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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/5/09

अपने विश्वास से मत खेलो-आलेख

‘मेरा विश्वास टूट गया’,यह शब्द कहकर लोग अपनी निराशा का गुब्बार निकालते हैं। ऐेसा लगता है कि लोगों का विश्वास न होकर पानी का बुलबुला हो जो तुरंत बनता और बिगड़ता हो या फिर कांच का ग्लास हो जो हाथ से गिरते ही टूट जाता है। आश्चर्य तब होता है जब यह विश्वास अपने कार्य की हानि से नहीं बल्कि दूसरे के दोष देखकर टूटता है। कुछ ऐसा ही आभास अंतर्जाल पर होते देख लगता है कि अपने देश भारत में लोग विश्वास का आधार दूसरों की नाकामी, कामयाबी, प्रसिद्धि और बदनामी पर तय करते हैं।

कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है। इस समय अन्य प्रकाशनों में तो साहित्य की प्रस्तुति पारदर्शी कांच की तरह है जिसमें आप चेहरा नहीं देख सकते। वह दर्पण नहीं है क्योंकि उस साहित्य का सृजन तो बाजार के लिये किया गया है। इधर इंटरनेट पर आम आदमी के मन और विचारों का प्रतिध्वनि देखी जा सकती है और उसे पूरे समाज से जोड़कर विचार करना सही लगता है।
इंटरनेट के अनेक पाठों में लेखक समाज में फैले अंधविश्वासों और कुरीतियों के विरुद्ध मोर्चा संभाले हुए हैं पर वह जल्दी टूट कर बिखर जाते हैं। कहीं अगर किसी ने किसी मूर्ति के आगे किसी दूसरे की बलि दी तो भी उन लेखकों का क्रोध प्रकट होता है और किसी ने स्वयं अपनी बलि दी तो वह निराश होकर यही कहते हैं कि इस देश में मूर्ख लोगों का बोलबाला है। हमारा तो अपनी संस्कृति से विश्वास उठ गया है।
उसी तरह कुछ संतों के पर्दाफाश होने पर भी यह कहते हैं कि हमारा विश्वास धर्म से उठ गया है। कोई योग और ध्यान की शिक्षा देने वाला संत अगर चुनावी राजनीति में हस्तक्षेप करता है तो कहते हैं कि ‘हम तो योग प्रेमी है और उनका राजनीति में इस हस्तक्षेप हमें आहत करता है।’ यह सच है कि राजनीति में आने पर लोगों पर आरोप प्रत्यारोप लगते हैं पर उससे संतों के अनुयायियों को दूर रहना चाहिये।
अनेक महिला लेखिकायें भी कहीं किसी नारी पर अनाचार की खबर पढ़ती हैं तो उद्वेलित होकर पुराने ग्रंथों में वर्णित नारी पर पुरुष के नियंत्रण की प्रेरक पंक्तियों को सामने रखकर पूरे भारतीय दर्शन पर आक्षेप करती नजर आती हैं।
अपने ही हाथों अपने विश्वास का गला घौंटकर वह लोग स्वयं को कितनी तकलीफ देते हैं यही वह समझ सकता है जो अपने विश्वास पर दृढ रहने के साथ ही इस बात को जानता है कि बिना विश्वास मनुष्य बौद्धिक रूप से पंगु हो जाता है।

