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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/31/10

तसल्ली होती है कि कोई तो सच बोलता है- हिंदी व्यंग्य चिंतन (parsan and true-hindi article)

सम्मानों पर चल रहे विवादों पर अगर किसी ने उल्लेखनीय बात कही तो वह भारत के स्नूकर खिलाड़ी यासीन मर्चेंट ने!  उन्होंने कुछ लोगों को सम्मान देने के बारे में सवाल करते हुए पूछा है कि क्या वह समाज के लिये आदर्श हो सकते हैं?

अब हमारे समझ में आ गया है कि दिमाग में अच्छे ख्याल लाने के लिये शरीर में रक्त प्रवाह की तीव्र होना जरूरी है जो कि शारीरिक श्रम या खेल से ही होना संभव है।   एक खिलाड़ी का शरीर हमेशा सक्रिय रहता है इसलिये उसके दिमाग में इतने तेज विचार आते हैं यह अलग बात है कि सभी लेखक नहीं होते। हो जायें तो बड़े बड़े लेखकों की छुट्टी कर दें। दरअसल हमारे देश में जो बुद्धिजीवी समाज है उनमें विरले ही ऐसे हैं जिन्होंने शारीरिक परिश्रम से कभी कमाई की हो। हालांकि इनमें से अधिकतर गरीबों और मजदूरों की हिमायत करते हुए लगभग रोने लगते हैं फिर भी उनको समर्थन नहीं मिलता। दरअसल मेहनत करने वाला इस बात से दुःखी नहीं होता कि  उसे जिंदा रहने के लिये  करना पड़ रहा है अलबत्ता समाज में सम्मान न मिलने की बात से दुःखी होता है-यह बात इस लेखक ने स्वयं एक श्रमिक के रूप में जानी है। उसकी दूसरी समस्या यह है कि उसे अपने मेहनताने के लिये जद्दोजेहद करना पड़ती है।  कहीं कहीं ठेले और खोमचे वालों को जब अतिक्रमण विरोधी अभियान के परेशान होना पड़ता है तब अनेक बार हृदयविदारक दृश्य उपस्थिति होते हैं।  सब्जी या माल ढोले वाले मजदूरों  के लिये भी उनके समक्ष  हमेशा ही अपमान के दृश्य आते रहते हैं।  उनके इतने सारे समर्थक बुद्धिजीवी हैं पर रोजगार अभी इस देश में मौलिक अधिकार नहीं बन पाया यह एक अलग बात है।

सम्मान की बात करें तो वह किन लोगों को बंटे हैं इस पर तमाम तरह के विचार आ रहे हैं पर समाज के लिये आदर्श की बात कर यासीन मर्चेंट ने बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है।

एक टीवी चैनल पर उन्होंने सवाल किया कि ‘मेरा बेटा ऐसे लोगों को सम्मानित होते देखे और उनको अपना आदर्श माने तो कितना बुरा लगेगा।’

उनके शब्द ठीक से याद नहीं आ रहे अलबत्ता उनका आशय संभवतः यही था। उन्होंने एक ही झटके में सारे के सारे बुद्धिजीवियों को फेल कर दिया क्योंकि ऐसा सवाल किसी ने नहीं उठाया। कम से कम अखबारों में तो पढ़ने को नहीं मिला। जब कभी किसी को सम्मान दिया जाता है तो उसका सीधा आशय यही होता है कि सम्मानित व्यक्ति की उपलब्धि तथा उसके परिश्रम से प्रेरणा समाज के  आगे के लोग लें।  फिर जो सम्मान दिये जाते हैं वह लेखकों, कलाकारों, अभिनेताओं, तथा चित्रकारों को दिये जाते हैं जो यह भी नहीं कह सकते कि उन पर राजनीतिक कारणों से आक्षेप लगाये गये हैं। ऐसे पुरस्कार बिल्कुल साफ सुथरी छवि वाले लोगों को दिये जाने चाहिये-हालांकि कुछ लोग यह कह सकते हैं कि इस व्यवस्था में कोई  ‘श्रीमान स्वच्छ’ कौन रह सकता है पर यह स्वीकार्य नहीं है फिर आखिर इस व्यवस्था में बदलाव क्यों नहीं हो रहा! अंग्रेजों द्वारा थोपी गयी व्यवस्था पर हम आगे क्यों बढ़ते जा रहे हैं।  आदमी थोड़ी बहुत आर्थिक नियमों का ऊंच नीच का मामला है तो अनदेखा कर दे तो ठीक, पर यह धन हड़पने या गैर कानूनी शिकार जैसे मामले हों तो फिर विचार करना चाहिये। भारतीय प्रचार माध्यम अपने को निष्पक्ष दिखाने के लिये-जो कि लगभग एकतरफ ही लगता है-खूब मेहनत करते हैं। कभी कभी तो यह लगता है कि जैसे वह फिल्मों के ऐजेंडे को ही समर्पित हैं।  दूसरा यह भी कि खास लोगों के अनेक दुष्कृत्य उजागर करते समय वह जितना उग्र होते हैं पुरस्कार मिलने पर उसकी अनदेखी कर जाते हैं। उनको खास लोगों की बेरहमी नज़र नहीं आती है जबकि खास वर्ग समय के अनुसार उनके लिये अच्छा या बुरा बनता है।

