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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/18/10

प्रचार माध्यमों का राष्ट्रनिरपेक्ष भाव-हिन्दी आलेख (thought of nationalism-hindi article)

संगठित प्रचार माध्यमों की-यथा टीवी, समाचार पत्र पत्रिकायें तथा रेडियो- राष्ट्रनिरपेक्षता बहुत दुःखद और चिंताजनक है। कालांतर में जब वह इसके परिणाम देखेंगे तब उनको बहुत निराशा होगी। जब इन प्रचार माध्यमों को देश हित में किसी अभियान जारी करने की आवयकता प्रतीत होगी तब पायेंगे कि उनके पाठक तथा दर्शक तो राष्ट्रनिरपेक्ष हो चुके हैं और वह उनकी देशभक्ति अभियान से प्रभावित नहीं हो रहे । जिस तरह देश के कानून की धज्जियां उड़ाने वालों तथा अपने संदिग्ध आचरण से समाज को विस्मित करने वालों के दोषों को अनदेखा कर ‘किन्तु परंतु’ शब्दों के साथ उनकी उपलब्धियां यह प्रचार माध्यम गिना रहे हैं उस पर कभी हंसी आती है तो कभी निराशा लगती है।
जिस तरह लिखने वाले सभी लेखक नहीं हो पाते उसी तरह प्रचार माध्यमों में काम करने वाले भी सभी पत्रकार नहीं कहला सकते। जिस तरह सरकारी तथा निजी कार्यालयों में पत्र लिखने वाले लेखक लिपिक ही कहलाते हैं लेखक नहीं। उसी तरह पत्रकार वही है जो समाचार, विचार तथा प्रस्तुति में अपना प्रत्यक्ष मौलिक योगदान देता है-इसके इतर जो केवल समाचार का दर्शक या पाठक के बीच पुल का काम करते हैं पत्रकार नहीं हो सकते बल्कि उनकी भूमिका लिपिक से अधिक नहीं रह जाती। इसमें सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक वह अपनी प्रस्तुति में अपने प्रयास से मौलिक उपस्थिति दर्ज नहीं कराते।
संगठित प्रचार माध्यमों में सक्रिय अनेक महानुभाव तो अब लिपिकीय या उद्घोषक से अधिक भूमिका नहीं निभाते-हालांकि उनको इसके लिये पूरी तरह जिम्मेदारी ठहराना गलत है क्योंकि उनके अधिकारी भी उनसे ऐसी ही अपेक्षा करते हैं। जब हम प्रचार कर्म में लगे लोगों के कार्यक्रमों या समाचारों की मीमांसा कर रहे हैं तो उस पूरे समूह की ही जिम्मेदारी है जो उनके प्रसारण या प्रकाशन में लगा है।
अभी क्रिकेट की एक क्लबस्तरीय प्रतियोगिता को लेकर भारत शासन के कुछ विभागों ने कानून की अवहेलना को लेकर कार्यवाही प्रारंभ की है। उसमें एक प्रसिद्ध व्यक्ति की तरफ उंगलियां उठ रही हैं जिसके कार्यालय में आयकर का छापा पड़ चुका है-बताया जाता है कि पूर्व में प्रवर्तन निदेशालय भी उनसे जानकारी मांग चुका है। इसमें कोई शक नहीं क्रिकेट की यह क्लब स्तरीय न केवल कानूनी दांव पैंचों में फंसी है बल्कि एक टीम के खेल पर तो सट्टे वालों के दबाव में खेलने का भी शक पुलिस ने जताया है। जिस व्यक्ति को इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता के आयोजन का श्रेय देकर श्रेष्ठ प्रबंधक का प्रशस्ति पत्र दिया जा रहा है उस पर नियम तोड़ने का आरोप है।
अब जरा प्रचार माध्यमों की उस व्यक्ति पर राय देखिए
‘भले ही उन पर आरोप लग रहे हैं पर सच यह है कि उन्होंने क्रिकेट के साथ मनोरंजन जोड़ने जैसा बड़ा काम कर दिखाया। उसको बड़े पर्दे के लोगों को जोड़ा।’
‘उसकी वजह से नये क्रिकेटरों को अवसर मिल रहा है।’
