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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

3/18/09

आस्तिक, नास्तिक और स्वास्तिक-व्यंग्य आलेख

सच बात तो यह है कि दुनियां विश्वास के आधार पर तीन भागों में बंटी हुई हैं-आस्तिक,नास्तिक और स्वास्तिक। आस्तिक और नास्तिकों में बीच बरसों से संघर्ष चलता रहा है। एक कहता है कि इस दुनियां का संचालन करने वाला कोई सर्वशक्तिमान है-उसका नाम हर धर्म,भाषा,जाति और क्षेत्र में अलग है। दूसरा कहता है कि ऐसा कोई सर्वशक्तिमान नहीं है बल्कि यह दुनियां तो अपने आप चल रही है। इनसे परे होते हैं ‘स्वास्तिक’। हम भारत के अधिकतर लोग इसी श्रेणी में हैं और सर्वशक्तिमान के होने या न होने की बहस में समय जाया करना बेकार समझते हैं। इस मान्यता में वह लोग हैं जो मानते हैं कि वह तो अपने अंदर ही है और हम उस सर्वशक्तिमान को धारण करना हैं-बाहर उसका अस्तित्व ढूंढना समय जाया करना है। इसी श्रेणी में दो वर्ग हैं एक तो वह जो ज्ञानी हैं जो हमेशा इस बात को याद करते हैं और दूसरे सामान्य लोग हैं जो यह बात मानते तो हैं पर फिर भूले रहते हैं। ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक हैं और आस्तिक और नास्तिक अपनी बहसों से उन्हेें बरगलाते रहते है।

अधिक संख्या होने के कारण एक स्वास्तिक दूसरे स्वास्तिक की इज्जत नहीं करता-यहां यह भी कह सकते हैं कि जिस वस्तु की मात्रा बाजार में अधिक होती है उसकी कीमत कम होती है। फिर अब तो विश्व में बाजार का बोलबाला है इसलिये समाज में चमकते हैं तो बस आस्तिक और नास्तिक। स्वास्तिक का किसी से कोई द्वंद्व नहीं होता इसलिये बाजार में नहीं बिकता। बाजार में केवल केवल विवाद बिकता है और आस्तिक और नास्तिक ही उसका निर्माण करते हैं।

आस्तिक चिल्ला चिल्ला कर कहते हैं कि ‘सर्वशक्तिमान है’ तो नास्तिक भी खड़ा होता है कि ‘सर्वशक्तिमान नहीं है’। भीड़ उनकी तरफ देखने लगती है। आस्तिक अपने हाथ में धार्मिक प्रतीक चिन्ह रख लेेते हैं। कपड़ों के रंग अपने धर्म के अनुसार
तय कर पहनते हैं। नास्तिक भी कम नहीं है और वह सर्वशक्तिमान का अस्तित्व नकार कर समाज-जिसका अस्तित्व केवल संज्ञा के रूप में ही है-को अपना कल्याण करने के लिये नारे लगाते हैं।

