देश की सामाजिक, आर्थिक तथा पारिवारिक संकटों के निवारण का एक उपाय यह भी सोचा गया है कि अंतर्जातीय विवाहों का स्वीकार्य बनाय जाये। जहां माता पिता स्वयं ही अपनी पुत्री के लिये वर ढूंढते हैं वहां अंतर्जातीय विवाह का प्रयास नहीं करते क्योकि बदनामी का भय रहता ह। पर प्रेमविवाहों को अब मान्यता मिलने लगी है कम से कम सहधर्म के आधार पर यह अब कठिन बात नहीं रही। मगर क्या इससे कोई एतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है और हम क्या अब अगले कुछ वर्षों में एक नया समाज निर्मित होते देखेंगे? अगर सब ठीक हो जाये तो अलग बात है पर अंतर्जातीय या प्रेम विवाहों से ऐसे आसार दिख नहीं रहे कि भारतीय समाज अपने अंदर कोई नई सोच विकसति करने जा रहा है। इस लेखक ने कम से कम पांच ऐसी शादियों को देखा है जो अंतर्जातीय होने के साथ ही पारिवारिक स्वीकृति के साथ धूमधाम से हुईं और जिस दहेज रूपी दानव से मुक्ति की चाहत सभी को है उसकी उपस्थिति भी वहां देखी गयी। कहने का तात्पर्य यह है कि अपने सोच की दिशा बदले बिना परिवर्तन की आकांक्षा सिवाय हवा में तीर चलाने के अलावा कुछ नहीं दिखाई देती।
नारियों को अपने वर की स्वतंत्रता की वकालत करने वाले विवाह के बाद की परिस्थितियों से अपनी आंखें बंद किये बैठे हैं। सच तो यह है कि लड़की माता पिता के अनुसार विवाह करे या स्वयं प्रेमविवाह उसकी हालातों में परिवर्तन नहीं देखने को मिलता-चिंतकों के लिये यही चिंता का विषय होता है।
मात्र 45 दिन में एक प्रेमविवाह करने वाली लड़की संदेहास्पद स्थिति में मौत के काल में चली जाती है-यह हत्या है या आत्महत्या इस पर विवेचना चल रही है-तब जो सवाल उठते हैं जिनकी अनदेखी करना अपनी संकीर्ण मानसिकता का प्रमाण होगी और इससे इस बात की पुष्टि भी होगी कि यह देश केवल नारे और बाद पर चलता है और उनको ही चिंतन मान लिया जाता है।
लड़की पढ़ी लिखी तथा अच्छे घराने की थी। इतना ही नहीं वह अच्छी आय कमाने वाली भी थी। जाति अलग थी पर उसके पिता ने उसकी पसंद को स्वीकार करते हुए परंपरागत ढंग से विवाह करते हुए उसके अंतर्जातीय प्रेम विवाह को स्वीकृति प्रदान की। । टीवी पर दे,खी गयी इस खबर को देखकर मन भर आया। यकीनन उसके पति और उसके बीच प्रेम संबंध तो वर्षों पुराने रहे होंगे। कहा जाता है कि माता पिता लड़की को अनजान लड़के के हाथ में सौंपना या किसी लड़की को विवाह बाद प्रेम में करने सोचने की दूट मिलना दकियानूसी विचारधारा है पर क्या इन अंर्तजातीय विवाहों से वह पौंगापन समाप्त हो जाता है। पारंपरिक ढंग से शादी में दहेज लेनदेन के चलते किसी आधुनिक सोच का विकास नहीं माना जा सकता। लंबे समय के प्रेम में भी वह लड़की अपने साथी को क्या समझ पायी? एक प्रतिभाशाली लड़की का इस तरह दहेज के लिये चला जाना अत्यंत दुःखःदायी लगता है।
वैसे सजातीय विवाहों में भी कोई अच्छी स्थिति नहंी रहती पर यह आशा तो की जाती है कि प्रेम विवाह भले ही अंतर्जातीय हों पर दहेज की समस्या का हल हो पर अब उसके भी निराशाजनक परिणाम आने लगे हैं। कुछ अंतर्जातीय विवाहों में बारातियों में एक अजीब सा परायापन लगता है पर यह सोचकर सभी सहज दिखते हैं कि चलो अच्छा हुआ कि प्रेमियों ं का मिलन हुआ पर उनका इस तरह टूटना अत्यंत कष्टकारक लगता है। अंतर्जातीय विवाह टूटने के अनेक प्रसंग भी सामने आने लगे हैं और यह माता पिता की स्वीकृति से हुए थे।
