी के लिये देह सब सहती रही
कहें दीपक बापू
भरे शहर बेरौनक जब हुए
भोग के चाहने वाले टूट गये
जो सड़के रहती थीं सुनसान
वहां यायावर मन का निकला टोला था।
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पांव में बेड़ी लगा दी-कविता
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बस इतना कोई बता दे
हमारी चहल कदमी पर
बंदिश क्यों लगा दी
जिंदगी से लड़ते हुए
कभी सठियायें नहीं
तुमने क्यो हमारे पांव में बेड़ी लगा दी।
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कुछ ख्वाहिशों के लिये ही
तो घर छोड़ा था
अपने शहर से मुंह मोड़ा था
नहीं मिला कुछ वहां भी
लौट रहे बुद्धुओं की तरह वापस
यह सोचते हुए
अपने दर पर वही अच्छा जो थोड़ा था।
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जब हम ढूंढ रहे थे आसरा
जमाना लगा था अपने काम में,
हम जज़्बात से निभाते
लोग वफा बेच रहे थे दाम में।
‘दीपकबापू’ अपने घर में नज़रबंद
तृप्त मन क्या ढूंढे अपने नाम में
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पहले रोग बताया अब करें इलाज की तलाश,
कोई दवा बिकने आयेगी करते हम आस।
इंसान में वहम का रोग हैं संक्रमित,
अपने बच निकलने के दावे से सब भ्रमित।
न बीमारी का नाम होता मशहूर
जमाना तब रहता भय से दूर।
अंग्रेजी नाम के विकार
दवा दाम से हो रहे शिकार।
कहें दीपकबापू पंचभूत से बनी देह
बिगाड़ें वही बनाने की भी उनसे आस।
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मुख मंडल लोह नकाब से ढका
मयखाने की पंक्ति में हैं खड़े।
शहरबंदी का हाल यह हुआ
पंक्ति में लगे शर्मदार बड़े।
‘दीपकबापू चाहें कुछ तारीफ
छिपकर पीते थे अब सरेराह अड़े।
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सड़क पहले ही टूटी है
उस पर भी पसरा बीमारी का डर,
अंदर गर्म हवा घूम रही
जलता लग रहा अपना घर।
‘दीपकबापू’ मायूस क्योें होते हो
अपने ही दर्द पर तू हंसी भर।
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आकाश में उड़ने की चाहत
गिराकर कर नीचे करती कभी आहत।
पंख मिले नहीं
मन उड़ने के लिये तैयार
बेचैनियों को रख लिया
दिलोदिमाग पर बोझ की तरह
ढूंढ रहा इंसान फिर भी राहत।
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पत्थर की छत के नीचे
दीवारों के पीछे
वह कहां हैं विराजे,
फूलों से लदे दरवाजे
चौखट पर बज रहे हैं बाजे।
दीपकबापू बासी मन से बजती
ढेर सारी ताली
उसके होने की अनूभूति की
घर में भी करते वही भक्त
जिनके भाव ताजे हैं।
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कभी गर्म सर्द या शुष्क होती हवायें
असर दिल पर है कैसे समझायें,
बीमारी फैली पर्यावरण में
एकांतवासी घर किसे पीड़़ा बतायें।
बहुतों ने शपथ ली सबके इलाज की
दीपकबापू ढूंढते अपने मर्ज की दवायें
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वहम के व्यापार में कट रही चांदी
अक्ल हो गयी चालाकों की बांदी।
कहें दीपकबापू सच डाले कोने में
बीमारों का इलाज अंधविश्वास से करते
बेबस के पास भेजते वादों की आंधी।
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काश! मिट जाती लालच लोभ की दौड़-हिन्दी कविता
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काश! आकाश से उम्मीद के फूल
नीच टपके होते
काश! जमीन पर सपनों के फल
हकीकत में उगते
सब हमने ही लपके होते
कहें दीपकबापू दिल की चाहतें
करवाती जंग
मिट जाती
लालच लोभ की दौड़
काश! सब लोग सबके होते।
