हमारे देश में धाार्मिक संतों की एक बहुत बड़ी महान परंपरा रही है और इनमें से कुछ संत जहां माया की सूरत तक नहीं देखते वहीं कुछ सेवा स्वीकार कर लेते हैं। इनमें से भी कुुछ लोग ऐसा चक्कर में फंसते हैं सेविका को ही स्वामिनी बना लेते हैं। अब यह तो अलग से विश्लेषण का विषय होता है कि कौन संत है और ढोंगी! अलबत्ता कुछ संतों पर जब निरंतर आक्षेप किये जाते हैं और उनका कोई आधार नहीं मिलता तब यह संदेह होता है कि कुछ ताकतें ऐसी हैं जो बाकायदा भारतीय धर्मों को बदनाम करने में तुली हैं।
हमारे देश में इस समय अनेक संत सक्रियता से उस धार्मिक वैचारिक धारा के प्रवाह को आगे बढ़ा रहे हैं जो हमारे हमारे पौराणिक ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने अपने अनुसंधान, तपस्या और यज्ञ से प्रवाहित की थी। इनमें योगाचार्य श्री रामदेव और भागवत विशारद संत प्रवर श्री आशाराम बापू का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। एक योगविद्या को आगे बढ़ा रहे हैं दूसरे ब्रह्मज्ञान का प्रचार कर रहे हैं। देखने में यह आ रहा है कि इन दोनों संतों के साथ अन्य पर भी आये दिन प्रचार माध्यमों में शाब्दिक हमले होते रहते हैं। इन महान संतों को अपने विरुद्ध चल रहे दुष्प्रचार का सामना करने के लिये जिस तरह जूझना पड़ता है उससे उनके भक्तों के मन में जो कष्ट पहुंचता है पर उससे कोई नहीं देखना चाहता।
हम यहां संत प्रवर आसाराम बापू जी की बात करें। हिन्दू धर्म के पुरोधा संत आसाराम बापू का जन्म सिंध प्रात में हुआ था। महान संत श्रीलीलाशाह को वह अपना गुरु मानते हैं। संत आसाराम बापू को हम जब बोलते देखते हैं तो इस बात का अंदाज नहीं लगता कि उनके लहजे में सिंधी, सिंधु तथा सिंधुत्व का पुट भी रहता है। सच बात तो यह है कि जिन लोगों ने पुराने सिंधी बुजुर्गों को देखा है उन्हें संत प्रवर आसाराम बापू का अनेक बार मस्तमौला जैसा किया व्यवहार आश्चर्य में नहीं डालता। हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व के प्रचारक के रूप में उनका योगदान उल्लेखनीय है और उनके आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ऋषि प्रसाद’ इसका एक प्रमाण है। इस पत्रिका को देखकर यह कहा जा सकता है कि इससे हिन्दी की सेवा हो रही है। सिंध में अनेक संत हुए हैं जिनमें शाह कलंदर और संत कंवरराम का नाम आता है पर ऐसे भी कई संत हुए हैं जिनका नाम अब भारत की नयी पीढ़ी के सिंधी भाषी नहीं जानते। विभाजन के समय सिंध से आये बुजुर्ग बताते हैं कि सिंध में एक मस्तमौला संत हुए हैं जो मारते थे और जिसे यह सौभाग्य प्राप्त होता उसकी मनोकामना पूरी हो जाती थी। लोग उनके पास जाते थे, पर सभी से ऐसा व्यवहार नहीं करते थे। जिस पर दिल आता उसी पर ही बरसते थे और उसका कल्याण हो जाता-संभवत वह इतना ही मारते होंगे कि आदमी घायल न हो या उसके अस्पताल जाने की नौबत न आये।
संत कंवर राम जब मौज में आते थे तब नृत्य करते थे। बताते हैं कि जब भारत विभाजन के समय वह भारत रेल से आ रहे थे तब आतिताईयों ने उनको नाचने के लिये कहा। वह नाचे पर जब रुके तो उनको मार दिया गया-पता नहीं यह सच है कि नहीं पर जो सिंधी बुजुर्ग बताते हैं उसके आधार पर उनकी यही कहानी है।
कभी कभी संत प्रवर आसाराम जी का व्यवहार उन्हीं मस्तमौला संतों जैसा दिखता है। संभव है कि उनमें बचपन की ही अपनी उस पुरानी सिंधु संस्कृति के तत्व मौजूद हों। यहां कुछ लोग आपत्ति कर सकते हैं कि किसी संत को इस तरह का व्यवहार नहीं करना चाहिये । इस लेखक जैसे अध्यात्मिक प्रेमियों को भी कुछ देर आघात पहुंचता है पर फिर संतों की मौज की सोचकर चुप हो जाते हैं। यहां यह स्पष्ट कर दें कि एक आम आदमी से हम ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं कर सकते और न इसके समर्थक हैं। संतों की बात कुछ अलग हैं। अगर कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो तो वह इसे देश की सांस्कारिक भिन्नता समझ लें कि एक के लिये बात बुरी पर उपेक्षा करने लायक है पर दूसरे के लिये नहीं-उनको यह स्वाभावगत भिन्नता स्वीकारनी ही होगी क्योंकि हम लोग आम आदमी के रूप में कुछ करने लायक स्थिति में नहंी होते।
