कच्ची बस्तियों का उजड़ना
पत्थर के महलों का बसना ही
शायद यही विकास कहलाता है।
गांवों का बढ़ते बढ़ते शहर हो जाना
शहरों में दिलों का सिकुड़ जाना
शायद यही विकास कहलाता है।
नीयत का काला हो जाना,
बदनीयत को चतुराई जताना,
शायद यही विकास कहलाता है।
आजाद मजदूर का गरीब हो जाना
कलम के गुलाम का अमीर के साथ हो जाना
शायद यही विकास कहलाता है।
खुद की सोच से ही डर जाना
अमीर के इशारे पर
जमाने का जागना और सो जाना
शायद यही विकास कहलाता है।
कुदरत की सांसों को बादशाह का तोहफा कहना
दौलतमंदों के नखरों को आदत की तरह सहना
शायद यही विकास कहलाता है।
किसे समझायें कि
खुद को समझे बिना
जमाने को नहीं समझा जा सकता है
बंद कर दी अपनी अक्ल ताले में
तो कोई भी बिना जंजीरों के
भीड़ में भेड़ की तरह ले जायेगा तुम्हें
पर आंख और कान होते हुए भी
इंसान हो गये गुलाम
शायद यही विकास कहलाता है।
---------------------
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
-----------------
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
भ्रमजाल फैलाकर सिंहासन पा जाते-दीपकबापूवाणी (bhramjal Failakar singhasan
paa jaate-DeepakbapuWani
-
*छोड़ चुके हम सब चाहत,*
*मजबूरी से न समझना आहत।*
*कहें दीपकबापू खुश होंगे हम*
*ढूंढ लो अपने लिये तुम राहत।*
*----*
*बुझे मन से न बात करो*
*कभी दिल से भी हंसा...
5 years ago
1 comment:
किसे समझायें कि
खुद को समझे बिना
जमाने को नहीं समझा जा सकता है
बंद कर दी अपनी अक्ल ताले में
तो कोई भी बिना जंजीरों के
भीड़ में भेड़ की तरह ले जायेगा तुम्हें
पर आंख और कान होते हुए भी
इंसान हो गये गुलाम
शायद यही विकास कहलाता है।
मार्मिक रचना दीपक जी।
Post a Comment