कहते हैं कि मनुष्य अपने मन, बुद्धि और अहंकार के वशीभूत होकर चलता है। चलने की यही मजबूरी नास्तिकों को किसी न किसी नास्तिक विचाराधारा से जुड़ने को विवश करती है।
आस्तिक धार्मिक कर्मकंाड करते हुए पूरे विश्व में कल्याण करने के लिये निकल पड़ते है। कोई पुस्तक और उसमें लिखे शब्दों को सीधे सर्वशक्तिमान के मुखारबिंद से निकला हुआ बताते हुए उसके अनुसार धार्मिक क्रियाओं के लिये सामान्य जन-स्वास्तिक श्रेणी के लोग- को प्रेरित करते हैं। जो ज्ञानी स्वास्तिक हैं वह तो बचे रहते हैं पर भुल्लकड़ उनके जाल में फंस जाते हैं। नास्तिक लोग उन्हीं पुस्तकों का मखौल उड़ाते हुए महिलाओं,बालकों,श्रमिकों,शोषितों और बूढ़े लोगों के वर्ग करते हुए उनके कल्याण के नारे लगाते हैं। कहीं कोई घटना हो उसका ठीकरा किसी विचाराधारा की पुस्तक पर फोड़ते है-खासतौर से जिनका उद्गम स्थल भारत ही है। वह क्ल्याण के लिये चिल्लाते हैं पर जब इसके लिये कोई काम करने की बात आती है तो कहते हैं कि यह हमारा काम नहीं बल्कि समाज और सरकार को करना चाहिए।
आस्तिक अपने धार्मिक कर्मकांड करते हुए नास्तिकों को कोसना नहीं भूलते। बरसों से चल रहा यह द्वंद्व कभी खत्म नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि स्वास्तिक लोग अगर सामान्य हैं तो उनको इस बहस में पड़ने में डर लगता है कि कहींे दोनों ही उससे नाराज न हो जायें। जहां तक ज्ञानियों का सवाल है तो उनकी यह दोनों ही क्या सुनेंगे अपने ही वर्ग के सामान्य लोग ही सुनते। हां, आस्तिकों और नास्तिकों के द्वंद्व से मनोरंजन मिलने के कारण वह उनकी तरफ देखते हैं और यहीं से शुरु होता हो बाजार का खेल।

नास्तिकों का पंसदीदा नारा है-नारी कल्याण। दरअसल हमारे देश में लोकतंत्र हैं और प्रचार माध्यमों-टीवी चैनल और अखबार-में स्थान पाने के लिये यह जरूरी है कि नारी कल्याण की बात जोर से की जाये। जब से प्रचार माध्मों का आधुनिकीकरण हुआ यह नारा और बढ़ गया है। वजह अधिकतर पुरुष काम के सिलसिले में घर से बाहर रहते हैं और स्त्रियों घर में अखबार पढ़ती हैं या टीवी देखती हैं। कभी कभी बाल कल्याण की बात भी जोड़ दी जाती है कि इससे नारियों पर दोहरा प्रभाव तो पड़ेगा ही बच्चे भी प्रभावित होकर भाषण, वार्ता और प्रवचन करने वाले का गुणगान करेंगे।

आस्तिकों और नास्तिकों की सोच का कोई ओरछोर नहीं होता। आस्तिक कहते हैं कि सर्वशक्तिमान इस दुनियां में हैं और एक ही है। मगर हैं कहां? यह वह नहीं बताते? सर्वशक्तिमान आकाश में रहता है या पाताल में? कह देंगे सभी जगह है। कोई मूर्तिै बना लेगा तो कोई मूर्ति विरोधी आस्तिक भी होगा। मगर वह भी कोई ठीया ऐसा जरूर बनायेगा जो भले ही पत्थर का बना होग पर उसमें मूर्ति नहीं होगी। मजे की बात यह है कि दोनों ही एक दूसरे पर नास्तिक होने का आरोप लगाते हैं।

नास्तिक कहते हैं कि इस संसार में कोई सर्वशक्तिमान नहीं है। फिर आखिर यह दुनियां चल कैसे रही है? वह बतायेंगे इंसानों की वजह से! मतलब पशु,पक्षी तथा अन्य जीव जंतुओं की सक्रियता का कोई मतलब नहीं है इसलिये उनकी रक्षा की बात भी वह नहीं करते। बस इंसानों का भला होना चाहिये। उनके अनुसार नारी को आजादी, बालकों के बालपन की रक्षा, बूढ़ापे में संतान का सहारा, और शोषित के अधिकार और सम्मान की रक्षा होना चाहिये और वह डंडे के जोर से। सभी जानते हैं कि अभी तक विश्व में कर्मशील पुरुषों का वर्चस्व इसलिये है क्योंकि वह इन इन सभी कर्तव्यों की पूर्ति के लिये श्रम करते हैं और उनके लिये यह नारे सुनने का समय नहीं होता। वह टीवी और अखबारों के साथ उतना समय नहीं बिता पाते इसलिये उनको प्रभावित करने का लाभ नहीं होता। नास्तिक लोग इसलिये केवल उन्हीं वर्गों को लक्ष्य कर अपनी बात रखते हैं जिनको प्रभावित कर अपनी वैचारिक दुकान चलायी जा सकती है।।

