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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

5/15/13

मनुस्मृति से संदेश-व्यवसनी से व्यवहार विश्वसनीय नहीं (mani smriti sa sandesh-vyasani se vyavhar vishvasniya nahin)




    हमारे देश में भ्रष्टाचार, बलात्कार तथा अन्य प्रकार के अपराधों की संख्या  में भारी वृद्धि हो रही है।  यह केवल कानून व्यवस्था का प्रश्न नहीं बल्कि समाज में नैतिकता, आचरण तथा आदर्श व्यवहार के प्रति जो उदासीनता है उसे भी इसके लिये जिम्मेदार माना जा सकता है।  खासतौर से नशे की प्रवृत्ति को सामाजिक मान्यता ने लोगों में नैतिकता तथा अनैतिकता के अंतर को समझने की क्षमता को कम कर दिया है।  इससे वैचारिक रुगणता पैदा हुई जिससे विश्वास का संकट बढ़ता ही जा रहा है।
      खासतौर से शराब को तो अब ऐसा पेय मान लिया गया है जिसको न पीना अपने आपको पिछड़ा प्रमाणित करना है। चाहे जहां भी विवाह समारोह में चले जाईये वहां इसका उपयोग धड़ल्ले से होता देखा जा सकता है।  हैरानी की बात यह है कि शराब को समाज में परंपरा की तरह स्थापित करने वाले लोग ही कथित संस्कारों की रक्षा की बात करते है।  विवाह में दूल्हे और दुल्हन के सात फेरों के लिये अग्नि के फेरों के साथ ही पंडित के मंत्रोच्चार पर संस्कृति का निर्वाह होने पर गर्व करते हुए  लोग शराब पीकर नाचते हैं।  सीधी बात कहें तो समाज का सभ्रांत वर्ग जिस सीमा तक मर्यादा तोड़े वही नैतिकता की सीमा हैं। जहां वह रुक जाये वहां से अनैतिकता तथा अशिंष्टता की सीमा शुरु होती है।  यह कोई नहीं समझना चाहता कि देश में बढ़ती वैचारिक, व्यवहारिक तथा व्यवस्था में अशुद्धता के लिये पूरे  समाज का नियमित आचरण ही जिम्मेदार है।
मनृस्मृति में कहा गया है कि
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मत्तोन्मर्त्ताध्यधीनैर्वालेन स्वविरेण वा।
असम्बद्ध कृतश्चैव व्यवहारो न सिद्ध्यति।।
         हिन्दी में भावार्थ-ऐसे व्यक्ति के साथ किया लेनदेन या व्यवहार प्रमाणिक नहीं होता जो मदिरा के सेवन में निंरतर रत हो क्योंकि उसके चरित्र में स्थायित्व नहीं होता।  इसके अलावा जिसका आचरण संदिग्ध हो उससे भी व्यवहार करने पर कोई अर्थ सिद्ध नहीं होता।
             सच बात तो यह है कि मदिरा तथा अन्य व्यसनों में लित्प आचरण, व्यवहार तथा वैचारिक रूप से संदिग्ध होते हैं। अब यह मान लिया जाये तो जब हम पूरे समाज पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि अगर इस ज्ञान को धारण कर जीवन की राह चलें  तो एकाकी जीवन जीने को बाध्य हो जायेंगे।  आसपास ऐसे लोग कम ही मिलेंगे जो व्यसनों से परे हों।  अपने साथ प्रतिदिन व्यवहार में आने वाले लोग के चयन की सुविधा  हमारे पास  बहुत कम ही होती है।  अगर उनके सामने अपने विचार बतायें तो उनके हृदय में हमारे प्रति शत्रुता का भाव पैदा हो सकता है।  ऐसे में एक ही उपाय है कि अपने कार्य की सिद्धि के लिये लोगों से संपर्क तो रखा जाये पर उनके आचरण पर भी दृष्टि होनी चाहिये।  विश्वास की कोई सीमा नहीं होती  मगर किसी पर  किया जाये और वह अपने काम में विफल रहे तो अपने अंदर निराशा को स्थान नहीं देना चाहिये।  खासतौर से व्यक्ति अगर नियमित रूप से नशे आदि का सेवन करने वाला हो तो उस पर गुस्सा भी नहीं होना चािहये।  इस त्रिगुणमयी माया के जाल में फंसे मनुष्य समुदाय विरले ही होते हैं जो विश्वास पर खरे उतर पाते हैं।     

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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