अंततः अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शाामिल कुछ कथित समाजसेवी संस्थाओं के पदाधिकारियों ने एक अन्य राजनीतिक दल बनाने का निर्णय ले लिया है। दिल्ली में अनशन समाप्त करते समय श्री अन्ना हजारे ने उनको एक राजनीतिक दल बनाने का सुझाव दिया पर स्वयं चुनावी राजनीति से अलग रहने का अपना संकल्प भी दोहराया। अन्ना टीम के राजनीतिक दल बनाने का निर्णय कोई आश्चर्यजनक नहीं है। सच बात तो यह है कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध चला जरूर था पर इसकी सफलता प्रारंभ से ही संदिग्ध थी। हम जैसे साधारण विश्लेषकों के लिये यह समझना हमेशा ही मुश्किल बना रहा कि आखिर यह आंदोलन किस उद्देश्य के लिये चल रहा है? उस समय इस लेखक ने अपने ब्लॉगों पर यह लिखा था कि यह आंदोलन आर्थिक और प्रचार समूहों के शिखर पुरुषों से प्रायोजित है जिनको इस समय समाज में अपना वर्चस्व बनाये रखने तथा लोगों को व्यस्त रखने के लिये नये विषय और चेहरे चाहिए।
अन्ना टीम के राजनीतिक रूप मेें आने यह स्पष्ट हो गया है कि बाज़ार, राजनीति तथा प्रचार समूहों के शिखर पुरुषों के वेतनभोगी प्रबंधक इस देश में ऐसा वैकल्पिक राजनीतिक दल बनवाने के लिये सक्रिय थे जिसके सहारे आगे भी आम आदमी में आशाओं का संचार बनाये रखकर उसे नियंत्रण में रखा जाये। विश्व के अनेक देशों में जनविद्रोह के चलते अपने देश में एक जनआंदोलन के सहारे निराशा जनता में आशा का संचार करना शायद इन प्रबंधकों को आवश्यक लगा होगा। बहरहाल जब जैसे आम लेखक या विश्लेषक जो न तो किसी सक्रिय राजनीतिक दल की अंदरूनी जानकारी रखते हैं न उनके आपसी द्वंद्वो में रुचि होती है उनको अन्न टीम के फैसले पर कोई आश्चर्य नहीं है। एक पेशेवर राजनीतिक विश्लेषक न होने के बावजूद हमारी दिलचस्पी अन्ना टीम में हमेशा रही है। यह अलग बात है कि हमें इस बात पर हैरानी है कि पेशेवर राजनीतिक विश्लेषक अन्ना हजारे टीम के राजनीतिक स्वरूप लेने पर भी अधिक स्पष्ट ढंग से भावी संभावनायें व्यक्त नहीं कर पाये। स्पष्टतः उनकी पकड़ आमजन में मानस पर नहीं है जबकि सच्चाई यह है कि अन्ना हजारे साहब ने अपने अनशन से भारतीय जनमानस में इतनी छवि तो बनायी है कि वह एक आंदोलन के चलाने के साथ उसे राजनीतिक दल बनाकर उच्च स्तर पर स्थापित कर सकें।
अन्ना हजारे की टीम 2014 के चुनावों की तैयारी में लग गयी है। हमारा मानना है कि अन्ना टीम निरंतर प्रचार में अपनी अपनी सक्रियता दिखाने के साथ ही अन्ना भी जनजागरण अभियान में बने रहे तो उनके राजनीतिक दल का भारतीय चुनावी राजनीति में गुणात्मक प्रभाव रहेगा। चार बार हुए अनशन में अंतिम बार अन्ना टीम के सदस्य पहली बार भूखे बैठे। उनके चेहरे निकल आये थे। यकीनन वह जिन अन्ना हजारे के चेहरे के साथ वह आगे बढ़े थे उसके सामने उनका व्यक्त्तिव भूखे पेट फीका दिखाई दे रहा था। कुछ लोग अनशन को फ्लाप बता रहे हैं पर इसके बावजूद यह सच है कि अन्ना हजारे के लिये भारतीय जनमानस में आशा का संचार निरंतर प्रवाहित है। पचहतर वर्षीय अन्ना हजारे का नाम अगर अन्ना टीम ब्रांड के रूप में उपयोग करेगी तो वह पूरे देश में अपना प्रभाव दिखायेगी। उसकी भीड़ मतदाता के रूप में तब्दील होगी इसमें संदेह नहीं है। यह अनेक दलों के प्रतिबद्ध मतदाता तोड़ेगी जो बड़ी संख्या में हैं। वह शून्य से सौ, हजार और लाख के क्रम में बढ़ने की बजाय सीधे लाख वोट से अपनी लड़ाई शुरु कर सकती है। अनेक लोगों ने अन्ना टीम में जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय तथा भाषाई समूहों के आधार पर प्रतिनिधित्व न होने का आरोप लगाया था पर हमारा मानना है कि चुनाव में इस प्रचार का कोई प्रभाव नहीं होगा।
