दिल्ली में आयी बाढ़ के हृदय विदारक दृश्य देखें तो कहना पड़ता है कि यमुना नदी अपने साथ की गयी छेड़छाड़ का बदला ले रही है-प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माल्थस का कहना भी है कि जब इंसान अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं करता तब प्रकृति स्वयं यह काम करती है-और उससे हुई तबाही से आम गरीब इंसान बहुत तकलीफ में आ गया है जिसे सहानुभूति के साथ धन के साथ अन्न की सहायता की आवश्यकता है, मगर टीवी चैनलों पर खबरों को देखें तो कहना पड़ता है कि यमुना विकास कर रही है जिससे तबाही की उम्मीद पूरी हो रही है।
हिन्दी से रोटी कमाने वाले इन समाचार चैनलों को पता ही नहीं कि दिल्ली के आगे भी कहीं देश बसता है और कई जगह उनकी वाणी से हिन्दी की चिंदी करने की कोशिशें चर्चा का विषय है। हरियाणा के बांध से यमुना में पानी छोड़ने से दिल्ली का संकट बढ़ रहा है और उसमें खतरे या खौफ की जगह उम्मीदें केवल हिन्दी समाचार चैनलों के संवाददाताओं के साथ उद्घोषक ही देख सकते हैं क्योंकि उनके अपने भावविहीन चेहरों और रूखी वाणी से श्रोता और दर्शक प्रभावित नहीं होते इसलिये उनको हिन्दी से अलग उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग कर अपनी उपयोगिता साबित करना होती है। उम्मीद उर्दू शब्द है जिसका विपरीत शब्द खतरा या खौफ होता है। हिन्दी में आशा और आशंका शब्द इसके समानार्थी हैं। हैरानी तब होती है जब नदी का जलस्तर सामान्य ऊंचाई से अधिक होने की संभावना होती है तब आशंका की बजाय यही संवाददाता और उद्घोषक आशा शब्द का उपयोग करते हैं।
एक तरह से यह शब्द फैंकना है। संभव है दिल्ली या बड़े नगरों के लोग अब उम्मीद खौफ और आशंका आशा के अंतर को नहीं जानते हों पर भारत के छोटे शहरों में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो इसे समझते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे पूरे देश का प्रभामंडल दिल्ली और बड़े शहरों के इर्दगिर्द सिमट गया है और यही कारण है कि छोटे शहरों के लोग संचार और प्रचार माध्यमों के लिये एक महत्वपूर्ण नहीं रहे पर यह उनके लिये ऐसे है जैसे शुतुरमुर्ग संकट देखकर रेत में मुंह छिपा लेता है। इन्ही छोटे शहरों पर ही इन प्रचार माध्यमों की ज़िदगी निर्भर करती है क्योंकि अभी भी देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा यहीं रहता है।
इन्हीं टीवी चैनलों की भाषा देखकर यह कहना पड़ता है कि यमुना तो अपना विकास कर रही है। इस पर तो खुश होना चाहिए। सभी कहते हैं कि यमुना का पानी कम होने के साथ ही गंदा भी हो गया है। उसके किनारे बसे शहरों की सीवर लाईनें वहीं जाकर अपना कचरा विसर्जित करती हैं। अब हालत यह है कि दिल्ली में वह सब लाईनें बंद कर दी गयी हैं जो यमुना में पानी लाती हैं। तय बात कि वह कोई अच्छा पानी नहीं लाती। उफनती यमुना नदी अपने पानी के साथ वह कचड़ा भी उन शहरों को सधन्यवाद वापस कर रही है जहां के लोग बरसों से उस पर प्रसाद की तरह चढ़ाते हैं। यमुना और गंगा दैवीय नदियां मानी जाती हैं और भारतीय धार्मिक बंधु कभी भी उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां नहीं करते। जब भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तब भी वह उफन रही थी पर जब देख कि भगवान पधारे हैं तो उनको मार्ग दिया।
यमुना को लेकर एक दूसरी भी कहानी है। एक बार दुर्वासा ऋषि यमुना किनारे एक स्थान पर पधारे। श्रीकृष्ण जी का गांव दूसरे किनारे था। उन्होंने गांव के लोगों को अपने और शिष्यों के लिये खाना लाने का संदेश भेजा। गोपियां खाना लेकर चलीं तो पाया कि यमुना उफन रही है। लौटकर वह श्रीकृष्णजी के पास आयीं और उनको बताया तो वह बोले-‘यमुना से जाकर कह दो कि अगर श्रीकृष्ण ने कभी किसी नारी का स्पर्श न किया हो तो हमें रास्ता दो।’
गोपियां श्रीकृष्णजी को बहुत मानती थीं। वह उनकी बात सुनकर चली गयी पर आपस में कह रही थीं कि ‘अब नहीं मिलता रास्ता! यह कृष्ण तो रोज हमारे साथ खेलता और नृत्य करता है और यमुना नदी ने यह सब देखा है तब कैसे इतना बड़ा झूठ मान लेगी।’
यमुना किनारे आकर गोपियेां ने श्रीकृष्ण जी की बात दोहराई तो देखा कि यमुना उनके लिये मार्ग बना रही है। वह हैरान रह गयी। उन्होंने खाना जाकर दुर्वासा जी को खिलाया। वह प्रसन्न हुए। गोपियां भी वापस लौटीं तो देखा कि यमुना ने उनका मार्ग फिर बंद कर दिया है। वह लौटकर दुर्वासाजी के पास आयीं और अपनी समस्या उनके सामने रखी। दुर्वासा जी हंसकर बोले-‘यमुना से जाकर कह दो कि अगर दुर्वासा ने जीवन पर अन्न का दाना भी न खाया हो तो हमें जाने का मार्ग प्रदान करो।’