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मन के व्यापारी-हिन्दी कविता
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स्वार्थसिद्धि के लिये
ढेर सारे सपने दिखाते
चतुर मन के व्यापारी,
खाली कर दिमाग और जेब
सब समेट छोड़ देते यारी।
‘दीपकबापू’ कर ध्यान
जो हाथ में उसे अपना मान
तब खेलना खुलकर
जब आये अपने समय की पारी।
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लहरों को यार बना लेते-हिन्दी कविता
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ऐसे यार कि साथ निभाने की
सामने शर्त जमा देते
दिल में ख्याल आता कि
क्यो नहीं यारी को
व्यापार बना लेते।
तारनहार नाव लगा देगा किनारे
पानी की धार चलेगी अपनी तरह
दीपकबापू लहरों का यार बना लेते।
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इंसान प्रलय लाया-हिन्दी क्षणिका
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महामारी ने यूं अपना रूप पाया
लाती प्रकृति इंसान का प्रलय लाया
नशेबाज होश में कांपने लगे
घूमने वाले एकांत तापते जगे।
दीपकबापू जोगी ढूंढते रहे विषाणू
असुरों की तरह लापता पाया।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’ ग्वालियर
वह निंदा गायें,
परनिंदा सुनने पर मजा उठायें
क्या जवाब दे उनका जो
सवाल उठाना जानें
उत्तर पर कान बंद कर जायें।
कहें दीपकबापू हम चले
जिंदगी राह अपने कदम पर
दूसरों के कंधे पर टिकायें
अपना आसरा
उन से क्या बहस चलायें।
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अपनी जिंदगी बेहाल
गैरों के दर्द पर ठोक रहे ताल।
ज़माने के लिये बुन रहे
खुद ही फंसा देता अपना जाल।
गुरु बन रहे हारे हुए
सीख रहे पिटे मोहरों से चेले
कहें दीपक अपनी घोल नशा होये
जिसका नशा आजादी वह चैन सोचे।
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सड़क का कायदा-हिन्दीकविता
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बड़ा सवार छोटे को कुचल देता
सड़क का कायदा यही हुआ
आहिस्ता चलें या तेज
मध्यम चलना भी जुआ
कहें दीपक बापू स्वयं निकलें
चाहे भेजें बाहर अपना कोई
लौटते तक मांगें बस दुआ।
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बाहर बह रही गर्म हवा
अंदर ढूंढ रहे संक्रमण की दवा
भौंपू सुना रहे शवों की कथायें।
चलो सुने लेते कुछ गीत
लिख लेते कुछ मुक्तक
अपने से दूर करे व्यथायें।
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न आशा से ऊपर ताको
न झांको अपने दायें बायें।
दीपकबापू हम साधक सारथि
तन अपना रथ जैसा चलायें।
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दरबार मूर्खों और जाहिलों से भरे-हिन्दी कविता
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सच है तलवार से बड़ा काम कलम करे,
लोहे से गर्दन कटे एक बार शब्द दंड जन्म भरे।
सिंहासन पर बैठ गये अनपढ़़ और अनगढ़ भी
महलों से हुकुम चलाते अपनी असलियत से डरे।
पढ़े लिखे गुलाम फिर रहे उनके घर के चारों ओर
प्रजा की औकात इतनी कि वह राजस्व भरे।
कहें दीपकबापू मत उठाना लोकतंत्र का सवाल
धूर्तों ने अपने दरबार मूर्खों और जाहिलों से भरे
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रामभरोसे-हिन्दी क्षणिका
राम नाम जापते
सिंहासन पर पहुंचे
फिर भी पुराने यार को कोसे।
कहें दीपकबापू भक्त निष्काम
आज भी हैं रामभरोसे
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’, ग्वालियर
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