भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार हर जीव में आत्मा होता है पर मनुष्य के मन की चंचलता अधिक है तो उसमें बुद्धि की प्रबलता है। बुद्धि की प्रेरणा से मन जहां भटकाता है वहीं उस पर विवेक से नियंत्रण भी पाया जा सकता है। इसके लिये यह जरूरी है कि ध्यान और भक्ति के द्वारा अपने आत्म तत्व को पहचाना जाये। इस प्रक्रिया को ही अध्यात्मिक ज्ञान कहा जाता है। अध्यात्म का सीधा अर्थ आत्मा ही है पर जब वह हमारे काम काज को प्रत्यक्ष प्रभावित करता है तब उसे अध्यात्म भी कहा जा सकता है। अपने कर्मयज्ञ का स्वामी अध्यात्म को बनाने के लिये यह जरूरी है कि उसके स्वरूप का समझा जाये। यह द्रव्य यज्ञ से नहीं वरन् ज्ञान यज्ञ से ही संभव है।
मन और बुद्धि के वश होकर किये गये द्रव्य यज्ञ सांसरिक फल देने वाले तो हैं पर उसे अध्यात्म संतुष्ट नहीं होता। ज्ञान यज्ञ की बात कहना बहुत सरल है पर करना बहुत कठिन काम है क्योंकि उसमें मनुष्य की प्रत्यक्ष सक्रियता न उसे स्वयं न दूसरे को दिखाई देती है। कहीं से तत्काल प्रशंसा या परिणाम प्रकट होता नहीं दिखता बल्कि उसे केवल आत्म अनुभूति से ही देखा जा सकता है। अपनी सक्रियता की प्रतिकिया तत्काल देखने के इच्छुक तथा तत्वज्ञान से परे मनुष्य के लिये संभव नहीं है। वैसे तत्वज्ञान के प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण भी श्रीमद्भागवतगीता में यह स्वीकार कर चुके हैं कि कोई हजार ज्ञानियों में कोई मुझे भजेगा और ऐसे भजने वालों में हजारों में कोई एक मुझे पायेगा।
अब यहां प्रश्न आता है कि भगवान को भजने का सर्वश्रेष्ठ तरीका क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने किसी भी प्रकार के भक्ति की नकारात्मक व्याख्या नहीं की पर भक्तों के चार रूप बताये हैंे-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। भक्ति के भी तीन रूप माने हैं सात्विक, राजस तथा तामस। उन्होंने किसी की आलोचना नहीं की बल्कि तामसी प्रवृत्ति की भक्ति को भी भक्ति माना है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनका मानना है कि मनुष्य का मन चंचल है और वह कभी कभी उसे भक्ति में भी लगायेगा चाहे भले ही वह तामस प्रवृत्ति की भक्ति करे।
श्रीमद्भागवत गीता का भक्ति के साथ ही जिज्ञासापूर्वक अध्ययन करने वाले मनुष्य पूर्ण ज्ञानी भले न बनें पर उनकी प्रवृत्ति इस तरह की हो जाती है कि वह उसके ज्ञान के चश्में में दुनियां तथा आईने में अपने को देखने के आदी हो जाते हैं। ऐसे में जब श्रीमद्भागवत गीता में हजारों में भी एक भक्त और उनमें भी हजारों भक्तों में एक के परमात्मा को पाने की बात सामने आती है तो लगता है कि संसार में ऐसे ज्ञानियों की बहुतायत होना संभव नहीं है जो निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया, समदर्शिता का भाव धारी तथा मान अपमान में स्थिरप्रज्ञ होने के साथ ही योग करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त करने में तत्पर रहने वाले हों। अधिकतर लोग द्रव्य यज्ञ करते हैं जो कि तत्काल प्रतिक्रिय पाने वाले होते हैं। उनका मन जब संसार के कर्म से विरक्त हो जाता है तब भक्ति की तरफ दौड़ता है। घर परिवार की परेशानियों का हल करना मनुष्य का लक्ष्य होता है तब वह वह चमत्कारों की तरफ भागता है। ऐसे में ज्ञान देने वाले गुरुओं की बजाय चमत्कार से उनकी परेशानियों का हल करने वाले जादूगरों उनको बहुत भाते हैं। वैसे हाथ की सफाई दिखाने वाले जादूगर इस संसार में बहुत हैं पर वह संत होने का दावा नहीं करते पर जिनको संत कहलाने की ललक है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के ग्रंथ पढ़कर संदेश रट लेते हैं और हाथ की सफाई के साथ चमत्कार करते हुए उनका प्रवचन भी करते हैं। ऐसे ही लोग प्रसिद्ध संत भी हो जाते हैं।
यहां तक सब ठीक है पर ऐसे संतों को भारतीय अध्यात्मिक दर्शन नकार देता है। भारत में बहुत सारे महापुरुष हुए हैं जिनके कारण भारतीय अध्यात्म की धारा अविरल बहती रही है। प्राचीन काल में भगवान के अवतारों में राम और कृष्ण तो हमारे जीवन का आधार है पर मध्य काल में महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर जी ने भी भारतीय अध्यातम ज्ञान की धारा प्रवाहित की। महान नीति विशारद चाणक्य का भी नाम हमारे देश में सम्मान से लिया जाता है। आधुनिक काल में भगवत्रूप श्री गुरुनानक जी भारतीय अध्यात्मिक धारा को नयी दिशा देने वाले माने जाते हैं तो संतप्रवन कबीर, कविवर रहीम, महात्मा तुलसीदास तथा भक्तवत्सला मीरा की अलौकिक रचनायें तथा कर्म भारतीय आध्यात्मिक की धारा को वर्तमान कलं तक बहाकर लायी है। जिससे हमारा देश में विश्व में अध्यात्मिक गुरु कहा जाता है।
सवाल यह है कि जब हम देश में सक्रिय ढेर सारे साधु संत, ज्ञानी, बाबा, साईं और योग शिक्षक देखते हैं और फिर नैतिक पतन की गर्त में गिरे समाज पर दृष्टि जाती है तो यकायक यह प्रश्न हमारे दिमाग में आता है कि आखिर यह विरोधाभास क्यों है?
