आमतौर से भारतीय समाचार माध्यम अप्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से पश्चिम के पुरस्कारों का गुणगान करते हैं पर इस विषय पर वह व्यंग्य कस रहे हैं। कहीं पढ़ने को मिला कि प्रत्येक वर्ष का नोबल उसी वर्ष की एक फरवरी तक के दर्ज नामों पर उसी दिन तक किये गये काम के लिये दिया जाता है। इसका आशय यह है कि उसके बाद किसी ने नोबल लायक कोई काम किया है तो उसे अगले वर्ष वह पुरस्कार दिया जा सकता है। इस आधार पर वर्ष 2009 का शांति पुरस्कार 1 फरवरी 2009 तक के कार्यों के लिये दिया जा रहा है जबकि अमेरिका के राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा ने 20 फरवरी 2009 का वहां के राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभाला था। मतलब यह कि उन्होंने 11 दिन में ही नोबल पुरस्कार प्राप्त करने का काम कर लिया था।
अगर यह तर्क दिया जाये कि उन्होंने विश्व शांति के लिये उससे पहले काम किया गया तो वह इसलिये भी हास्यस्पद होगा क्योंकि स्वयं नोबल देने वाले मानते हैं कि उनके राष्ट्रपति पद पर किये गये कार्यों के लिये ही यह शांति पुरस्कार दिया गया है। बराक ओबामा यकीनन बहुत प्रतिभाशाली हैं और उनकी नीयत पर संदेह का कोई कारण नहीं है। उनको पुरस्कार देना नोबल समिति की किसी भावी रणनीति का हिस्सा भी हो सकती है। हो सकता है कि वह सोच रहे हैं कि विश्वभर में फैली हिंसा रोकने के लिये शायद यह एक उपाय काम कर सकता है।
हमें बाहरी मसलों से लेनादेना अधिक नहीं रखना चाहिये पर इधर लोग आधुनिक समाज में हिंसा का मंत्र स्थापित करने वाले महात्मा गांधी को नोबल पुरस्कार नहीं देने पर नाराज दिख रहे हैं। दरअसल श्री बराक ओबामा को नोबल देने पर महात्मा गांधी का नाम लेना ही कृतघ्नता है। इस दुनियां में एक बार ही परमाणु बम का प्रयोग किया गया है और उसका अपराध अमेरिका के नाम पर दर्ज है। जब पश्चिम अपनी विज्ञान की शक्ति पर हथियार बनाकर पूर्व को दबा रहा था तब उसकी बढ़त बनाने का श्रेय उन महानुभावों को जाता है जो उसका हिंसक प्रतिरोध कर रहे थे। दरअसल पश्चिमी देश तो चाहते थे कि कोई बंदूक उठाये तो हम उस पर तोप दागें। इतना ही नहीं वह विरोधी को मारकर नायक भी बन रहे थे और सभ्य होने का प्रमाण पत्र भी जुटा लेते थे। उस समय महात्मा गांधी ने अहिंसक आंदोलन चलाकर न उनको बल्कि चुनौती दी बल्कि उनको सभ्यता का मुखौटा पहने रखने के लिये बाध्य किया।
वैसे तो हमारे देश में अहिंसा का सिद्धांत बहुत पुराना है पर आधुनिक संदर्भ में जब पूरे विश्व में कथित रूप से सभ्य लोकतंत्र है-चाहे भले ही कहीं तानाशाही हो पर चुनाव का नाटक वहां भी होता है-तब महात्मा गांधी का अहिंसक आंदोलन करने वाला मंत्र बहुत काम का है। सच तो यह है कि महात्मा गांधी का नाम विश्वव्यापी हो गया है। जहां तक हमें जानकारी नोबल का अर्थ अद्वितीय होता है। इसका मतलब यह है कि जिस क्षेत्र में नोबल पुरस्कार दिया जाता है उसमें कोई दूसरा नहीं होना चाहिये। जबकि यह पुरस्कार हर वर्ष दिया जाता है। इसे देखकर कहें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि नोबल लेने के बाद भी कोई अद्वितीय नहीं हो जाता। अगले वर्ष कोई दूसरा आ जाता है। अद्वितीय कहने