बुद्धि की देवी सरस्वती का वाहन हंस और धन की
देवी लक्ष्मी का वाहन उल्लू माना जाता है।
हमारे अध्यात्मिक दर्शन में इन धार्मिक प्रतीकों का रहस्यमय माना जाता है। इस पर अनेक विद्वान अपने
अपने ढंग से तर्क देते हैं। कुछ कथाकार इन
पर चर्चा चुटकुले की तरह करते हैं तो कुछ इसकी व्याख्या इस तरह करते हैं जो
तार्किक तो लगे पर इसका रहस्य नहीं खोलती।
हमारा मानना है कि कहीं न कहंी इस तरह के प्रतीकों का सांकेतिक महत्व भी है
जिन्हें समझा जाना चाहिये।
हम पहले हंस के गुणों पर विचार करें। हंस मोती खाता है। उसका खाना सात्विक है।
अगर वह सात्विक भोजन करता है तो उसकी बुद्धि भी सात्विक होनी ही चाहिये।
श्रीमद्भागवत गीता में भोजन के आधार पर ही सात्विक, राजसी और तामसी प्रवृत्तियों की पहचान दी गयी है। सात्विक व्यक्ति की बुद्धि स्वतः शुद्ध रहती
है। हंस का पक्षियों में श्रेष्ठ माना जाता है। इसलिये नहीं कि वह मोती खाता है
बल्कि इससे उसकी बुद्धि श्रेष्ठ रहती है। श्रेष्ठ बुद्धि हंस की पहचान है। यही कारण है कि अनेक ज्ञानी मानस हंस की उपाधि
से विभूषित किये जाते हैं।
लक्ष्मी जी का वाहन उल्लू है। उल्लू रात में देखता है और सूरज की रौशनी में
वह अंधा हो जाता है। सच बात तो यह है कि धन उनके पास ही बहुतायत मात्रा में आता है
जो उसके लिये ही लालायित रहते हैं। संतोषी सदा सुखी रहता है पर हम भौतिकतवाद के
सिद्धांत को देखें तो उसके पास धन अधिक नहीं हो सकता। हमारे यहां एक अभिनेता एक विज्ञापन में प्रचार
करते हुए यह बताता है कि संतुष्ट नहीं रहना चाहिये, वरन् असंतुष्ट व्यक्ति ही विकास करता है। धन के लोभी कभी संतुष्ट नहीं होते। उल्लूओं की
तरह हमेशा ही उनको ज्ञान के अंधेरे में रहकर ही विकास का मार्ग मिलता है। धन के लिये आदमी जब सब कुछ दाव पर लगाता है तभी
उसे उस तरह का वैभव मिलता है जिसे लक्ष्मी की कृपा कहा जाता है। कहा भी जाता है कि लक्ष्मी संतों की दासी और
लोभियों की स्वामिनी होती है। लक्ष्मी जी
उल्लू की सवारी करती हैं इसलिये उल्लू प्रकृत्ति के लोग ही उनका सानिध्य पाते
हैं। यह अलग बात है कि सामान्य लोग
धनपतियों को ही विद्वान और बुद्धिमान मानते हैं।
वैसे विश्व में व्याप्त वातावरण के
असंतुलन ने हंसों तथा उल्लुओं की संख्या
को सीमित कर दिया है। लोभियों ने दोनों को
ही नहीं छोड़ा है। पेड़ पौधों को काटकर
लोभियों ने पत्थर के जंगल खड़े कर दिये हैं और आदमी चूहों की तरह उनके पिंजरे में
फंसता जा रहा है। प्रसंगवश चूहा गणेशजी की सवारी है। गण्ेाश जी जहां समाज में सर्वश्रेष्ठ देवता की
तरह पूजित हैं वहीं उनका वाहन चूहा थलचरों में सबसे निकृष्ट माना जाता है। गणेश जी विवेक के प्रतीक हैं और विवेकवाान
मनुष्य सहजता से कहीं किसी लोभी के जाल में सहजता से नहीं फंसता जबकि चूहा रोटी के
टुकड़े की लालच में पिंजरे में जाकर कैदा होते देखा जा सकता है। धन की लालच में फंसे लोगों को चूहा भी कहा जाता
है।
इस तरह के विरोधाभास समाज में इसलिये देखे
जाते हैंे क्योंकि लोगों ने बौद्धिक आलस्य की नीति अपना ली है। उनकी सोच केवल अपने
मतलब तक ही सीमित है। अपने लक्ष्य के लिये
उन्हें जो मार्ग दिखाई देता है उसी पर ही वह चल पड़ते हैं। देशकाल, समय, वातावरण
तथा स्थितियों का आंकलन केवल ज्ञान साधक ही करते हैं। अति सर्वत्र वर्जियते का सिद्धांत सभी जानते
हैं पर अपने कृत्य की सीमा तय नहीं करते।
सबसे बड़ी बात तो भगवान के विभिन्न स्वरूपों को पूजते हैं पर उनके गुणों पर
विचार नहीं करते। जो लोग चाहते है कि उनका जीवन सुखमय हो वह जिन देवों को पूजते
हैं उनके गुणों पर भी मन ही मन आत्मचिंत्तन करें।
कहा जाता है कि जिस इष्ट का हम गुणों सहित स्मरण करते हैं वह हमारे अंदर भी
आ ही जाते है। अपने अंदर गुण स्थापित करने
का यही तरीका श्रेष्ठ है। जहां तक निराकार ज्ञान साधकों का प्रश्न है वह ध्यान आदि
के माध्यम से अपने अंदर अनेक गुणों का सृजन स्वयं ही कर लेते हैं।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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1 comment:
Ek Achhi Kahani Ka Prastutikaran Aapke Dwara. Thank You For Sharing.
प्यार की स्टोरी हिंदी में
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