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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/24/10

श्रीमदभागवत गीता केवल सिखाती नहीं विवेक भी जगाती है (shri madabhagavat gita vivek jagati hai)

अगर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नित्य करें तो इस बात का आभास सहजता से होता है कि उसमें सिखाया कुछ नहीं गया है बल्कि समझाया गया कि इस संसार का स्वरूप क्या है? उसमें यह कहीं नहीं कहा गया कि आप इस तरह चलें या उस चलें बल्कि यह बताया गया है कि किस तरह की चाल से आप किस तरह की छबि बनायेंगे? उसे पढ़कर आदमी कोई नया भाव नहीं सीखता बल्कि संपूर्ण जीवन सहजता से व्यतीत करें इसका मार्ग बताया गया है।
श्रीमदभागवत गीता पर जब कहीं चर्चा पढ़ने को मिलती है तब इस लेखक के मन में कुछ कुछ नया विचार आता है। यह स्थिति वैसी है जैसे कि श्रीमद्भागवत गीता को रोज पढ़ने पर नित्य कोई नया रहस्य प्रकट होता है। अक्सर अखबार, टीवी तथा अंतर्जाल पर होने वाली चर्चाओं में एक नारा अक्सर सुनाई देता है कि ‘सब पवित्र ग्रंथ एक समान’ उसमें अनेक ग्रंथों का नाम देते हुए श्रीमद्भागवत गीता का नाम भी दे दिया जाता है। कुछ लोग तो यह भी नारा देते हैं कि ‘सभी पवित्र ग्रंथ प्रेम, अहिंसा तथा दया का मार्ग सिखाते हैं’।
ऐसा लगता है कि बड़ी बड़ी बातें करने वाले छोटे नारों को गढ़कर अपना लक्ष्य साधते हैं। उनका उद्देश्य समाज के हर वर्ग के लोगों को प्रभावित करना होता है-अब यह अलग बात है कि कोई दौलत के लिये तो कोई शौहरत के लिए ऐसा करता है। कभी कभी तो लगता है कि श्रीगीता को मानने वाले तो असंख्य है पर उसे समझने वाले बहुत कम है शायद इसलिये श्रीगीता का नाम लेकर ही अधिकतर कथित प्रतिभाशाली लोग लोकप्रियता पाना चाहते हैं।
दुनियां के अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं और उनमें मनुष्य को देवताओं की तरह बनने के नुस्खे बताये गये हैं पर किसी ने देवताओं की पहचान नहीं बतायी। राक्षस या शैतान का उल्लेख सभी करते हैं पर उसे निपटने या वैसे न होने के लिये ज्ञान कहीं नहीं मिलता। दूसरी खुशफहमी यह पैदा की जाती है कि सभी मनुष्यों को देवता बनना चाहिए जो कि एक असंभव काम है। श्रीगीता बताती है कि इस संसार में विभिन्न प्रकार के लोग रहेंगे पर और उनकी पहचान समझना जरूरी है। वह एक आईना देती है जिसमें अपनी छबि देखी जा सकती है। वह ऐसा आईना देती है जो पारदर्शी है जिसमें आप दूसरे आदमी की पहचान कर उसे व्यवहार करने या न करने का निर्णय ले सकते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसमें एक वैज्ञानिक सूत्र है कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं।’ इसका मतलब यह है कि जैसे संकल्पों, विचारों तथा कर्मों से आदमी बंधा है वैसा ही वह व्यवहार करेगा। उस पर खाने पीने और रहने के कारण अच्छे तथा बुरे प्रभाव होंगे। सीधी बात यह है कि अगर आप अगर यह चाहते हैं कि अपने ज्ञान के आईने में आप स्वयं को अच्छे लगें तो अपने संकल्प, विचारों तथा कर्मों में स्चच्छता के साथ अपनी खान पान की आदतों तथा रहन सहन के स्थान का चयन करें। दूसरी बात यह है कि अगर आप आने अंदर दोष देखते हैं तो विचलित होने की बजाय यह जानने का प्रयास करें कि आखिर वह किसी बुरे पदार्थ के ग्रहण करने या किसी व्यक्ति की संगत के परिणाम आया-एक बात यह भी कि जैसे श्रीगीता का अध्ययन करेंगे आपको अपने अंदर भी ढेर सारे दोष दिखाई देंगे और उन्हें दूर करने का मार्ग भी पता लगेगा।
दूसरे व्यक्ति में दोष देखें तो उस पर हंसने या घृणा करने की बजाय इस बात का अनुसंधान करें कि वह आखिर किस कारण से उसमें आया। अगर कोई दुष्ट व्यक्ति आपसे बदतमीजी करेगा तो आप दुःखी नहीं होंगे क्योंकि आप जानते हैं कि इसके पीछे अनेक तत्व है जिनका दुष्प्रभाव उस पर पड़ा है।
