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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

12/3/10

खोजी पत्रकारिता कौन करेगा-हिन्दी आलेख (khoji patrakarita-hindi article)

आजकल एक जनसंपर्क कंपनी की बहुत चर्चा है जिसकी संचालिका की एक उद्योगपति से वार्तालाप का टेप मामला तो अदालत में चल रहा है। इधर हम यह सोच रहे हैं कि जार्ज बर्नाड शॉ का यह कथन कितना सत्य है कि बिना बेईमानी के कोई अन्य रास्ता किसी को अमीर नहीं बना जा सकता। मतलब इस धरती पर जितने भी अमीर है वह भले ही अपनी ताकत पर प्रचार माध्यमों में अपने ईमानदार होने का प्रचार करें पर आम आदमी जानता है कि उनका यह ‘खूबसूरत झूठ’ अपने कंधे पर गरीबों की आह का बोझ लिये हुए है।
अभी तक हमारे देश में यह माना जाता था कि उद्योग, व्यापार, फिल्म या मादक द्रव्यों के विक्रय के अलावा अमीर होने का अन्य कोई मार्ग नहीं  है। अब लगता है कि जनसंपर्क का काम भी इसमें शामिल हो गया है। जब हम जनसंपर्क का बात करते हैं तो टीवी तथा समाचार पत्रों का माध्यम उसका एक भाग है। जब कोई जनसंपर्क की बड़ी कंपनी बना रहा है तो तय बात है कि उसके पास टीवी या पत्रकारों का जमावड़ा होना चाहिए। जिस जनसंपर्क कंपनी की संचालिका की चर्चा टेलीकॉम घोटाले में आई है उसके साथ दो पत्रकार भी शामिल है। यह बातचीत सुनकर ऐसा नहीं लगता कि उसका समाचार से अधिक संबंध है। बल्कि उससे तो ऐसा लगता है कि किसी व्यवसाय से जुड़े दलाल आपस में बात कर रहे हैं।
हमें इन पर आपत्ति नहीं है बल्कि हम इशारा कर रहे हैं कि जिस तरह समाज में सामान्य मार्ग से आर्थिक उपलब्धि, सामाजिक प्रतिष्ठा स्थापित करना तथा अन्य लोगों के हित का काम बड़े पैमाने पर करना कठिन बना दिया गया है। ऐसा कोई काम नहीं है जिससे राज्य के सहयोग के बिना आगे बढ़ा जा सके। इसी कारण जिन लोगों को आगे बढ़ना है वह पहले राज्य के शिखर पुरुषों में अपनी पैठ बनाते हैं। ऐसा नहीं है कि पुराने पूंजीपति कोई दूध के धुले हैं। अगर वह इतने ईमानदार होते तो राज्य की व्यवस्था ऐसी नहंी बनने देते जिससे कि नये अमीर बनना बंद हो गया। राज्य चला समाजवाद की राह, जिससे देश में अमीरों का वर्चस्व बना रहा। लोग नौकरियों के लिये पैदा होने लगे। यह आकर्षण इतना था कि लोग अब सेठ बनने की सोचते भी नहीं है। छोटे मोटे व्यवसायियों को तो कोई सम्मान ही नहीं है। इन बड़े व्यवसायियों को देखें तो आप अनेक तरह के सवाल पूछ सकते हैं जिनका कोई जवाब नहीं मिलता।
1-क्या इन्होंने आयकर पूरी तरह से चुकाया होगा?
2-आयात पर पूरा कर भुगता होगा?
3-इन लोगों ने अपने उत्पादों पर जो उत्पाद कर वसूला उसे क्या पूरा जमा किया होगा?
4-धर्म तथा समाज सेवा के नाम पर किये कार्यों के लिये पैसा खर्च कर करों से राहत नहीं ली होगी?
यकीनन इसका जवाब होगा ‘‘नहीं!’’
अब आते हैं जनसंपर्क की असली बात पर! आप जब किसी ए.टी.एम. पर जायें तो वहां पर क्रिकेट खिलाड़ियों के अभिनय वाले विज्ञापन सजे हुए मिलते हैं। यकीनन इन खिलाड़ियों ने इसके लिये ढेर सारा पैसा लिया होगा? क्या देश के इतने बड़े बैंक को को इसकी जरूरत थी?
नहीं! वह बैंक एक भी पैसा विज्ञापन पर न खर्च करे तो भी ग्राहक उसके पास जायेगा। यही स्थिति जीवन बीमा कंपनी की है। तब सवाल यह उठता है कि इतनी बड़ी अर्धसरकारी कंपनियों को विज्ञापन पर पैसा खर्च करने की क्या आवश्यकता है? इसका मतलब साफ है कि उदारीकरण और निजीकरण के चलते राज्य और निजी कंपनियों का स्वरूप एक जैसा ही कर दिया गया है जबकि है नहीं! फिल्म, समाज सेवा, व्यापार तथा उद्योग जगत के शिखर पुरुष सभी जगह अपना चेहरा दिखा रहे हैं। वह क्रिकेट भी देखने बड़े ताम झाम के साथ आते हैं तो फिल्म सम्मेलन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। पूरा समाज अपनी दोनों आंखों को अखबार और टीवी पर रोज देखता है। अब इन शिखर पुरुषों के कार्यक्षेत्र की विशिष्टता देखने के लिये कोई यह प्रश्न नहीं पूछता कि उनका मूल व्यवसाय क्या है?