दरअसल मनुष्य की अध्यात्मिक भूख शांत करने के लिये व्यवसायिक लोग ही सक्रिय रह गये है और स्वप्रेरणा से निष्काम भाव से समाज का उद्धार करने वाले लोग अब दिखते ही नहीं है। पहले समाज को समझाने का यह काम गैर पेशेवर लोग किया करते थे अब बकायदा पेशेवर संगठन बनाकर यह काम किया जा रहा है। श्रद्धा और निष्काम भाव से अध्यात्मिक दर्शन की सेवा करने वाले लोग अंततः महापुरुष बन गये पर अब पेशेवर लोगों की छवि वैसी नहीं बन पायी भले ही आज के प्रचार माध्यम उनकी तारीफों के पुल बांधता हैं। उनका यह प्रयास भी अपने विज्ञापन चलाने के कार्यक्रमों के तहत किया जाता है।
आखिरी बात यह कि हमारे देश जनमानस पेशेवर संतों की असलियत जानता है। अक्सर कुछ विद्वान अपने देश के लोगों पर झल्लाते हैं कि वह ढोंगी संतों और प्रवचनकर्ताओं के पास जाते ही क्येां हैं? उनको यह पता होना चाहिए कि हर आदमी में अध्यात्मिक भूख होती है। सभी ज्ञानी हो नहीं सकते इसलिये लोगों को तात्कालिक रूप से मनोरंजन के माध्यम से शांति प्रदान करने वाले व्यवसायी प्रकृति के लिये यहां ढेर सारे अवसरे हैं। उनके लिये भारतीय अध्यात्म एक स्वर्णिम खदान है। जिसमें से मोती चुनकर लोगों को चमत्कार की तरह प्रस्तुत करते रहो और अपने लिये माया का शिखर रचते रहो।
मनुष्य में विपरीत लिंग और स्थिति का आकर्षण स्वाभाविक रूप से रहता है। लिंग के आकर्षण के बारे में तो सब जानते हैं पर मन को विपरीत स्थितियों का आकर्षण भी मन को बांधता है। महल में रहने वाला झौंपड़ियों के रहवासियों को सुखी देखता है तो गरीब अमीर का वैभव देखकर चकित रहता है। संपन्नता में पले आदमी को अभाव की कहानियां कौतुक प्रदान करती हैं तो विपन्न आदमी को संपन्न और चमत्कारी कहानियां रोमांच प्रदान करती है। मूल बात यह है कि आदमी अपने नियमित काम से इतर मनोंरजन चाहता है चाहे वह अध्यात्म के नाम पर रचे प्रपंच से मिले यह मनोरंजन के बहाने फूहड़ता प्रस्तुत करने से मिले। यही कारण है कि हमारे देश में संत, सांई, सत्य साईं, बाबा, बापू, योगीराज तथा भगवान के अवतारी नाम से अनेक कथित महापुरुष विचरते मिल जाते हैं। अध्यात्म की खदान से निकले उनके शब्दों से उनको हमारे बौद्धिक रूप से गरीब समाज में सम्मान तो मिलना ही है जब मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता प्रदर्शित करने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों को ही देवता का दर्जा मिल जाता है।
आखिरी बात श्रीमद्भागवत गीता के महत्व की है। विश्व की यह अकेली पुस्तक है जिसमें ज्ञान और विज्ञान है। ज्ञान का अभौतिक विस्तार शब्द स्वरूप है तो तो उसका भौतिक विस्तार विज्ञान है। शब्द स्वरूप अदृश्य है इसलिये उसकी सक्रियता नहीं देखी जाती पर उसकी शक्ति अद्भुत है। जबकि विज्ञान दृश्यव्य है इसलिये उसकी सक्रियता प्रभावित करती है जबकि उसका प्रभाव क्षणिक है। सच बात तो यह है कि हमारे समाज का बौद्धिक नेतृत्व श्रीगीता से दूर भागता है क्योंकि उसके प्रचार से उसकी अहंकार प्रकृति शांत नहीं होती जो मनुष्य में दूसरों से सम्मान पाने की भूख पैदा करती है। जिनको श्रीगीता के अध्ययन से तत्वज्ञान मिलता है वह प्रचार करने नहीं निकलते। इसलिये उसका अध्ययन करना ही श्रेष्ठ है। कम से कम आज जब संसार में अधिकतर देहधारी मनुष्य माया के भक्त हो गये। ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता के अलावा कोई दूसरा गुरु दृष्टिगोचर नहीं होता।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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plz change the font type i not read it properly
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