पतंजलि योग सूत्र या विज्ञान सामान्य बुद्धिमान के लिये अत्यंत जटिल है। जब तक कोई व्यक्ति स्वयं आष्टांग योग का अध्ययन सक्रियता के साथ नहीं करता तब उसके लिये पतंजलि दर्शन समझना एक दुरूह कार्य है। सीधी बात कहें कि जो व्यक्ति योग साधना का अभ्यास करता है तो साथ में रचनाकर्म या प्रवचन में भी उसे दक्ष होना चाहिए। जो लोग रचनाकर्म और प्रवचन में दक्ष नहीं है तो वह सक्रिय होकर भी उसका अध्ययन नहीं कर पाते और जो इस योग साधना के विषय पर रचनाकर्म और प्रवचन कर रहे हैं वह सभी आष्टांग योग के पूर्ण भागों को नहीं जानते। थोड़ा बहुत प्राणायाम और आसन कर अनेक लोग अपने आपको ज्ञानी समझ रहे हैं पर उनको मनुष्य चित्त की महिमा का पता नहीं है। हम चित्त को मन या बुद्धि के रूप में देख सकते हैं। दरअसल हमारा चित्त जड़ है। वह बाह्य दृश्यों से प्रभावित होकर उनके रूप को ग्रहण करता है। उसमें कोई चिंत्तन नहीं है इसलिये किसी पदार्थ को देखने, छूने, सूंघने और उपभोग करने के परिणाम वह नहीं बता सकता। चित्त में उन्हीं वस्तुओं को पाने की कामना होती है जो उसने देखी हैं पर जिसे नहीं देखा उनके बारे में वह विचार नहीं कर सकता।
महर्षि पतंजलि कहते हैं कि
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न तत्स्वाभासं दृश्यत्वात्।।
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न तत्स्वाभासं दृश्यत्वात्।।
‘‘यह चित्त स्वप्रकाश वाला नहीं क्योंकि वह केवल जड़ दृश्य है।’’
एकसमये चोभयानवधारणम्।।
‘‘एक काल में चित्त और दृश्य का जानना संभव नहीं है।’’
चित्तान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसंग स्मृतिसंकरश्च।।
‘‘एक चित को दूसरे का चित्त मान लेने पर उस चित्त में दूसरे चित्त का दृश्य होगा। इससे अनवस्था प्राप्त होगी और स्मृतियों का मिश्रण भी हो जायेगा।
चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाकारापत्ती स्वबुद्धिसंवेदनम्।।
‘‘यद्यपि मनुष्य की चेतन शक्ति क्रिया से रहित और असंग है तो भी तदाकार हो जाने पर अपनी बुद्धि का ज्ञान उसे हो जाता है।’’
हम इसी जड़ चित्त को स्वयं समझ बैठते हैं। अगर योग साधना के आठों भागों का अध्ययन कर पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाये तो मनुष्य दृष्टा हो जाता है। तब उसका अपने चित्त पर नियंत्रण हो जाता है। वह उसका उपयोग इस तरह कर सकता है कि दूसरे मनुष्य के चित्त का भी उसे ज्ञान होने लगता है। इतना ही नहीं वह अपने चित्त को दूसरे का मानकर उसकी स्थितियों, स्मृतियों और संकल्पों का भी भान कर सकता है। इतना ही जब योगाभ्यास से चित्त नियंत्रण में आता है तब बाह्य पदार्थों और दृश्यों से उस पर जो प्रभाव होता है उसका अध्ययन करना सहज होता है जिनसे मनुष्य दुष्परिणाम देने वाले संपर्कों से परे रहकर सहजता से जीवन व्यतीत कर सकता है। आत्मा से चित्त के एकाकार होने पर वह प्रकाशमान हो उठता है और यह योग की चरमस्थिति है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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