मुख्य बात यह है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम को स्वयं भी समाज के परंपरागत विभाजनों के विवाद में पड़ने की बजाय योग्यता तथा क्षमता के आधार पर अपनी लड़ाई आगे बढ़ाना चाहिए। उसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्रीय विषयों से जुड़े विभाजनों से मुंह फेर लेना चाहिए। कम से कम कार्ल मार्क्स के इस सच के साथ उसे जुड़े तो रहना ही चाहिए कि आदमी की सबसे बड़ी जरूरत रोटी है। उसके बाद बिजली, शुद्ध पेयजल तथा सड़कों समेत मूलभूत आर्थिक ढांचों के पुख्ता करने की बात उसे करना चाहिए। सीधी बात कहें तो उसे आजादी के बाद इस देश में राजनीतिक परिदृश्य में स्थित उन दागों को अपने ऊपर नहीं लगने देना चाहिए जिसकी वजह से समाज बंट जाता है। उसके सामने प्रचार माध्यमों में जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्रों को बांटने वाले सवालों पर गौर करने के लिये कहा जायेगा पर अन्ना टीम केवल आम आदमी के कल्याण करने के अलावा अपने लक्ष्य का विस्तार न करे। अगड़ा पिछड़ा, अवर्ण सवर्ण, अल्पसंख्यक बहुसंख्यक, स्त्री पुरुष और अमीर गरीब जैसे शब्द समाज को बांटने के लिये बनाये गये लगते हैं। अन्ना टीम से इस बंटवारे पर तमाम तरह के स्पष्टीकरण मांग कर उन्हें परंपरागत ढर्रे पर चलने का दबाव होगा। अन्ना टीम ने अगर इन विषयों पर अगर सफाई देना प्रारंभ किया तो वह अपना नुक्सान करेगी। ऐसे में गुणात्मक वृद्धि की बजाय वह धनात्मक वृद्धि प्राप्त करेगी। उसे नये दल बनाने के साथ ही नया देश और नये समाज के निर्माण का दावा करना होगा न कि परंपरागत ढंग से अपनी उपस्थिति बनाये रखने के जूझना होगा। आखिरी बात यह कि उसे परंपरागत द्वंद्वों में व्यस्त समूहों और लोगों के बीच में अपना टांग फंसाना ठीक नहीं होगा।
यह कड़ी शर्तें हैं। इसका पालन अन्ना टीम कर पायेगी इसमें संदेह है। अन्ना टीम जब एक राजनीतिक दल के रूप में आगे बढ़ेगी तो उसमें सक्रिय सदस्यों के राजनीतिक संपर्कों की पोल भी सामने आयगी। ऐसे में इन लोगों को किसी का अनुयायी दिखने की बजाय स्वयंभू होने का दावा भी प्रस्तुत करना होगा जिसे आमजन स्वीकार भी कर लेगा। अन्ना टीम को अपने दल का घोषणापत्र नवीन आधार पर बनाना होगा। उसमें शामिल एक शब्द भी उसकी स्थिति खराब कर सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि परंपरागत नारों से परे होकर नवीनता के संदेश के साथ ही यह आगे बढ़ेगी। वर्तमान छवि को निरंतर बनाये रखना अन्ना टीम के लिये अत्यंत संघर्षपूर्ण होगा। हम न तो किसी राजनीतिक दल के सदस्य हैं न ही ऐसी सक्रियत है कि अंदर झांककर अपना अनुमान कर सकें पर प्रचार माध्यमों के साथ ही राह चलते हुए लोगों से बातचीत करते हुए हमने अपनी बात लिखी है। आगे कोई बात समझ में आयेगी तो लिखेंगे। अगर लगा कि यह दल भी पुराने टाईप चल रहा है तो फिर तौबा भी कर लेंगे। वैसे हम कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं है कि हमारी बात अन्ना टीम तक पहुंच जाये। हमारा ब्लॉग चंद लोग ही पढ़ते हैं। उनमें भी तो कई लोग नाम भी याद नहीं रख पाते होंगे। ऐसे में यह सब लिखना बेकार है पर यह सोचकर लिखते हैं कि भले ही दो लोगों तक अपनी बात तो पहुंच ही जायेगी।
