महंगाई कोई समस्या नहीं बल्कि समस्याओं का परिणाम है। भले ही कुछ कवि या व्यंग्यकार इस पर कवितायें और व्यंग्य लिखते हों पर सच यह है कि बढ़ती महंगाई समाज में एक खतरनाक विभाजन करती आ रही है जिसे बड़े शहरों के निवासी बुद्धिजीवी वातानुकूलित कमरों नहीं देख रहे। ऐसा लगता है कि इस देश में चिंतकों का अकाल पड़ गया है यह अलग बात है कि अंग्र्रेजी मे लिखने वाले केवल औपचारिकता ही निभा रहे हैं और हिन्दी के चिंतक की तो वैसे भी कोई पूछ नहीं है और जिनकी पूछ है वह सोचते अंग्रेजी वालों की तरह है।
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि ‘इस संसार में दो ही प्रकार के लोग हैं एक अमीर और दूसरा गरीब!’
उनकी विचाराधारा का अनुसरण करने वाले अनेक नीति निर्माता इस नारे को गाते बहुत हैं पर जब नीतियां बनाने की बात आती है तो उनके सामने केवल अमीरों का विकास ही लक्ष्य बनकर आता है। कुछ लोगों की बातें तो बहुत हास्यास्पद हैं जब वह विकास को महंगाई का पर्याय बताते हैं। दरअसल महंगाई यकीनन विकास का की प्रतीक है पर वह स्वाभाविक होना चाहिए पर हम देश की स्थिति पर नज़र डालते हैं तो पता लगता है कि पूरा देश ही कृत्रिम विकास नीति पर चल रहा है और महंगाई की गति अस्वाभाविक और असंतुलित ढंग से बढ़ रही है जो कि अंततः समाज ही नहीं बल्कि परिवारों का भी विभाजन करती है।
हम अगर दृष्टिपात करें तो पहले परिवार और रिश्तेदारी में अमीर ओर गरीब होते थे पर उनमें अंतर इतना अधिक नहीं होता था कि विभाजन बाहर प्रकट हो। पहले एक अमीर के पास होता था अपना बड़ा मकान, भारी वाहन तथा अन्य महंगे सामान! जबकि गरीब के पास छोटा अपना या किराये का मकान, पूराना या हल्कातथा सस्ते सामान होते थे। एक शादी विवाह के अवसर पर भी होता यही था कि एक आदमी अपनी शादी में अधिक प्रकार के व्यंजन परोसता था तो दूसरा कम। दो भाईयों में अंतर होता था तो एक भाई अपनी जेब से थोड़ा व्यय कर दूसरे के बच्चे में उसकी शान बढ़ाता था। पड़ौसियों में भी यही स्थिति थी। एक के घर में रेडियो है तो दूसरे के पास नहीं! पर दूसरा सुनकर ही आनंद लेता था। सामाजिक सामूहिक अवसरों पर एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव था। परिवार, रिश्तेदारी और पड़ौस में रहने वाले लोगों में धन का अस्वाभाविक अंतर नहीं दिखाई देता था और जिस समाज पर हम गर्व करते हैं वह इसी का ही स्वभाविक अर्थव्यवस्था का परिणाम था। मगर अब हालत यह है धन का असमान वितरण विकराल रूप लेता जा रहा है। इससे आपस में ही लोगों के कुंठायें और वैमनस्य का भाव बढ़ता जा रहा है। हम जब देश की एकता या अखंडता की बात करते हैं तो एक बात भूल जाते हैं कि अंततः यह एक भौतिक विषय है और इसे अध्यात्मिक आधारों पर नियंत्रित नहीं किया जा सकता। हम भले ही जाति, भाषा, तथा धर्म के आधार पर बने समूहों की मजबूती में देश की एकता या अखंडता का भाव देखना चाहते हैं महंगाई के बढ़ते धन के असमान वितरण के भावनात्मक परिणामों को समझे बिना यह कठिन होगा क्योंकि अल्प धन वाला अधिक धनवान में प्रति कलुषिता का भाव रखने लगता है जो अंततः सामाजिक वैमनस्य में बदल जाता है।
अक्सर हम देश के दो हजार साल के गुलाम होने की बात करते हुए देश के सामाजिक अनुदारवाद को जिम्मेदार बताते हैं पर सच यह है कि इसके मूल में यही धन का असमान वितरण रहा है। जिन लोगों को यह बात अज़ीब लगे उन्हें यह देखना चाहिए कि हजार और पांच सौ नोट प्रचलन में आ गये हैं पर अभी भी कितने लोग हैं जो उसके इस्तेमाल करने योग्य बन गये हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि इस तरह के नोटों को केवल अवैध छिपाने वालों की सुविधा के लिये बनाया गया है क्योंकि जिस तरह कुछ भ्रष्ट लोगों के यहां उनकी बरामदगी हुई उससे तो यही लगता है। दूसरा यह भी कि साइकिल तथा स्कूटर में हवा भरने के लिये आज भी दरें वही हैं। सब्जियों तथा अन्य खाद्य पदार्थों की दरें बढ़ी हैं पर उनके उत्पादकों की आय का स्तर में धनात्मक वृद्धि हुई जबकि महंगाई में गुणात्मक दर से बढ़ोतरी होती दिख रही है।
कभी कभी तो इस बात पर गुस्सा आता है कि देश की संस्कृति, धर्म और अध्यात्म को लेकर कुछ लोग आत्ममुग्धता का शिकार हैं। कहीं किसी ने भारतीय धर्म अपनाया तो चर्चा होने लगती है तो कहींे भारतीय पद्धति से विवाह किया तो वाह वाह की आवाजें सुनायी देती हैं। यह भ्रम कि धर्म या अध्यात्म के आधार पर देश को एक रखा जा सकता है अब निकाल देना चाहिये। हमारे कथित कर्मकांड तो केवल अर्थ पर ही आधारित हैं। उसमें भी विवाह में दहेज प्रथा का तो विकट बोलबाला है। अमीर और दो नंबर की कमाई वाले पिताओं के लिये अपनी लड़की का विवाह करना कठिन नहीं है पर उनकी देखा देखी महंगी राह पर चलने वाले मध्यम वर्ग के लिये यह एक समस्या है।
कहने का अभिप्राय यह है कि महंगाई की धनात्मक वृद्धि तो स्वीकार्य है पर गुणात्मक वृद्धि अंततः पूरे समाज के आधार को कमजोर कर सकती है और ऐसे में देश की एकता, अखंडता तथा सम्मान बचाये रखना एक ऐसा सपना बन सकता है जिसे कभी नहीं पाया जा सकता।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
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