आजकल नारी स्वातंत्रय को लेकर अपने देश में बहुत जोरदार बहस चल रही है। इस बहस में आस्तिक अपने संस्कारों और आस्थाओं का झंडा बुलंद कर यह बताते हैं कि हमारे देश में नारियां तो देवी की तरह पूजी जाती हैं। नास्तिक को तो हर कर्मशील पुरुष राक्षस नजर आता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि नास्तिक भले ही सर्वशक्तिमान का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते पर अपने प्रचार के लिये उनको कोई काल्पनिक बुत तो चाहिये इसलिये उन्होंने अन्याय,अत्याचार,शोषण,गरीबी, और बेरोजगारी को खड़ा कर लिया। यह कहना गलत है कि वह किसी में यकीन नहीं करते बस अंतर यह है कि वह उन बुत बने राक्षसों को दिखाकर उनसे मुक्ति के लिये स्वयं सर्वशक्तिमान बनना चाहते हैं।

नास्तिक सर्वशक्तिमान का अस्तित्व को तो खारिज करते हैं पर अपनी देह को तो वह नकार नहीं सकते। पंच तत्वों से बनी इस देह में अहंकार,बुद्धि और मन तीन ऐसी प्रकृतियां हैं जिनसे हर जीव संचालित होता है। फिर यहां अमीर गरीब, शोषक शोषित, और उच्च निम्न वर्ग कैसे बन गये? नास्तिक कहेंगे कि वही मिटाने के लिये तो हम जूझ रहे हैं। मगर अमीर ने गरीब को गरीब, शोषक ने शोषित का शोषण और उच्च वर्ग के व्यक्ति ने निम्म वर्ग के लोगों का अपमान कब और कैसे शुरु किया? इस पर नास्तिक तमाम तरह की इतिहास की पुस्तकें उठा लायेंगे-जिनके बारे में स्वास्तिक ज्ञानी कहते हैं कि उनके सिवाय झूठ के कुछ और नहीं होता। अलबत्ता आस्तिक प्रचार पाने के लिये उन्हीं पुस्तकों में अपने लिये तर्क ढूंढने लगते हैं।

वैसे यह आस्तिक और नास्तिक का संघर्ष भारत के बाहर खूब हुआ है। भारत में लोग स्वास्तिक वर्ग के हैं और यह मानते हैं कि सर्वशक्तिमान का अस्तित्व आदमी के अंदर ही है बशर्ते उसे समझा जाये। मगर विदेशी शिक्षा, रहन सहन और विचारों के साथ यह संघर्ष भी इस देश में आ गया है। यह कारण है कि आस्तिक महिला पुरुष बुद्धिजीवी देश का कल्याण कर्मकांडों में तो नास्तिक केवल नास्तिकता में ढूंढते हैं। हम ठहरे स्वास्तिक तो यही कहते हैं कि स्वास्तिक हो जाओ कल्याण स्वतः‘ होगा। कैसै हो जायें? बहुत संक्षिप्त उत्तर है। जब भी अवसर मिले भृकुटि पर दृष्टि रखकर ध्यान लगाओ। इससे देह के विकार तो निकलते ही हैं उसमें ऐसे तत्व भी निर्मित होते हैं जिसके प्रभाव से शत्रु मित्र बन जाते हैं और विकास के पथ पर अपने कदम स्वतः चल पडते हैं उसके लिये किसी कर्मकांड में पड़ने या कल्याण के नारे में बहने की आवश्कता नहीं है।
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