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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/28/09

शायद इसे ही कहते हैं कि ‘दूर के ढोल सुहावने’-आलेख

पता नहीं क्यों भारत के लेखकों और बुद्धिजीवियों एक तरफ से तो देशप्रेम से ओतप्रोत रहते हैं दूसरी तरफ अपने लेखों और वक्तव्यों में दूसरे देशों से सीख लेने का संदेश देते हैं। इनमें दो देशों के नाम बहुत आते हैं एक चीन का दूसरा इजरायल का। ऐसी बातें कहते और लिखते हुए लेखक और बुद्धिजीवी अपने देश के उपलब्धियों को भूल जाते हैं चाहे वह आर्थिक और सामाजिक हों या वैज्ञानिक-तकनीकी या स्वास्थ्य। हो सकता है इन दोनों देशों ने कड़े संघर्ष के बाद उपलब्धियों प्राप्त की हों पर उनसे भी अधिक हमारे देश के लोगों की सफलता हो। वैसे तो इस विषय पर अधिकतर वही राजनीतिक विषयों पर लिखने वाले लेखक लिखते हैं पर वह इसके सामाजिक प्रभावों का आंकलन नहीं करते जो हमारे देश के लोगों पर पड़ता है।

यहूदी धर्म को मानने वाले इजरायल की चर्चा आजकल इस देश में अधिक ही होने लगी है। खास तौर से फलस्तीन के आतंकवादियों के खिलाफ हमलों के कारण उसे बहुत प्रचार मिला। हिटलर की प्रताड़ना के कारण जर्मनी से यहूदियों ने पलायन किया और फलस्तीन की खाली जमीन पर कब्जा कर अपना देश बसा लिया। यहूंदियों ने अपनी कर्मठता और परिश्रम से अपना देश तो बसा लिया पर फलस्तीन ने कभी उसे चैन से नहीं बैठने दिया। उनके साथ संघर्ष करते हुए इजरायल ने अपने आपको बचा रखा है उसके लिये उसकी प्रशंसा होती हैं। विज्ञान,तकनीकी,कृषि,शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में उसने खूब प्रगति की पर इसी कारण उसे अपना आदर्श मानकर देश के लोगोे को उसी राह पर चलने का संदेश देना थोड़ा अजीब लगता है। यहूदियों ने अपने उद्यम और परिश्रम से न केवल विश्व में बल्कि इजरायल में भी खूब तरक्की की है पर उनको अमेरिका और पश्चिमी देशों का नैतिक समर्थन भी खूब मिला। अनेक अनुसंधानों की वजह से यहूदियों को नोबल पुरस्कार मिले पर यहां बात याद रखने लायक है कि इसके पीछे अमेरिक और पश्चिमी देशों का पूरा समर्थन उसके साथ रहा है। सच बात तो यह है कि एक तरह से यहूदियों का उनकी प्रतिभा का पश्चिमी देशों खासतौर से अमेरिका ने खूब दोहन किया है ऐसे में अगर उनको पुरस्कार मिल गये तो इसमें आश्चर्य क्या है? खास तौर से जब वह अपनी स्थापना के समय से ही अमेरिका पर आश्रित रहा है। जिस तरह अमरिका की धमकी के बाद वह फलस्तीनियों के विरुद्ध वह कार्यवाही या युद्ध बंद करता है उससे तो कभी तो वह अमेरिका का उपनिवेश अधिक लगता है। कभी कभी तो यह संदेह होता है कि कहीं यहूदियों की प्रतिभा का उपयोग करने के लिये ही तो कहीं अमेरिका ने उनको वहां स्थापित करने की योजना तो नहीं बनायी थी। यहां यह बात याद रखने लायक है कि किसी समय हिटलर अमेरिका का मित्र था और आजकल जैसी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति चल रही है वह पहले भी थी और कोई बड़ी बात नहीं ऐसी ही कोई दूरगामी योजना के तहत यहूदियों को वहां लाया गया हो-यह बात कहीं इतिहास मेंं नहंी लिखी पर जिस तरह इजरायल हमेशा समर्थन के लिये अमेरिका पर निर्भर रहा है उससे यही लगता है।