स्थिति यह है कि समाचार चैनलों पर क्रिकेट और हास्य नाटकों के साथ ही बिग बॉस के अंश भी दिखाकर समय काटा जाता है। कम से कम पौन घंटा तो ऐसा लगता है कि प्रचार माध्यमों के प्रबंधकों ने मान लिया है कि इस देश का आम आदमी बिना अक्ल का है? उसे तो बस आंखों गड़ाकर समाचार देखना है न कि सुनना और समझना है? अब तो यह लगने लगा है कि टीवी चैनलों के कुछ कार्यक्रमों पर विवाद खड़े करना भी फिक्सिंग का हिस्सा है? उन पर कोई बैन लगे या उसके खिलाफ प्रदर्शन हो सभी पैसे देखकर कराया जाता है ताकि उसे प्रचार मिले। ऐसी स्थिति में जनसंपर्क का कार्य केवल दलाली जैसा हो गया है? जब सभी शिखर पुरुषों एक हो गये हैं तो उनके मातहत या साथी के रूप में जनसंपर्क का काम करने वाले इस बात का ध्यान रखते हैं उनके घेरे में रहने वाला ही आदमी विज्ञापन में शक्ल दिखाये, कभी बयान दे तो कभी उसके मामूली से कृत्य पर बड़ी चर्चा की जाये। विज्ञापन की कंपनियां तो चलती ही जनसंपर्क अधिकारियों की कृपा से हैं। जनसंपर्क वाला ही विज्ञापन बनवायेगा और टीवी तथा समाचार चैनलों को देगा। यही कारण है कि क्रिकेट, फिल्म, व्यापार, उद्योग तथा अन्य सामाजिक मनोरंजक क्षेत्रों के शिखर पुरुष अब गिरोह के सरगना की तरह व्यवहार करने लगे हैं और उनका जनसंपर्क कार्यालय एक तरह से उनके लिये सुरक्षा कवच दिलाने का काम करता है।
सच बात तो यह है कि सीधी राह से कोई अमीर नहीं बना। कहीं करचोरी तो कहीं निजी सेवा देकर राज्य के राजस्व के साथ बेईमानी कर सभी अमीर बन रहे हैं। संभव है देश के कुछ मेहनती लोग अमीर बना जाते हैं पर जनसंपर्क के लिये खर्च न करने के कारण उनको वैसी प्रसिद्धि नहीं मिलती क्योंकि उसके लिये तो बेईमानी का पैसा होना आवश्यक है। उद्योग के उत्पाद तथा व्यापार की सेवा में शुद्ध रूप से अमीर बनने के सारे मार्ग बंद हैं, ऐसे में जनसंपर्क का काम केवल दलाल ही चला सकते हैं। टेलीकॉम घोटाले में कुछ पत्रकारों के दलाल के रूप में चर्चा होना बहुत दिलचस्प है। मजे की बात यह है कि हमारे एक राष्ट्रवादी ब्लागर उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां बहुत पहले ही कर चुके हैं। उनको शर्मनिरपेक्ष तक कहा गया है क्योंकि इन पत्रकारों ने अपनी छवि धर्मनिरपेक्ष दिखाने की कोशिश की थी। इधर टेलीकॉम घोटाले में विदेशी कंपनियों के शामिल होने की बात की जा रही है तब यह बात भी देखनी होगी कि ऐसे कुछ दलाल कहीं विश्व के कट्टरपंथी धार्मिक देशों से तो नहीं जुड़े थे इसलिये ही यहां धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीट रहे थे ताकि वहां के शिखर पुरुष खुश हों और उनका काम चलता रहे।
वैसे अब तो यह हालत हो गयी है कि टीवी चैनल रोज घोटालों की चर्चा इस तरह करते हैं जैसे कि उनकी खोज हो पर सच तो यह है कि राज्य की ऐजेंसियों का ही काम है जो वह कर रही हैं। एक अच्छी छवि वाले एक उद्योगपति ने इसी मीडिया से कहा कि‘‘ आप जिन घोटालों की चर्चा कर रहे हैं वह आपने नहीं खोजे, सच तो यह है कि देश में खोजी पत्रकारिता नाममात्र की भी नहीं है इसलिये ही यह सब हो रहा है। घोटाले का पता होने पर सब हाथ ताप रहे हैं पर उनकी खोज किसने की है यह भी देखना चाहिए।’’
यह चैनल खोजी पत्रकारिता क्या करेंगे? समाचारों के नाम पर निजी प्रचार का घोटाला वहां रोज देखा जा सकता है। खबर केवल बड़े आदमी की चाहिए? बदनामी बड़े के चाहिए। गरीब मर जाये या लाचार होकर सड़क पर मिले तभी उनको उस पर व्यवसायिक दया आती है। जहां तक खोजी पत्रकारिता कर घोटाले खोजने का काम है यकीनन कौन चैनल का कौन आदमी अपनी नौकरी खोना चाहेगा?
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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