अन्ना टीम के राजनीतिक रूप मेें आने यह स्पष्ट हो गया है कि बाज़ार, राजनीति तथा प्रचार समूहों के शिखर पुरुषों के वेतनभोगी प्रबंधक इस देश में ऐसा वैकल्पिक राजनीतिक दल बनवाने के लिये सक्रिय थे जिसके सहारे आगे भी आम आदमी में आशाओं का संचार बनाये रखकर उसे नियंत्रण में रखा जाये। विश्व के अनेक देशों में जनविद्रोह के चलते अपने देश में एक जनआंदोलन के सहारे निराशा जनता में आशा का संचार करना शायद इन प्रबंधकों को आवश्यक लगा होगा। बहरहाल जब जैसे आम लेखक या विश्लेषक जो न तो किसी सक्रिय राजनीतिक दल की अंदरूनी जानकारी रखते हैं न उनके आपसी द्वंद्वो में रुचि होती है उनको अन्न टीम के फैसले पर कोई आश्चर्य नहीं है। एक पेशेवर राजनीतिक विश्लेषक न होने के बावजूद हमारी दिलचस्पी अन्ना टीम में हमेशा रही है। यह अलग बात है कि हमें इस बात पर हैरानी है कि पेशेवर राजनीतिक विश्लेषक अन्ना हजारे टीम के राजनीतिक स्वरूप लेने पर भी अधिक स्पष्ट ढंग से भावी संभावनायें व्यक्त नहीं कर पाये। स्पष्टतः उनकी पकड़ आमजन में मानस पर नहीं है जबकि सच्चाई यह है कि अन्ना हजारे साहब ने अपने अनशन से भारतीय जनमानस में इतनी छवि तो बनायी है कि वह एक आंदोलन के चलाने के साथ उसे राजनीतिक दल बनाकर उच्च स्तर पर स्थापित कर सकें।
अन्ना हजारे की टीम 2014 के चुनावों की तैयारी में लग गयी है। हमारा मानना है कि अन्ना टीम निरंतर प्रचार में अपनी अपनी सक्रियता दिखाने के साथ ही अन्ना भी जनजागरण अभियान में बने रहे तो उनके राजनीतिक दल का भारतीय चुनावी राजनीति में गुणात्मक प्रभाव रहेगा। चार बार हुए अनशन में अंतिम बार अन्ना टीम के सदस्य पहली बार भूखे बैठे। उनके चेहरे निकल आये थे। यकीनन वह जिन अन्ना हजारे के चेहरे के साथ वह आगे बढ़े थे उसके सामने उनका व्यक्त्तिव भूखे पेट फीका दिखाई दे रहा था। कुछ लोग अनशन को फ्लाप बता रहे हैं पर इसके बावजूद यह सच है कि अन्ना हजारे के लिये भारतीय जनमानस में आशा का संचार निरंतर प्रवाहित है। पचहतर वर्षीय अन्ना हजारे का नाम अगर अन्ना टीम ब्रांड के रूप में उपयोग करेगी तो वह पूरे देश में अपना प्रभाव दिखायेगी। उसकी भीड़ मतदाता के रूप में तब्दील होगी इसमें संदेह नहीं है। यह अनेक दलों के प्रतिबद्ध मतदाता तोड़ेगी जो बड़ी संख्या में हैं। वह शून्य से सौ, हजार और लाख के क्रम में बढ़ने की बजाय सीधे लाख वोट से अपनी लड़ाई शुरु कर सकती है। अनेक लोगों ने अन्ना टीम में जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय तथा भाषाई समूहों के आधार पर प्रतिनिधित्व न होने का आरोप लगाया था पर हमारा मानना है कि चुनाव में इस प्रचार का कोई प्रभाव नहीं होगा।