अब ऐसे प्रचार पर क्या कहा जाये? वह किसका महिमा मंडन कर रहे हैं और कैसे? 1983 में भारत ने विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता जीती उसके बाद यहां यह खेल स्वाभाविक रूप से अधिक प्रसिद्ध हो गया। लोग खेलने वाले कम देखने वाले अधिक थे। मगर यह खेल था इसलिये आयकर से छूट मिलती रही पर जब यह मनोरंजन जोड़ा गया तो वह छूट नहीं मिल सकती-यह बात संगठित प्रचार माध्यमों में हुई चर्चाओं के आधार पर लिखी जा रही है। अब तो अनेक लोग मानने लगे हैं कि यह क्रिकेट प्रतियोगिता खेल नहीं बल्कि मनोरंजन है। मनोरंजन पर करों का हिसाब अलग है। उसमें कई जगह पहले पैसा अग्रिम रूप से कम के रूप में जमा करना पड़ता है। जो खिलाड़ी खेल रहे हैं उन पर आयकर में शायद ही छूट मिल पाये। दूसरी बात यह कि आयकर नियमों के अनुसार तो नियोक्ता को ही अपने अधीन काम करने वाले व्यक्ति को मिलने वाली देय रकम पर आयकर की राशि कटौती कर जमा करना चाहिए। क्या उनके उस ऊंचे व्यक्तित्व के स्वामी प्रबंधक ने ऐसा किया? इस प्रतियोगिता में करोड़ों की आयकर चोरी का शक किया जा रहा है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि यह मैच राष्ट्रीय यह अंतर्राष्ट्रीय खेल का हिस्सा नहीं बल्कि मनोरंजन हैं इसलिये खिलाड़ियों तथा आयोजकों से ऐसे ही कर वसूलना चाहिये जैसे मनोरंजन उद्योग से वसूला जाता है।
हैरानी की बात है कि संगठित प्रचार माध्यम कानून के प्रावधानों को लेकर अपने निष्कर्ष निकलाने से बच रहे हैं या उनको इसका आभास नहीं है कि यह प्रकरण इतना संगीन है जहां चंद नये क्रिकेट खिलाड़ियों को मौका देने जैसा या उसमें मनोरंजन शामिल करने जैसा कार्य कोई महत्व नहीं रखता। हजारों करोड़ों के करचोरी के संदेह से घिरी यह प्रतियोगिता पचास से सौ खिलाड़ियों को अवसर देने के नाम पर कोई पवित्र नहीं हो जाती। वैसे क्या इससे पहले नये खिलाड़ियों को अवसर नहीं मिलते थे। देश की राजस्व की हानि एक बहुत बड़ा अपराध है।
किसी भी देश अस्तित्व उसके संविधान से होता है जिसके अनुसार चलने के लिये सरकार को धन की आवश्यकता होती है। यह धन सरकार अपनी ही प्रजा पर अप्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष कर लगाकर वसूल करती है। इस प्रतियोगिता में यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन आयोजित कर रहा है बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि मनोंरजन के रूप में चलने के बावजूद इसको कृषि की तरह करमुक्त नहीं माना जा सकता है। सुनने में आया है कि करों से बचने के लिये इसमें समाज सेवा जैसे शब्द भी जोड़े जा रहे। अभी तक यह पता नहीं चल पाया कि इस प्रतियोगिता से कहीं राजकीय तौर पर कर जमा किया गया या नहीं।
कहने का अभिप्राय यह है कि चाहे कोई व्यक्ति कितना भी अच्छा प्रबंधक या समाज सेवक क्यों न हो अगर वह सार्वजनिक रूप से ऐसा प्रायोजन करते हैं जो कर के दायरे में और वह उससे बचते हैं तो उनकी प्रशंसा तो कतई नहीं की जा सकती। देश में कानून का पालन होना चाहिये यह देखना हर नागरिक का दायित्व है इसलिये उसे ऐसे तत्वों की प्रशंसा कभी नहीं करना चाहिये जो नियमों को ताक पर रखते हैं। अगर ऐसा नहंी करते तो यह राष्ट्रनिरपेक्ष का भाव है जो खतरनाक है। आज कितने भी अच्छे निष्पक्ष दिखने का प्रयास करें पर जब ऐसे व्यक्तित्वों की प्रशंसा में एक भी शब्द कहते हैं तो यह निष्पक्षता नहीं बल्कि निरपेक्षता है जिसका सीधा सबंध राष्ट्र की अनदेखी करना है। यह ठीक है कि अभी तक आरोप है और उनकी जांच होनी है पर जिस तरह प्रचार माध्यम उसे अनदेखा कर रहे हैं वह कोई उचित नहीं कहा जा सकता।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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2 comments:

Jandunia said...

सुंदर पोस्ट

kshama said...

हजारों करोड़ों के करचोरी के संदेह से घिरी यह प्रतियोगिता पचास से सौ खिलाड़ियों को अवसर देने के नाम पर कोई पवित्र नहीं हो जाती। वैसे क्या इससे पहले नये खिलाड़ियों को अवसर नहीं मिलते थे। देश की राजस्व की हानि एक बहुत बड़ा अपराध है।
Shat pratishat sahmat hun!

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