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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

2/14/10

फिल्म वही जो सभी को भाये-हिन्दी लेख (a hindi article on film)

एक फिल्म बनी थी संतोषी मां! वह इतनी जोरदार हिट हुई थी कि उसके निर्माताओं की चांदी हो गयी। उसकी इतनी जोरदार सफलता की आशा तो उसके निर्माता निर्देशक तक ने  भी नहीं की।  वह फिल्म महिलाओं को बहुत पसंद आयी और वह दोपहर के शो में अपने घर का निपटाकर मोहल्ले से झुंड बनाकर  देखने जाती थीं।  हमारे शहर में वह फिल्म एक ऐसे थिऐटर में लगी जिसमें पुरानी फिल्में ही लगती थीं। उसका फर्नीचर भी निहायत घटिया था।  कम से कम वह थियेटर इस लायक नहीं था कि अमीर और  गरीब दोनों वर्ग की महिलायें वहां जाना पसंद करें। इसलिये उसमें नई फिल्में नहीं  लगती थीं। संतोषी मां एक छोटे बजट  की धार्मिक फिल्म थी इसलिये कम दर के कारण उसे वह थियेटर मिल गया।
भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में कहीं भी संतोषी मां नाम का पात्र नहीं मिलता, मगर धर्म का ऐसा महत्व है कि वह फिल्म पूरे देश में एतिहासिक कीर्तिमान बनाती रही।  कोई प्रचार नहीं! जो फिल्म देखकर आया उसने दूसरे को बताया और दूसरे ने तीसरे को। साथ ही यह भी बात फैलती रही  एक शहर से दूसरे और दूसरे से तीसरे! आज का  टीवी, रेडियो या अखबार का प्रचार उसके सामने फीका लगता है।  उस फिल्म के बाद ही हमारे देश में शुक्रवार को माता का व्रत रखने का सिलसिला शुरु हुआ जो आज तक जारी है।  एक फिल्म क्या कर सकती है ‘संतोषी मां’ इसका प्रमाण है। साथ ही यह भी कि अगर फिल्म में दम हो तो  वह बिना प्रचार के ही चल सकती है।
आजकल मुंबईया फिल्मों को पहले दिन के दर्शक जुटाने के लिये भी भारी मशक्कत करनी पड़ती है। इसका कारण  है कि देश में मनोरंजन के ढेर सारे साधन हैं और इतने सारे विकल्प हैं कि थोक भाव में लोगों का पहले दिन मिलना मुश्किल काम है।  यही कारण है कि आजकल फिल्मों के प्रसारण से पहले उससे विवाद जोड़ने का प्रचलन शुरु हुआ है। वैसे वह ऐसा न भी करें तो भी फिल्मों को पहले दिन दर्शक मिल जायेंगे।  समस्या तो अगले दिनों की है।
अधिकतर फिल्मी विशेषज्ञ सप्ताह भर के आंकड़ों पर ही फिल्म की सफलता और असफलता का विश्लेषण करते हैं। एक आम आदमी के रूप हमारे लिये किसी  फिल्म की सफलता का आधार यह होता है कि आम  लोग  कितने महीनों तक उसे याद रखते हैं। शोले, सन्यासी, त्रिशुल, दीवार, राम और श्याम, जंजीर और अन्य कई फिल्में ऐसी हैं जिनको लोग आज तक याद करते हैं। अमिताभ बच्चन को इसलिये ही सर्वाधिक सफल माना जाता है क्योंकि उनकी सबसे अधिक यादगार फिल्में हैं।  देखा जाये तो उनके बाद अनिल कपूर ही ऐसे हैं जो सुपर स्टार की पदवी पर रहे।  उनके बाद के अभिनेताओं की फिल्में यादगार नहीं रही।  यही कारण है कि आज के अभिनेता अपनी यादगार इतिहास में बनाये रखने  के लिये आस्कर आदि जैसे विदेशी पुरस्कारों का मुंह जोहते हैं।
अभी हाल ही में दो फिल्में रिलीज हुई। उनको लेकर ढेर सारा विवाद खड़ा हुआ। विशेषज्ञ मानते हैं कि वह भीड़ खींचने के लिये किया गया।  अभी दूसरी  फिल्म का परिणाम तो आना है पर पहले वाली फिल्म का नाम तक लोग भूल गये हैं ।
दरअसल किसी भी फिल्म को पहले और दूसरे दिन फिल्म देखने वाले दर्शक ही उसके भविष्य का निर्माता भी होते हैं क्योंकि वह बाहर आकर जब लोगों का अपना विचार बताते हैं तब अन्य दर्शक वर्ग देखने जाता है। विवादों की वजह से शुरुआती एक या दो दिन अच्छे दर्शक मिल जाते हैं पर  बाद फिल्म की विषय सामग्री ही उसे चला सकती है।
यहां हो यह रहा है कि फिल्म आने से पहले उसका विवाद खड़ा किया जाता है। लोग देखने पहुंचते हैं तो पता लगता है कि ‘सामान्य फिल्म’ है और उनकी यह निराशा अन्य दर्शकों को वहां नहीं पहुंचने देती।  किसी फिल्म की सफलता इस आधार पर विश्लेषक देखते हैं कि उसने कितना राजस्व फिल्म उद्योग को दिलवाया।  अगर विश्लेषकों की बात माने तो अनेक बहुचर्चित फिल्में इस प्रयास में नाकाम रही हैं।  किसी हीरो की लोकप्रियता का भी यही आधार है और इसमें अनेक अभिनेता सफल नहीं हैं।  एक मजे की बात है कि एक दो वर्ष पहले अक्षय कुमार के बारे में कहीं हमने पढ़ा था कि वह सबसे अधिक कमाई फिल्म उद्योग को कराने वाला कलाकार है-जबकि प्रचार में अन्य कलाकारों को बताया जा रहा था।   हालांकि उनकी आखिरी फिल्म भी फ्लाप हो गयी जो कि उनके साथ बहुत कम होता है-फिल्म उद्योग में अधिक राजस्व दिलाने में उनका क्या योगदान है यह भी अब पता नहीं है।  
कहने का अभिप्राय यह है  किसी फिल्म पर एक या दो दिन में अपनी कोई राय कायम नहीं की जा सकती।  अभी हाल ही में विवादों से प्रचार पा चुकी दो फिल्मों के बारे में देखने वालों की यह टिप्पणी है कि वह अत्यंत साधारण हैं। यकीनन यह बात उनके आगामी दर्शकों का मार्ग रोकेगी।
हमारा दूसरा ही अपना आधार है। वह यह कि कौनसी वह फिल्म है जो हमें पूरी देर बैठने को विवश करती है। अभी टीवी पर  नसीरुद्दीन और अनुपम खेर द्वारा अभिनीत  आतंकवाद के विषय पर बनी एक फिल्म ने पूरी तरह हमको बांधे रखा।  उस फिल्म का नाम याद नहीं है पर इतन तय है कि उसे अधिक सफलता नहीं मिली होगी क्योंकि वह संगीत और गीत रहित थी जबकि हिन्दी फिल्मों में सफलता के लिये उनका होना जरूरी है।  किसी भी फिल्म को चहुंमुखी सफलता तभी मिल पाती है जब उसकी कथा, पटकथा, गीत और संगीत समाज के हर प्रकारे की  आयु तथा आर्थिक वर्ग के लोगों को एक साथ प्रभावित करे। इस तरह की फिल्में अब बन ही नहीं रही-यह  निराशा की बात है। यही कारण है कि अब सुपर स्टार बनते नहीं भले ही प्रचारित किये जाते हों।


कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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