आज सारे देश में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनायी जा रही है। भगवान श्रीकृष्ण जी हमारे ‘अध्यात्मिक दर्शन’ के सबसे बड़े आधार स्तंभ हैं। इस अवसर पर उनकी बालक्रीड़ाओं और प्रेमलीलाओं को लेकर तमाम तरह की चर्चाऐं होती हैं। वृंदावन के बांकेबिहारी मंदिर में ढेर सारी भीड़ जुटती है। लोग आते जाते ‘राधे राधे' कहते हुए उनके मंदिरों में दर्शनों के लिये जाते हैं। अनेक संत तो भगवान श्रीकृष्ण की बालक्रीडाओं और प्रेमलीलाओं के प्रसंग को सुनाकर भक्तों को भाव विभोर करते हैं।
इस प्रसन्नता पूर्ण वातावरण में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो श्रीकृष्ण के महाभारत युद्ध के दौरान उनके उस स्वरूप का स्मरण करते हों जिसमें उनकी लीला से श्री मदभागवत गीता एक अलौकिक और अभौतिक अमृत के रूप में प्रकट हुई। समुद्र मंथन में निकला अमृत तो देवता पी गये और इस कारण दैत्यों से उनका बैर बंध गया जो आज भी जारी सा लगता है। अनेक लोग दैत्यों को उनका फल न मिलने के कारण देवताओं को मनुवादी और पूंजीवादी भी बता देते हैं। मगर श्री गीता में जो अमृत प्रकट हुआ हुआ वह न पीने योग्य है न ही खाने योग्य, उसका स्वाद तो पढ़कर उसे धारण करने पर ही अनुभव किया जा सकता है। इसके लिये अपने अंदर बस संकल्प और विश्वास होना चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण का राधा के साथ आत्मीय संबंध था पर वह केवल प्रेम का नहीं बल्कि निष्काम प्रेम का प्रतीक था। भले ही कुछ विद्वान इस प्रेम का उपयोग अपने लिये बड़े सुविधाजनक ढंग से समाज को निर्देशित करते हुए प्रेमभाव को दैहिक सीमाओं तक ही समेट देते हैं पर जिन्होंने श्रीमद्भागवत गीता को पढ़ने साथ ही उसे समझने का प्रयत्न किया है वही इस बात को जानते हैं कि प्रेम न केवल देह तक ही सीमित न मनुष्य रूप तक, बल्कि वह आत्मा की गहराई में रहने वाला ऐसा भाव है जो कामनाओं से रहित एक अनुभूति है। उससे मनुष्य की अध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है न कि दैहिक वासनायें। भगवान श्रीकृष्ण की बालक्रीड़ाओं तथा प्रेमलीलाओं का बखान ज्ञानी लोगों को रोमांचित करता है पर वहीं तक ही सीमित नहीं रखता क्योंकि महाभारत का युद्ध और उसमें प्रकट हुई श्रीगीता ही वह ग्रंथ है श्रीकृष्ण के रूप का सर्वश्रेष्ठ दर्शन कराती है जो कि भारतीय अध्यात्म दर्शन का वर्तमन में मुख्य केंद्र बिंदु है।
महाभारत युद्ध के मैदान में खड़े श्री अर्जुन को श्रीगीता का रहस्य बताते हुए एक बार भी भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साथ दैहिक रूप से जुड़े किसी व्यक्ति का नाम नहीं लिया न राधा का, न रुकमणी का न सत्यभामा का। यहां तक कि अपने हाथ से गोवर्धन पर्वत उठाने की घटना का भी स्मरण नहीं किया जिससे उनको बाल्यकाल में कीर्ति मिल गयी थी। उस समय भगवान श्रीकृष्ण केवल धर्म की स्थापना का वह काम कर रहे थे जिसके लिये वह अवतरित हुए थे वह चमत्कारी लीलाओं के माध्यम से अपने भक्त बनाने की बजाये लोगों को धर्म पालन के प्रेरित करना चाहते थे। जिस वृंदावन में उन्होंने बाल कीड़ाओं और प्रेमलीलाओं से अपने आसपास के लोगों को रोमांचित किया वहां से एक बार वह निकले तो फिर नहीं लौटे बल्कि जीवन पर धर्म स्थापना के लिये द्वारका में रहकर जूझते रहे। महाभारत में स्वयं हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा कर ‘अहिंसा’ के सिद्धांत की जो स्थापना की उसका कोई सानी आज तक नहीं मिलता। इस अहिंसा का संदेश कोई कायर नहीं वीर और योद्धा ही दे सकता है।
ज्ञानी लोगों को लिये वृंदावन अत्यंत रोमांचक स्थान होता है पर श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण स्वरूप में आस्था के कारण उनका चिंतन केवल वहीं तक नहीं सिमटता क्योंकि वह जानते हैं कि धर्म स्थापना का काम तो उन्होंने वहां से निकलने के बाद ही किया था। कंस वध के बाद उन्होंने पांडवों की सहायता से उस समय के दुष्ट राजाओं का संहार किया पर स्वयं कहीं हथियार का प्रयोग नहीं किया। स्पष्टतः वह यही संदेश दे रहे थे कि सारे काम केवल भगवान के भरोसे नहीं छोड़े जाने चाहिए। युद्ध जिनका विषय हो वही उसें संलिप्त हों और यह भी कि राज्य का काम धर्म स्थापना नहीं बल्कि वह समाज में लोगों द्वारा स्वयं किया जाना चाहिए। वृंदावन से जाकर द्वारिका में बसने के बावजूद उन्होंने धर्म स्थापना का काम नहंी छोड़ा। केवल परिवार में बैठकर मस्ती नहीं की बल्कि समाज के लिये ऐसा काम किया जो आज भी नवीनतम लगता है। श्रीमद्भागवत गीता ज्ञान का वह वह समंदर जो बाहर से सूक्ष्म लगता है पर उसके अंदर विराट खजाना है।
श्रीगीता में निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया जैसे शब्द बहुत सीमित दिखते हैं पर उनका भाव इतना गहरा है कि जो इनको समझ ले उसका तो पूरा ही जीवन आनंदमय हो जाये। निष्कर्ष यह है कि श्री कृष्ण जी का चरित्र केवल बालक्रीडा़ओं और प्रेमलीला तक ही सीमित नहीं है बल्कि जीवन जीने का एक ऐसा तरीका इसमें बताया गया है जो कहीं नहीं मिलता। यही कारण है कि भारत के पुराने मनीषियों ने महाभारत से श्रीमद्भागवत गीता को प्रथक कर उसे समाज के सामने प्रस्तुत किया।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर अपने मित्र ब्लाग लेखकों तथा पाठकों को हार्दिक बधाई।
-------------------------------
लेखक संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
No comments:
Post a Comment