याद रखने वाली बात यह भी है कि इजरायल हथियारों को बेचने वाला देश है और इसलिये कुछ लोग उस पर कुछ आतंकवादी गुटों को सहायता देने के आरोप भी लगाते हैं। हथियार कोई शांतिकाल में नहीं बिकते इसके लिये जरूरी है कि विश्व में अशांत क्षेत्र बने रहें। इतना ही नहीं एक मजेदार बात यह भी हुई है कि किसी समय अमेरिका की जासूसी संस्था सी.आई.ए. पर जिस तरह दूसरे देशों में अस्थिरता फैलाने के आरोप लगते थे वैसे ही अब इजरायल की जासूसी संस्था पर भी लगने लगे हैं। हम इजरायल द्वारा आतंकवाद के मुकाबले के लिये अनेक प्रकार के हथियार और तकनीकी के अविष्कार की बातें सुनते हें और तय बात है कि उसे बेचा वही जायेगा जहां आंककवाद होगा। आतंकवाद भी वहीं होगा जहां हथियार और तकनीकी खरीदने के लिये धन होगा। ऐसे में विश्व के हथियार के सौदागरों पर यही आरोप लगते हैं कि वह हथियार बेचने के लिये अपने लिये बाजार बनाते हैं ओर इसलिये इजरायल की रणनीति संदेह से परे नहीं हो सकती।

इजरायल की शक्ति का भी अधिक प्रचार होता लग रहा हैं। बरसों से सुन रहे हैं कि इजरायल ईरान के परमाणु संयंत्रों को नष्ट कर सकता है पर कभी नहीं किया। बीच में तो यह भी सुनने में आया कि वह पाकिस्तान के परमाणु संयंत्रों पर हमला करेगा पर यह दूर की कौड़ी ही रही।

फिर इजरायल एक छोटा देश है और भारत बहुत बृहद देश है। अगर मान लीजिये किसी परिवार में दो बच्चे हैं और मकान में भी दो कमरे में है तो वह आसानी संभल जाता है। गृहस्वामिनी आसानी से घर की साफ सफाई कर लेती है। जबकि किसी परिवार में पांच बच्चे हों और रहने के लिये आठ कमरे तो उसकी साफ सफाई के लिये बाहर से मदद लेनी पड़ती है। कहने का तात्पर्य है कि सीमित दायरे में विकास और आपसी संपर्क बहुत मजबूत होते हैं। यहां हम सड़क पर निकलते हैं तो कितने अनजान लोग निकल जाते हैं पर हम उनकी तरफ नहीं देखते पर कहीं अगर विदेश में हों तो कोई भारतीय सड़क पर मिल जाये तो उससे बात करने के लिये जरूर मन मचलेगा। भारत एक बृहद देश है और उसके जो फायदे और नुक्सान हैं उसकी वजह से इजरायल के संदर्भ देकर अपने देश के लोगों को समझाना ठीक नहीं लगता।

जहां तक तरक्की की बात है तो याद रखें कि भारत ने अभी हाल ही में चंद्रयान भेजा था और वह आज भी इजरायल के उपग्रह भेजता है। भारत ने यह उपलब्धि चीन और इजरायल से पहले हासिल की हैं। दरअसल छोटे क्षेत्र में विकास दृष्टिगोचर होता है जबकि बृहद क्षेत्र में अधिक होने पर भी वही कम लगता है। शायद लोगों ने इस बात पर कम ही गौर किया होगा कि चंद्रयान भेजने के बाद भारत में अप्रिय वारदातें एकदम बढ़ गयीं थीं। चंद्रयान की उपलब्धि से कोई खुश नहीं है। यहां तक कि आजकल भारतीय बुद्धिजीवियों और लेखकों के लाड़ले ओबामा तक ने इस पर चुनाव प्रचार के दौरान अपनी चिंता जताई थी। आशय यह है कि भारत की प्रगति को चीन या इजरायल के संदर्भ में देखने की बजाय अमेरिका से तुलना करना चाहिये। चंद्रयान के प्रक्षेपण को कुछ लोग कम आंकते हैं तो कुछ मजाक उड़ाते हैं। दरअसल एक बात याद रखने वाली यह भी है कि इस देश का विकास इसलिये कम लगता है क्योंकि यह आबादी बड़े पैमाने पर बढ़ती जा रही है। कुछ लोग तो इस देश के हर वैज्ञानिक उपलब्धि पर यही कहते हैं कि पहले अपने देश की गरीबी मिटा लो फिर बाकी काम करो। उन्हें यह समझाना जरूरी है कि इस हिसाब से भारत को अगले एक हजार वर्ष तक कुछ नहीं करना चाहिये और तब भी पूरा विश्व हम पर हंसेगा।