संत आसाराम जी के आश्रम के विस्तारों पर अनेक लोग दुःखी होते दिखते हैं। अनेक लोग उन पर अतिक्रमण के आरोप लगाते है। उनके आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ऋषि प्रसाद’ में उनका उत्तर भी दिया जाता है पर व्यवसायिक प्रचार माध्यम संभवता प्रतिस्पर्धी मानते हुए उनको प्रकाशित नहीं करते-इसका कारण यह है कि उनके प्रकाशनों ने पत्र पत्रिकाओं से ग्राहक यकीनन छीने होंगे। स्वाभाविक रूप से अनेक धार्मिक कार्यक्रम सरकारी या सार्वजनिक जमीन पर होते हैं। यह कोई अतिक्रमण नहीं होता। आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ऋषि प्रसाद’ में यही बात बताई गयी है।
संत आसाराम बापू के आश्रम द्वारा अनेक विद्यालय और चिकित्सालय भी चलाये जाते हैं। आश्रम द्वारा विक्रय की जाने वाली दवाईयों से अनेक लोगों को स्वास्थ्य लाभ होता है-इस लेखक ने ऐसे अनेक लोगों को देखा है जो उनकी दवाओं से स्वस्थ रहते हैं। जहां तक विवादों का सवाल है तो जमीनों आदि के विवाद तो होते ही रहते हैं-हमें लोगों की यह बात नहीं जमती कि संतों को आश्रमों की जरूरत क्या है? इसका जवाब यही है कि संत होकर बताओ तो जाने। जिस संत के पास करोड़ों की संख्या में भक्त हों तो यह माया उसकी सेवा तो करेगी ही।
आखिरी बात करें उन पर लगने वाले आरोपों की। एक शंकराचार्य पर भी अपने सहायक की हत्या का आरोप लगा था। उनको जेल में डाला गया। बाद में वह बरी हो गये। इस दौरान हिन्दू धर्म को जो बदनाम किया गया वह सभी ने देखा था। उन महान शंकराचार्य को जेल में रखने की अवधि का भला कोई पश्चाताप हो सकता है,? तमाम तरह की बकवास की गयी। संत आसाराम बापू पर भी निरंतर शाब्दिक हमले हो रहे हैं। यह प्रचार माध्यम वाले बतायें कि क्या संत आसाराम जी के साथ जो लोग आज हैं वह सब बुरे हैं और कल उनमें से कोई एक बाहर आ जाये तो अच्छा हो जायेगा। आज जो व्यक्ति उन पर आरोप लगाते हुए आपको भला दिख रहा है वह कल तक उनकी सेवा में रहते हुए आपके लिये बुरा था क्या प्रचार माध्यम अब ब्रह्मा हो गये हैंे जो उनके समाचार ही निर्णय का आधार मान लिया जाये। वह कभी इस बात की संभावना पर विचार क्यों नहीं करते कि कहंी संत प्रवर आसाराम बापू के विरुद्ध षडयंत्र तो रचा नहीं जा रहा है? दूसरी बात यह है कि उनके विरुद्ध प्रचार अभियान के बावजूद उन पर कोई आक्षेप प्रमाणित नहीं हो सका है ऐसे में सवाल यह उठता है कि आप उसे किसकी वजह से जारी रखना चाहते हैं। उन्होंने प्रचार माध्यमों के लोगों के विरुद्ध गुस्सा दिखाया तो उस पर उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है बल्कि उनके अपशब्दों को भी संतों का प्रसाद समझ लो। हालांकि वह ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति में सराबोर प्रचार माध्यमों से जुड़े लोग क्या जाने संतों की मौज क्या होती है? सच है श्रीगीता का यह वैज्ञानिक तथ्य कि ‘गुण ही गुणों में बरतते हैं'। जिन लोगों को संतों की निंदा के लिये प्रशंसा मिलती है वह उसका लोभ कैसे छोड़ सकते हैं। जिन लोगों में भारतीय अध्यात्मिकता का गुण नहीं है वह नहीं जानते कि ‘संतों की मौज’ क्या होती है?
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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