इस देश की समस्या यह नहीं है कि यहां जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के नाम पर समूह बने हैं। समस्या यह है कि पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण ने उनमें आपनी श्रेष्ठता का भाव पैदा किया है जिससे वैमनस्या फैल रहा हे। टीवी, फ्रिज, कूलर, मोटर साइकिल, कार, कंप्यूटर तथा अन्य आधुनिक साधनों का अनुसंधान भारत में नहीं हुआ पर दहेज जैसी पुरानी परंपरा में इनका जमकर उपयोग हो रहा है। जिस बाप को अपनी शादी में साइकिल भी नहीं मिली वह अपने बेटे की शादी में मोटर साइकिल या कार मांगता है। सबसे अधिक हैरानी तब होती है जब पढ़ीलिखी महिलायें भी बात तो आधुनिकता की करती हैं पर दहेज का मामला हो तो खलनाियका को रोल अदा करते हुए जरा भी नहीं हिचकती।
कहने का अभिप्राय यही है कि देश की कुपरंपरायें, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास तथा अन्य कुरीतियों की भी उतनी ही पुरानी गंदी विचाराधाराएं बहती आ रही हैं जैसे कि पावन नदियां गंगा, यमुना और नर्मदा। हमने अपने लोभ लालच से इन पावन नदियों को भी गंदा कर दिया और अपनी कुत्सित विचारधाराओं को भी आधुनिकता का रूप देकर उनको अधिक भयावह बनाने लगे हैं। जिस तरह यह नदियां स्वच्छ करने के लिये अपने उद्गम स्थल से पवित्र करने की आवश्यकता है-बीच में कहीं से साफ करने की योजनाओं को कोई परिणाम नहीं निकलने वाला-वैसे ही समाज में बदलाव लाने का प्रयास तभी सफल हो सकता है जब लोगों को सोच बदलने के लिये प्रेरित किया जाये। अंतर्जातीय विवाह से नये समाज के निर्माण की बात या जाति पांत का भेद मिटने से धर्म की रक्षा की बात तब तक निरर्थक साबित होगी जब तक लोगों की सोच नहीं बदलेगी।
कितने आश्चर्य की बात है कि लड़की जब कमाने लगती है तो लोग सोचते हैं कि उसकी शादी बिना दहेज को हो जायेगी पर माता पिता को फिर भी योग्य वर के लिये पैसा खर्च करना पड़ता है फिर भी उसके खुश रहने की गारंटी नहंी है। सबसे बड़ी बात यह है कि अनेक कथित संस्कृत और आधुनिक माता पिता और उनके लड़के पाश्चात्य सभ्यता की देखादेखी कमाऊ बीवी या बहु के लिये आंखें फैलाकर प्यार के नाम पर शिकार करने के लिये घूम रहे हैं पर दहेज लेना और फिर बहू से सामान्य गृहस्थ औरत की तरह कामकाज की भी अपेक्षा करते हैं। उसे ताने देते हैं। चंद दिन पहले ही उसे प्रेम करने वाला जब पति बन जाता है तो वह उसे संकट से उबारने की बजाय उसे बढ़ाने लगता है। उस लड़की की तब क्या व्यथा होती होगी जब जीवन भर साथ निभाने का वादा करने वाला प्रेमी जब पति बनता है तब अपने माता पिता या बहिन के तानों से उसे बचाने की बजाय
उनके साथ हो जाता है। मुश्किल यही है कि हम अपने यहां पाश्चात्य आधारों पर हम अपना समाज चलाना चाहते हैं पर उसके लिये सहनशीलता हमारे अंदर तब तक ही है जब तक हमें कष्ट नहीं उठाना पड़ता। जहां हमें कष्ट पहुंचता है वहां हम अपने संस्कारों का हवाला देकर अध्यात्मिक होने का प्रयास करते हैं। ऐसे विरोधाभासों से निकलने का कोई मार्ग भी नहीं दिखता क्योंकि हमारे देश के दिशा निर्देशक शादियो के स्वरूपों पर ही सोचते हैं उसके बाद चलने वाली गृहस्थी पर नहीं।
हमारे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि अंतर्जातीय प्रेम विवाह होना ठीक नहीं या सभी का यही हाल है बल्कि इससे समाज में व्यापक सुधार की आशा करना अतिउत्साह का प्रतीक है यही आशय है। जब तक ऐसे विवाहों में दहेज और शादी के समय अनाप शनाप खर्च ये भी बचने का प्रयास करना चाहिये।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियरhttp://anantraj.blogspot.com
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