श्रीगीता किसी को प्रेम करना अहिंसा में लिप्त होना नहीं सिखाती बल्कि अंदर प्रेम और अहिंसा का भाव अंदर कैसे पैदा हो यह समझाती है। तय बात है कि ऐसे में आपको ऐसे तत्वों से संबद्ध होना होगा जो यह भाव पैदा करें। मतलब सिखाने से प्रेम या अहिंसा का भाव नहीं पैदा होगा बल्कि वैसे तत्वों से संपर्क रखकर ही ऐसा करना संभव है।
श्रीगीता को पढ़ने और उन पर ंिचंतन करने वाले इस बात को जानते हैं कि कोई दूसरे को प्रेम नहीं सिखा सकता क्योंकि जिस व्यक्ति का घृणा पैदा करने वाले तत्वों से संबंध है उसमें प्रेम कहां से पैदा होगा? अलबत्ता स्वयं किसी अन्य व्यक्ति से सद्व्यहार करें क्योंकि अंततः वह उसे लौटायेगा।
श्रीमद्भागत गीता में चार प्रकार के भगवान के भक्त बताये गये है। भगवान की भक्ति होती है तो जीव से प्रेम होता है। अतः भक्ति की तरह प्रेम करने वाले भी चार प्रकार के होते हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। पहले बाकी तीन का प्रेम क्षणिक होता है जबकि ज्ञान का प्रेम हमेशा ही बना रहता है। अगर आपके पास तत्व ज्ञान है तो आप अपने पास प्रेम व्यक्त करने वालों की पहचान कर सकते हैं नहंी तो कोई भी आपको हांक कर ले जायेगा और धोखा देगा।
श्रीमद्भागवत गीता में यह बात साफ तौर से कही गयी है कि प्राणायाम ध्यान, ओम शब्द का स्मरण करने से संपन्न ज्ञान यज्ञ के अमृत की अनुभूति करने वाले भक्त मुझे प्रिय हैं-सीधा आशय यही है कि जीवन के कल्याण का यही उपाय है। यह अमृत पानी पीने वाला नहीं बल्कि मन में अनुभव किया जाने वाला है जिसकी अनुभूति देह और आत्मा दोनों में ही की जा सकती है। व्यक्ति की पहचान भी बताई गयी है जो दो प्रकार के होते हैं-दैवीय प्रकृति और आसुरी प्रकृति वाले। व्यक्ति की तरह भोजन के रूप का ज्ञान भी दिया गया जो तीन तरह का होता है-सात्विक, राजस और तामसी। जैसा भोजन वैसा मनुष्य! इसका ज्ञान होने पर मनुष्य आसानी से अपने आसपास के वातावरण और व्यक्ति की पहचान कर अपना कर्म करता है।
जब श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान कोई इंसान धारण कर लेता है तो वह निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया में इस तरह लिप्त होता है कि उसे सांसरिक पीड़ायें छू तक नहंी पाती क्योंकि वह जानता है कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं।’ दूसरी बात यह है कि पीड़ायें उसके पास आती भी नहीं क्योंकि वह उस श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान को आईना बनाकर सामने रख लेता है और पदार्थों को ग्रहण करने और अन्य व्यक्ति से व्यवहार करने में पहचान बड़ी सहजता से कर आगे बढ़ता है। अनुकूल लोगों से संपर्क करता है और प्रतिकूल लोगों से परे रहता है। प्रेम और अहिंसा का भाव उसमें इस तरह बना रहता है कि उसका आभास उसे स्वयं ही होता है। वह जानता है कि जीवन जीने का यही एक सहज रास्ता है।
इसलिये यह कहना ही गलत है कि श्रीमद्भागवत गीता भी अन्य ग्रंथों की तरह प्रेम करना या अहिंसा में लिप्त रहना सिखाती है संकीर्णता का परिचायक है। दरअसल प्रेम या अहिंसा सिखाने वाली बात नहीं बल्कि अपने अंदर कैसे पैदा हो इसका उपाय बताना जरूरी है। फिर इसके लिये अनेक तत्व हैं जिनका ज्ञान हुए बिना किसी में ऐसे भाव नहीं पैदा हो सकते जब तक श्रीगीता का अध्ययन न किया जाये। याद रखिये श्रीमदभागवत गीता दुनियां का अकेला ऐसा ग्रंथ है जिसमें ज्ञान तथा विज्ञान दोनो ही हैं।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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