आज एक चैनल पर पश्चिम बंगाल के एक गांव में अपनी मां से बिछड़े एक हाथी के बच्चे को गांव के ही मानव जातीय नौजवानों तथा बच्चों द्वारा प्रताड़ित होते हुए दिखाया गया। उद्घोषिका ने अपनी पूरी सहानुभूति हाथी के बच्चे के साथ दिखाई। उससे बेरहमी कर  खेल रहे मनुष्यों को ‘मवाली’ तक कह डाला।  बाद में उसी गांव के बुजुर्गों ने उसे अपने बच्चों से छुड़ाकर नदी के पार लगाया-उनकी तारीफ नहीं की और न ही यह कहा कि इस समाज में बुजुर्गों की कितनी  अहमियत होती है?

हाथी के बच्चे की पीड़ा से किसी भी संवेदनशील आदमी का मन द्रवित हो सकता है। हम इसका हाथी के बच्चे के साथ हुई बेरहमी का  समर्थन नहीं कर रहे हैं न करेंगे, पर कल कोई नुक्कड़ नाटक करने वाला हास्य व्यंग्यकार अगर कोई तदर्थ सम्मान समिति बनाकर वहां उन मवालियों को पुरस्कार देने के लिये कोई नाटक करे तो कैसा रहेगा? वैसे अपने एक पंजाब के एक ऐसे व्यंग्यकार नाटककार हैं भी, जो समाज पर व्यंग्य करते हुए सड़कों पर नाटक और प्रदर्शन करने के कारण विश्व में लोकप्रिय हैं।   मवालियों की जो स्थिति थी उसे देखते हुए तो यह भी कहा जा सकता है कि उनके लिये तो सौ रुपये भी बहुत हैं। अगर कोई व्यक्ति घोषणा कर वहां मवालियों को ही पात्र बनाकर पुरस्कृत करने के लिये नुक्कड़ नाटक करे तो क्या रह जायेगा इन सम्मानों के सम्मान में!

प्रचार माध्यमों में सक्रिय बुद्धिजीवी अपनी भूमिका निभाने में नाकाम रहे पर लगता है कि जनता की सोच की आवाज सभी समझ जाते हैं क्योंकि वही बात उनके मन में भी चल रही होती है।  एक सम्मानित फिल्म अभिनेता ने स्वयं ही कहा है कि ‘मैं इतने बड़े सम्मान के योग्य नहीं था।’

कोई और होता तो अनेक लोग उसे समझाते कि ‘नहीं भई, आप योग्य हो!’

उस अभिनेता को कोई ऐसा कहने नहीं जायेगा। शायद ही उसके मित्र भी यह कह पायें।  कई लोग तो उसे यह बात कहते हुए भी डरेंगे कि ‘नहीं सर, आप इसके लायक हैं।’

हो सकता है कि वह अभिनेता गुस्से में थप्पड़ जड़ डाले। क्योंकि हर आदमी दूसरे से छिपाये या दूसरा अनदेखा करे पर अपना सच हर कोई स्वयं  जानता है और अपने से उसे छिपा नहीं सकता।

यसीन मर्चेंट स्नूकर के बहुत बढ़िया खिलाड़ी हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ख्याति कमाई है। पता नहीं उनको कभी सम्मान मिला या नहीं। नहीं भी मिला तो भी उनकी खीझ समझना ठीक नहीं होगा क्योंकि ऐसे खिलाड़ी अपने खेल जीवन को मस्ती से जीते हैं अलबत्ता कभी कभी कोई समाज के लिये हितकर बात हो तो उनकी बात सुनकर यह तसल्ली तो होती है कि प्रसिद्ध लोगों में भी कुछ ऐसे हैं जो साफ सुथरी छबि के होने के साथ ही बात भी वैसी ही कहते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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