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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

5/6/07

अपने अन्दर है आध्यात्म शक्ति का केंद्र

अक्सर लोग यह कहते हैं कि हमें धर्म की जरूरत क्यों है? हम अपना काम अच्छी तरह करें तो क्या जरूरत है कि भगवान के किसी स्वरूप की आराधना करें -हम किसी को दुःख न दें, अवसर पडे तो किसी की मदद करें, और न कर सकें तो किसी की हानि न करे और कुछ न करें तो केवल अपना कर्म मेहनत, लगन तथा निष्ठा से करते रहें। अपने आप में यह विचार बहुत अच्छा है ,पर ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि हमारे इस देह में एक मन है जो बहुत चंचल है और वह हमारे विचारो के साथ देह को भी घुमाने की भी क्षमता रखता है और उस पर बिना आध्यत्मिक शक्ति के नियंत्रण नहीं किया जा सकता है-जिसका केंद्र हमारे अन्दर ही स्थित है । मन से ज्यादा शक्तिशाली है हमारी आत्मा जिसे जानना जरूर है हम उस जानने कि विधा को आध्यात्मिकता कहते हैं। हम अपने मन और देह को सदैव सांसरिक कार्यों में लगाए रहते हैं, इसमें कोई दोष नहीं है पर जो एकरसता की वजह से उब होती है उसे हम समझ नहीं पाते। हम जो मनोरंजन के लिए साधन लाते हैं- जैसे टीवी देखना, क्रिकेट मैच देखना, कोई मनोरंजन किताब पढ़ते है और कभी कहीं पर्यटन करने चले जाते हैं-इससे कुछ देर तक हमारे मन को राहत मिलती है पर फिर जैसे ही नियमित कार्यों में लग जाते हैं पर हमें जल्द ही यह लगने लगता है कि हमारे मन में अभी खालीपन है । फिर तनाव धीरे धीरे हम पर छाने लगता है। इस तनाव को कभी "मूड खराब होने" या "थकावट है" कहकर व्यक्त करते है और यह समझ नहीं पाते कि हम कह क्या रहे हैं और सोच क्या रहे हैं -यह तनाव हमारी आत्म का होता है जो हम समझ नहीं पाते । यह आत्मा इस देह और मन में अपने अस्तित्व के अहसास के लिए तरसती है। वह चाहता हैं कि कुछ देर वह उस निरंकार, निर्गुण और शाश्वत सत्य स्वरूप परमपिता परमात्मा का इस देह में स्मरण इस देह और मन से करे जो उसने धारण कर रखी है। इसीलिये सांसरिक कार्य लगन, मेहनत, और निष्ठा से करते हुए भी अपने अध्यात्म से जुडना चाहिए। अक्सर लोग यह सोचते हैं कि अध्यात्म का अर्थ है धार्मिक कर्मकांड , और दिखने और दिखाने के लिए धार्मिक जगहों पर जाना और अपनी रीती से आराधना करना । यह धर्म नहीं भ्रम है। इसका आध्यात्म से कोई संबंध नहीं है। यह एक तरह की सांसारिकता है। जब हम इस रास्ते पर चलते हैं तो फिर हमें देहधारी तथाकथित भगवानों की शरण में जाना पड़ता है और वह अपने लिए हमारे देह, धन और मन को शौषण करने लगते हैं , चूंकि हम मानकर चलते हैं यही धर्म है तो बुध्दी अपना काम करना बंद कर देती है। जब हमें सत्य का पता लगता है तो भारी दु:ख पहुँचता है ।अध्यात्मिक ज्ञान कोई बहुत विस्तृत नहीं है। प्रात: योगासन , प्राणायाम और ध्यान करने के बाद गायत्री मन्त्र,महा म्रत्युन्जय मंत्र और शांति पाठ करना चाहिऐ और उस समय अपना ध्यान इस संसार से हटाकर ॐ की तरफ लगाना चाहिए और धीरे धीरे उसे निरंकार और निर्गुण परमात्मा में लगाना चाहिऐ । हो सके तो श्रीमद्भागवत गीता का पाठ श्रध्दा के साथ ज्ञान प्राप्त करने के लिए करना चाहिए। इसके बाद भी दिन में कभी अवसर मिले तो बैठकर आँखें बंदकर ध्यान लगाना चाहिए। ध्यान में अपने मन की दृष्टि नाक के ऊपर भृकुटी पर रखना चाहिए। आप कहेंगे जिस ज्ञान को इतने बडे ज्ञान को बरसों से बडे बडे ज्ञानी लंबे चौड़े प्रवचनों में भी नहीं समझा पाए वह इतना छोटा कैसे हो सकता है तो यह बात साफ बता दूं कि वह लोग प्रवचनों को सत्संग की दृष्टि से करते है जिसमें तमाम की तरह कथाएं भी आती हैं और मैं कोई संत नहीं हू एक सामान्य इन्सान हूँ। अपनों से इस तरह की चर्चा करते रहने से आनन्द आता है और किसी अन्य के यहां अपने मन की बात कहने के लिए जाने की जरूरत नहीं पड़ती। शेष अगले अंकों में।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

दीपक जी, अच्छे विचार हैं । आशा है पढने को मिलते रहेगें।

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