इजरायलियों और यहूदियों के अपनी नस्ल से प्रेम की भी बात करें। ऐसा लगता है कि वह कुछ अधिक ही रूढ़ हैं। कुछ समय पूर्व इजरायल ने गाजा पट्टी का एक हिस्सा फलस्तीन को सौपा था तब वहां उसने सेना भेजकर पचास हजार यहूदी वहां से हटा कर अपने यहां बसाये। फलस्तीनियों ने इसका विरोध किया और कहा कि वह उन यहूदियों की सुरक्षा का पूरा जिम्मा लेते हैं। यहां तक कि वह यहूदी भी अपनी पैतृक संपतियों और वैभव छोड़कर नहीं जाना चाहते थे पर उनको जबरन खींच लिया गया अनेक लोगों ने रोते हुए अपने घर छोड़े ठीक है अपनी जाति और नस्ल से प्रेम करना चाहिये और मानवीय दृष्टि से स्वाभाविक भी है पर यह प्रकृति के विरुद्ध भी है। समय के अनुसार इस दुनियां में परिवर्तन आते हैं और नस्ल और जातियों के स्वरूप में बदलाव आते हैं। उनको रेाकने या बनाने का मानवीय प्रयास हमेशा ऐसे संघर्षों को जन्म देता है जो लंबे समय तक चलते है। इजरायल के लोगों को अपने छोटे देश में कामयाबी से कार्य करने पर शाबाशी दी जानी चाहिये पर अपने देश के प्रति कोई कुंठा पालना ठीक नहीं है।
फिर देश को सिखायें क्या? सच बात तो यह है कि चीन और इजरायल की जिस भौतिक समृद्धि को लेकर हम अपने देश को जो सिखा रहे हैं वह असहजता पैदा करने वाली है। अपनी जाति,नस्ल और विचार पर अहंकार हमेशा असहजता को उत्पन्न करने का कारण होता है। हां, कुछ लोगों को यहां बता देना जरूरी है कि जिनको अपने देश के अध्यात्म गुरु होने की परवाह नहीं हैं वह स्वयं असहजता की और अग्रसर हैं। भगवान श्रीकृष्ण से मनुष्य को सहजयोग का पाठ पढ़ाया हैं उसके आगे पूरा विश्व नतमस्तक हैं। उन्होंने मनुष्य को ज्ञान के साथ विज्ञान में भी पारंगत होने का संदेश दिया है। यही कारण है कि अनेक भारतीय वैज्ञानिक जिन्होंने विज्ञान में विशेषज्ञता का प्राप्त की वह भी गीता के संदेशों के आगे नतमस्तक होते हैं। चंद्रयान प्रक्षेपण शायद भारत के बुद्धिजीवियों को एक मामूली घटना लगती है पर विदेश में इससे जो भारत की मान्यता हुई है उससे वही जानते हैं। शायद विदेशी भी अपने यहां यही संदेश देते हों कि ‘‘भारत से सीखो जिसने अध्यात्मिक ज्ञान के साथ विज्ञान में भी तरक्की की है। भारतीय डाक्टरों ने अमेरिका तक में अपना परचम फैलाया है। भारतीय वैज्ञानिकों ने भी कोई कम सफलतायें प्राप्त नहीं की और नोबल न मिलने से वह कम नहीं हो जाती। यहां भारत में दूसरों से सीखने की शिक्षा दी जा रही है। हो सकता है कि इसे ही कहते हों कि ‘दूर के ढोल सुहावने।’
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