हमारा विश्वास केवल हमारा होना चाहिये। अपने विश्वास की परीक्षा स्वयं करें किसी अन्य के साथ उसे जोड़कर देखने का मतलब है कि आप अपने को धोखा दे रहे हैं। जिस व्यक्ति की कामयाबी, नाकामी, प्रसिद्ध और बदनामी से आप अपना विश्वास जोड़ रहे हैं जरूरी नहीं है कि वह आपके विश्वास की राह पर चलता हो। यह जरूरी नहीं कि उसका चरित्र दृढ़ हो। सच बात तो यह है कि जिनका चरित्र और विश्वास दृढ़ नहीं है वह लोग अपने को संकट में डालते हैं। ऐसे में उनसे प्रभावित होकर अपने विश्वास को तोड़ना निरी मूर्खता है। फिर यह देश इतना बृहद है। भगवान की विभिन्न स्वरूपों में आराधना करने वालों को देखिये। जो बिना किसी की परवाह किये धर्मस्थानों में जाते हैं। वहां भीड़ लगी रहती है। आप बाहर खड़े होकर उन पर हंसते रहिये! पर इससे उनको क्या लेना देना? आप कहते रहिये कि ‘वह लोग अंधविश्वासी है’ पर ऐसे मे अगर एक पल आप अपने अंदर झांक कर देखिये तो पायेंगे कि वहां तो विश्वासहीनता की स्थिति है जो कि और अधिक भयावह है। तब दूसरों की बजाय आपको अपने पर तरस आयेगा।
सच है कि इस देश में अनेक अज्ञानी और अंधविश्वासी लोग हैं जो अपने मूर्खता से कहीं अपनी जान गंवाते हैं तो कोई दूसरे की लेते हैं। मगर आप उनको भी देखिये जो सहज भाव से भक्ति भाव में लीन रहते हैं-समाज में ऐसे ही लोगों की भरमार है तब केवल डरावने उदाहरणों पर हम अपने विश्वास को दाव पर क्यों लगायें?

हां, यह भारतीय अध्यात्म की बात भी कर लें। कहने वाले कहते हैं कि यह देश दो हजार वर्ष तक गुलाम रहा। क्यों रहा? इसके जवाब में बताते हैं कि इसके पीछे यहां का अध्यात्मिक ज्ञान जिम्मेदार है जो निष्काम भाव से आदमी को जीवन जीने के लिये प्रेरित करता है-इससे आदमी सन्यासी हो जाता है।’
ऐसे लोग समाज को जगाने के लिये देशभक्ति और समाज प्रेम का उपदेश देते हैं। क्या वह इस बात का जवाब देंगे कि दो हजार वर्ष की गुलामी के बाद भी यह निष्काम भाव का संदेश जीवित क्यों है? निष्प्रयोजन दया के संदेश के बिना आप समाज को दयालू बनाने का किस तरह प्रयास कर रहे हैं जबकि आपके कर्मकांड केवल धन संग्रह के लिये प्रेरित करते हैं। धर्म की रक्षा के लिये धन संग्रह की प्रेरणा देकर इस देश का उद्धार करने का विचार बुरा नहीं है पर उसकी सार्थकता तभी है जब धर्म रक्षकों में ईमानदारी का भाव हो और यह सभी जानते हैं कि उसका सर्वथा अभाव है।
आज भी किसी पश्चिमी चिकित्सा विशेषज्ञ के पास जाईये तो वह यही कहता है कि ‘दिमाग पर तनाव मत लो क्योंकि वह सारी बीमारियों की जड़ है।’
मगर आदमी तनाव रहित कैसे रहे इसका उपाय उनके पास नहीं है। जबकि हमारे अध्यात्मिक संदेशों का मुख्य आधार ही यही है कि आदमी अगर फल की चिंता किये बिना ही कर्म करे तभी इस संसार में प्रसन्नता से रह सकता है। ऐसे में दूसरों की कामयाबी और प्रसिद्ध देखकर उन जैसा ही बनने का मोह या दूसरे की नाकामी और बदनामी देखकर अपने विश्वास से हटना तनाव का ही कारण बनता है। यहां फल की चर्चा भी कर लें। अगर आप नौकरी या व्यवसाय कर रहे हैं उसमें आपके परिश्रम से जो धन मिलता है वह फल नहीं होता बल्कि वह तो आपके ही कर्म का हिस्सा है क्योंकि आप उसे लेकर कहीं अन्य व्यय करने वाले होते है-अपने परिवार के लिये भोजन, कपड़े तथा अन्य चीजें खरीदने के साथ ही बच्चों के लिये फीस आदि भरने में आप उसका व्यय करते हैं। इसलिये उसे फल नहीं कहा जा सकता। निष्काम कर्म का आशय यह कदापि नहीं है कि आप अपने व्यवसाय में आय पाने का विचारा छोड़ दें। बस इतना है कि अपनी भौतिक उपलब्धि को फल न माने।

इस संसार में फल का आशय यह है कि अपना जीवन शांति पूर्ण ढंग से व्यतीत करें। इसलिये अपने अंदर एक विश्वास होना का जरूरी है। यह विश्वास हमारी भक्ति और साधना से दृढ़ होता है और उसे किसी दूसरे के लिये दांव पर नहीं लगाना चाहिये।
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