श्रीमद्भागवत का ‘गुण ही गुणों में बरतते हैं’’ और ‘इंद्रियां ही विषयों में बरत रही है’’ का सिद्धांत मनोविज्ञान शास्त्र के लिये एक उत्कृष्ट विषय हो सकता है। यही कारण है कि विद्धान लोग अपनी संगत ऐसे लोगों को नहीं करते जिनके गुण अशुभ हों। समाज में ऐसे कई लोगों हैं जिनका व्यक्तित्व, आचरण तथा व्यवहार संदिग्ध होता है। उनसे संपर्क रखने पर न केवल अपनी छवि खराब होती है बल्कि मैत्री भाव अधिक रखने से उनके दोष अपने अंदर आने की संभावना भी रहती है। शराब, जुआ तथा नारियों से असभ्य व्यवहार करने वाले कभी अपनी आदत से बाज़ नहीं आते। इसका कारण यह है कि समाज ऐसे लोगों को स्पष्टतः अपने से अलग नहीं करता। उनका मित्र वर्ग भी उनके दोषों को अनदेखा कर अपने संपर्क निरंतर जारी रखता है। ऐसा सोचा जाता है कि उनके दोषों से हमें क्या लेना देना?
यह गलत सोच है। दरअसल गुण संक्रमक होते हैं। गुण शुभ हों या अशुभ उनका प्रभाव पड़ता ही है। हालांकि शुभ गुणों के प्रभाव विलंब से होता है पर अशुभ गुण तत्काल अपनी चपेट में लेते हैं एक व्यक्ति अगर नम्रता, प्रेम और सद्भावना का गुण है तो वह दूसरों को अपने जैसा कर लेता है। अगर एक व्यक्ति दूषित है तो वह दूसरों में भी दोषों का निर्माण करता है। इसमें एक बात ध्यान देने की है कि ज्ञानी भले ही शराबी को व्यवसन से दूर न कर सके पर अगर वह ज्यादा संपर्क रखेगा तो स्वयं ही शराबी बन सकता है। मनुष्य ज्ञान के चक्र में देरी से आता है पर व्यसन जल्दी उसे घेर लेते हैं।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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तिलाश्चम्पाकसंश्लेषात्प्रमुवन्त्यधिवासताम्।
रसो न भक्ष्यस्तद्रन्यः सर्व्वे सांक्रामिका गुणाः।।
हिन्दी में भावार्थ-चम्पा के साथ रखने से तिलों में वैसी ही सुगंध आ जाती। चम्पा का रस नहीं खाया जाता पर तिलों में जिस तरह उसकी सुंगध आती है उससे यह तो साबित होता है कि गुण संक्रमक होते हैं।----------------------------------------------
तिलाश्चम्पाकसंश्लेषात्प्रमुवन्त्यधिवासताम्।
रसो न भक्ष्यस्तद्रन्यः सर्व्वे सांक्रामिका गुणाः।।
अपां प्रवाहो गङ्गो या समुद्र प्राप्य तद्रसः।
भवत्यपेयस्तद्विद्वान्नाश्रयेदशुभात्कम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जब गंगाजल का प्रवाह समुद्र में जाता है तब वह पीने योग्य नहीं रहता है। इसलिये अशुभ गुण वाले का विद्वान लोग कभी आश्रय नहीं लेते क्योंकि उनको पता है कि उनकी स्थिति भी सागर में मिले गंगाजल की तरह होगी।भवत्यपेयस्तद्विद्वान्नाश्रयेदशुभात्कम्।।
जिन मनुष्यों को कहीं ज्ञान और ध्यान के लिये स्थान या समय नहीं मिलता वह केवल यह तय कर लें कि शुभ गुणों से युक्त स्वच्छ छवि, पवित्र आचरण तथा सद्व्यवहार करने वाले लोगों से संबंध रखेंगे और व्यवसनी, अहंकारी, अधिक बोलने तथा निंदक प्रवृत्ति वाले लोगों से दूर रहेंगे तो उनका जीवन संवर सकता है। गंगा हमारे लिये अत्यंत पवित्र नदी है पर उसका जल जब सागर में मिलता है तो वह दूषित हो जाता है। यह उदाहरण एक आदर्श उदाहरण है जिसे धारण करना चाहिये।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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