गोपियां वापस चलीं। वह आपस में बात कर रही थीं कि ‘श्रीकृष्ण तो अभी बालक हैं इसलिये उनका झूठ चल गया पर यह दुर्वासाजी का झूठ कैसे चलेगा? यह तो बड़े हैं। अभी इतना सारा भोजन कर रहे थें और दावा यह कि जीवन भर अन्न का दाना नहीं खाया।’
गोपियां यमुना किनारे आयीं और दुर्वासा की बात दोहराई। यमुना ने फिर अपना मार्ग उनको प्रदान किया।
दरअसल इन कहानियों की रचना के पीछे उद्देश्य यही है कि मनुष्य दैहिक रूप से अनेक कर्म करता है पर आत्मिक रूप से उनमें लिप्त नहीं होता तो वह योगी हो जाता है। वह कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म का अंतर जानता है इसलिये ही दृष्टा भाव से जीते हुए जीता है तो उसको अनेक प्रकार की सिद्धिया स्वतः मिल जाती हैं।
जिन लोगों ने गंगा बहुत पहले देखी हो उनको याद होगा कि हर की पौड़ी में सिक्का डाला जाता तो वह जाकर तली में दिखता था। अब यह संभव नहीं रहा। निश्चित रूप से यह मनुष्य की कारिस्तानी है। जंगल और पहाड़ों को खोदकर विकास दर बढ़ाने का लक्ष्य देखने वाले पश्चिमी प्रशंसक बुद्धिजीवियों को समझाना कठिन है। चीन के विकास का गुणगान करने वाले उसके यहां हुई तबाही का आंकलन नहीं करते। आर्थिक विकास करते समय अध्यात्मिक विकास को केवल पौगापंथियों का विषय मानने वाले शीर्ष पुरुषों से यह अपेक्षा तो अब करना ही बेकार है कि वह नदियों और पर्वतों का छिपा आर्थिक महत्व समझें जिसके कारण उनका देवी देवता का दर्जा पुराने मनीषियों ने दिया। अब यहां ऋषि, तपस्वी और मनस्वी महान पुरुषों की जगह बुद्धिजीवियों का महत्व बढ़ा है जो कि कभी अमेरिका तो कभी चीन को देखकर अपना चिंतन करते हैं। यह दोनों देश भी इस समय प्राकृतिक और पर्यावरण से उत्पन्न विकट संकटों का सामना कर रहे हैं।
बात टीवी चैनलों की भाषा की चल रही थी। ऐसा लगता है कि वहां करने वाले बौद्धिक कर्मी भारी तनाव में काम करते हैं। उन पर प्रतिदिन सनसनी के सहारे अपने चैनलों की वरीयता बढ़ाने का दबाव है इसलिये उनको हादसों की आशंका में अपने प्रदर्शन के परिणाममूलक होने की उम्मीद दिखाई देती है। अब यह कहना कठिन है कि वह भाषा नहीं जानते या भावावेश में सच बात कह जाते हैं कि ‘नदी का जलस्तर बढ़ने की उम्मीद है।’ वैसे पहली बात ही सही लगती है पर यह बात उनको बतायेगा कौन? उनके साथ कम करने वाले तथा अन्य सहधर्मी मित्र भी तो वैसे ही होंगे।
अब बात करें पूरे देश में आयी बाढ़ की! अनेक जगह विकराल बाढ़ आयी है। इसमें अधिकतर संकट मजदूर, श्रमिक तथा गरीब परिवारों पर ही आता है। हानि तो मध्यम और उच्च तबके के लोगों की भी होती है पर वह उनके उबरने की संभावनाऐं रहती हैं। उबरता तो गरीब भी है पर भारी तकलीफ से। ऐसे में उन इलाकों के बाढ़ से अप्रभावित धनी और मध्यम वर्गीय लोग पीड़ितों के लिये आगे आयें तो अच्छा ही रहेगा। एक आदमी केवल एक ही आदमी या परिवार की सहायता का संकल्प ले तो भी बुरा नहीं है। अगर कोई इलाका पूरा डूब गया है तो पड़ौसी इलाके के लोग यह संकल्प लें। मदद प्रत्यक्ष करें चंदा वगैरह देने से कोई लाभ नहीं है। अनेक लोग ऐसे हैं जिनके घर में अन्न के साथ अन्य वस्तुऐं भी फालतू या कबाड़ में पड़ी रहती हैं जो कि गरीब लोगों के लिये महत्वपूर्ण होती है। अनेक लोग अन्न का भी संचय करते हैं। यहां दरियादिली दिखाने के लिये नहीं कहा जा रहा बल्कि एक आदमी एक की मदद को भी तैयार रहे तो यह देश अनेक संकटों से जूझ सकता है। सामान्य स्थिति में अनेक लोग ऐसे हैं जो गरीबों का सहायता करते हैं पर असामान्य हालत हों तो स्थापित व्यक्तियों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। सरकार की मदद आयेगी तब आयेगी। उस मदद से भला होगा तब होगा मगर समाज और प्रदेशों में सामाजिक समरसता का भाव रखने के लिये ऐसे छोटे प्रयासों की आवश्यकता है जो कि एक शक्तिशाजी समाज के निर्माण में सहायक होते हैं।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
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1 comment:
यमुना और गोपियों का प्रसंग पूरा कर देते तो अच्छा रहता.. आभार.
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