मुख्य बात यह है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम को स्वयं भी समाज के परंपरागत विभाजनों के विवाद में पड़ने की बजाय योग्यता तथा क्षमता के आधार पर अपनी लड़ाई आगे बढ़ाना चाहिए। उसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्रीय विषयों से जुड़े विभाजनों से मुंह फेर लेना चाहिए। कम से कम कार्ल मार्क्स के इस सच के साथ उसे जुड़े तो रहना ही चाहिए कि आदमी की सबसे बड़ी जरूरत रोटी है। उसके बाद बिजली, शुद्ध पेयजल तथा सड़कों समेत मूलभूत आर्थिक ढांचों के पुख्ता करने की बात उसे करना चाहिए। सीधी बात कहें तो उसे आजादी के बाद इस देश में राजनीतिक परिदृश्य में स्थित उन दागों को अपने ऊपर नहीं लगने देना चाहिए जिसकी वजह से समाज बंट जाता है। उसके सामने प्रचार माध्यमों में जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्रों को बांटने वाले सवालों पर गौर करने के लिये कहा जायेगा पर अन्ना टीम केवल आम आदमी के कल्याण करने के अलावा अपने लक्ष्य का विस्तार न करे। अगड़ा पिछड़ा, अवर्ण सवर्ण, अल्पसंख्यक बहुसंख्यक, स्त्री पुरुष और अमीर गरीब जैसे शब्द समाज को बांटने के लिये बनाये गये लगते हैं। अन्ना टीम से इस बंटवारे पर तमाम तरह के स्पष्टीकरण मांग कर उन्हें परंपरागत ढर्रे पर चलने का दबाव होगा। अन्ना टीम ने अगर इन विषयों पर अगर सफाई देना प्रारंभ किया तो वह अपना नुक्सान करेगी। ऐसे में गुणात्मक वृद्धि की बजाय वह धनात्मक वृद्धि प्राप्त करेगी। उसे नये दल बनाने के साथ ही नया देश और नये समाज के निर्माण का दावा करना होगा न कि परंपरागत ढंग से अपनी उपस्थिति बनाये रखने के जूझना होगा। आखिरी बात यह कि उसे परंपरागत द्वंद्वों में व्यस्त समूहों और लोगों के बीच में अपना टांग फंसाना ठीक नहीं होगा।
यह कड़ी शर्तें हैं। इसका पालन अन्ना टीम कर पायेगी इसमें संदेह है। अन्ना टीम जब एक राजनीतिक दल के रूप में आगे बढ़ेगी तो उसमें सक्रिय सदस्यों के राजनीतिक संपर्कों की पोल भी सामने आयगी। ऐसे में इन लोगों को किसी का अनुयायी दिखने की बजाय स्वयंभू होने का दावा भी प्रस्तुत करना होगा जिसे आमजन स्वीकार भी कर लेगा। अन्ना टीम को अपने दल का घोषणापत्र नवीन आधार पर बनाना होगा। उसमें शामिल एक शब्द भी उसकी स्थिति खराब कर सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि परंपरागत नारों से परे होकर नवीनता के संदेश के साथ ही यह आगे बढ़ेगी। वर्तमान छवि को निरंतर बनाये रखना अन्ना टीम के लिये अत्यंत संघर्षपूर्ण होगा। हम न तो किसी राजनीतिक दल के सदस्य हैं न ही ऐसी सक्रियत है कि अंदर झांककर अपना अनुमान कर सकें पर प्रचार माध्यमों के साथ ही राह चलते हुए लोगों से बातचीत करते हुए हमने अपनी बात लिखी है। आगे कोई बात समझ में आयेगी तो लिखेंगे। अगर लगा कि यह दल भी पुराने टाईप चल रहा है तो फिर तौबा भी कर लेंगे। वैसे हम कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं है कि हमारी बात अन्ना टीम तक पहुंच जाये। हमारा ब्लॉग चंद लोग ही पढ़ते हैं। उनमें भी तो कई लोग नाम भी याद नहीं रख पाते होंगे। ऐसे में यह सब लिखना बेकार है पर यह सोचकर लिखते हैं कि भले ही दो लोगों तक अपनी बात तो पहुंच ही जायेगी।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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