में एक पैंच है वह यह कि उस समय वह व्यक्ति अद्वितीय है पर आगे कोई होगा इसकी संभावना नहीं जताई जा सकती। गांधी जी के बारे में अगर हम कहें तो अहिंसा का संदेश देने में वह अद्वितीय नहीं थे क्योंकि उसके पहले भी अनेक महापुरुष ऐसा संदेश दे चुके हैं। दूसरा सच यह भी है कि ‘उन जैसा व्यक्ति दूसरा पैदा होगा इसकी संभावना भी नहीं लगती। सीधा मतलब यह है कि वह अद्वितीय थे नहीं और उन जैसा होगा नहीं। वह अलौकिक शक्ति के स्वामी थे। इस लोक के सारे पुरस्कार उनके सामने छोटे थे।
कुछ लोगों को इस बात का अफसोस है कि नोबल पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिये जाते। अगर ऐसा होता तो शायद महात्मा गांधी जी के नाम पर नोबल आ जाता। ऐसा सोच लोगो की संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है जो शायद सतही देशभक्ति भावना से से उपजा है। ऐसा सतही देशभक्ति भाव रखने वालों ने गांधी जी का सही मूल्यांकन नहीं किया है। वह अफसोस करते हैं कि मरणोपरांत नोबल नहीं दिया जाता और महात्मा गांधी को अपने हृदय में स्थान देने वाले इसे अपना भाग्य कहकर सराह रहे हैं कि उनका नाम कम से कम मरणोपरांत अपमानित होने से बच गया। यह पश्चिमी लोग उनको नोबल देकर स्वयं को ही सम्मािनत करते अगर उन्होंने ऐसा नियम नहीं बनाया होता।
गांधी जी को मानने वाले दक्षिण अफ्रीका के नेता नेल्सन मंडेला को यह पुरस्कार मिला पर उनको गांधी के समकक्ष नहीं माना जाता क्योंकि गांधी जी का कृत्य एक कौम या देश की आजादी तक ही सीमित नहीं है वरन् आधुनिक सभ्यता को एक दिशा देने से जुड़ा है। नोबल नार्वे की एक संस्था द्वारा दिया जाता है। जी हां, इस नार्वे के बारे में भी हम अखबार में पढ़ चुके हैं जो श्रीलंका में आतंकवादियों की बातचीत के लिये वहां की सरकार से बातचीत करता था। यही नहीं यही नार्वे ने भारत के नगा विद्रोही नेताओं को भी अपने यहां पनाह देता देता था। नार्वे के बारे में अधिक नहीं मालुम पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि वह अमेरिका का पिट्ठू हो सकता है और ऐसे वहां की नोबल बांटने वाली समिति कोई निर्णय अपने देश की नीतियों के प्रतिकूल लेती होगी यह संभव नहीं है।
लब्बोलुआब यह है कि नोबल कोई ऐसा पुरस्कार नहीं रहा जिसे लेकर हम अपने देश के उन महान लोगों को हल्का समझें जिनको यह नहीं मिला। सच तो यह है कि अगर आप हमसे पूछेंगे कि इस विश्व का आधुनिक महान लेखक कौन है तो हम निसंकोच अपने हिंदी लेखक प्रेमचंद का नाम ले देंगे। जार्ज बर्नाड या शेक्सिपियर को यहां पढ़ने वाले कितने लोग हैं? इस देश के लिये किसकी नीतियां अनुकूल हैं? इस प्रश्न का जवाब इस व्यंग्य में नहीं दिया जा सकता। वह अध्यात्म से जुड़ा है। याद रहे भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान न केवल व्यक्ति बल्कि समाज और राष्ट्र के संचालन के सिद्धांत भी प्रतिपादित करता है। बस, उसे समझने की जरुरत है। इन सिद्धांतों को प्रतिपादित करने वालों को नोबल कोई क्या देगा? वह सभी पहले से ही ग्लोबल (विश्व व्यापी) हैं जिनमें हमारे महात्मा गांधी एक हैं। गांधीजी के नाम पर युग चलता है कोई एक वर्ष नहीं।
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