आज से हिन्दू वर्ष विक्रम संवत् 2069 प्रारंभ हो गया है। हमारे देश में पश्चिमी सभ्यता, परिधान, खान पान, रहन सहन, शिक्षा तथा विचाराधाराओं ने इस तरह प्रभाव डाला है कि समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इस बात से बेखबर रहता है कि उसका अपना भी कोई सांस्कृतिक तथा सभ्यता का आधार है। ईसवी नववर्ष प्रारंभ होने पर जहां चहुंओर नववर्ष की बधाई का क्रम चलता है वहीं भारतीय संवत् के प्रारंभ होने पर केवल अध्यात्म से जुड़े लोगों के बीच ही चहल पहल दिखाई देती है। आज से ही नवरात्रि भी प्रारंभ हो गयी है। इस अवसर पर जहां धार्मिक श्रद्धालु मंदिरों में सुबह जल और फूल चढ़कार अपनी हार्दिक अभिव्यक्ति प्रकट करते हैं।
हम यह नहीं कहते कि पाश्चात्य संस्कृति अपनाने में बुराई है पर यह स्पष्ट कर देते हैं कि भाषा और भाव का भूमि से संबंध होता है। जिस तरह रेगिस्तान में ऊंट का महत्व है उसी तरह हरित प्रदेश में गाय बैल की उपस्थिति स्वाभाविक रूप से देखी जाती है। रहने को तो लोग मरुभूमि में भी रहते हैं तो बर्फीली जगहों पर भी मानव बस्ती देखी जाती है। दोनों जगहों पर मनुष्य का मूल स्वभाव प्राकृतिक रूप से भले ही एक जैसा दिखता हो पर रहन सहन के कारण विचार तथा व्यवहार में अंतर परिलक्षित होता है। हम इसे बदल नहीं सकते पर देखा जा रहा है कि हमारे यहां का बुद्धिमान वर्ग समाज में अप्राकृतिक परिवर्तन की जोरदार कोशिश करता है। जहां अंग्रेजी पैदा हुई वहां हिन्दी की धारा प्रवाहित कर जहां वह खुश होना चाहता है वहीं जहां हिन्दी की जड़ें हैं वहां अंग्रेजी का फूल खिलाने का प्रयास कर रहा है। चूंकि बाज़ार, प्रचार तथा प्रकाशन के संस्थान उसके संरक्षक है इसलिये यह वर्ग समाज को अपने हिसाब से प्रभावित कर रहा है। ऐसे में केवल वही लोग इसके प्रभाव से बचे हैं जो भारतीय अध्यात्मिक के साथ हृदय के साथ जुड़े हैं। वरना तो इस वर्ग ने अपने मार्ग दर्शन में समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को भटकाव की राह पर ला दिया है। यह वर्ग पश्चिम और पूर्व के बीच हतप्रभ होकर खड़ा दिखता है।
अभी एक बहुत बड़े अध्यात्मिक गुरु ने कहीं कह दिया कि सरकारी स्कूल नक्सलवादी पैदा कर रहे हैं। उनको बंद कर देना चाहिए। इस पर जमकर विवाद उठा। चूंकि इससे सनसनी फैल सकती थी इसलिये इस खबर को हाथों हाथ उठा लिया गया। हमें हैरानी हुई। उस अध्यात्मिक गुरु ने बिना किसी शोध या अध्ययन के ऐसी बात कही जिसका कोई आधार नहीं है पर हमारे प्रचार माध्यम आखिर उसका प्रचार क्यों कर रहे थे? क्या इस आड़ में निजी स्कूलों का प्रचार हो रहा था। यह बात एक अध्यात्मिक गुरु ने कही थी और यकीनन उनके भक्त उनकी बात को धारण करेंगे। हमारे यहां गुरु भक्ति का संस्कार इस तरह स्थापित किया गया है कि परमात्मा के प्रति श्रद्धा गौण मान ली जाती है। यह अलग बात है कि उनकी संख्या कम है। हम इसे अध्यात्म की आड़ में एक ऐसा व्यवसायिक प्रयास कह सकते हैं जो आजकल अनेक लोग कर रहे हैं। इस अवसर पर हमारा इरादा भारतीय शिक्षा पद्धति पर लिखने का था पर ऐसा लगा कि यह व्यर्थ होगा। हमारा यह विचार नकारखाने में तूती बजने जैसा होगा। भारतीय शिक्षा पद्धति में इतने छेद हैं कि इसे बदलने के लिये अनेक लोग मांग करते हैं पर वह इस शिक्षा पद्धति से शिक्षित होने के कारण मौलिक सोच की शक्ति खो चुके हैं इसलिये कोई दूसरा मार्ग उनको नहीं सूझता। भारतीय शिक्षा पद्धति आदमी को इस कदर गुलाम बना देती है कि वह तो सरकारी नौकरी ढूंढता है न मिलने पर वह किसी पूंजीपति का मुर्गा भी बन जाता है।
अगर हम अपने देश को यहाँ के लोगों की दृष्टि से गौरवपूर्ण देखना चाहते हैं तो सबसे पहले भारतीय अध्यात्म में उसके सूत्र ढूंढने होंगे। हम देख रहे हैं कि आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा साहित्यक शिखरों पर बैठे लोग विश्व की दृष्टि में अपने देश को गौरवशाली होते देखना चाहते हैं पर क्या वह कभी सोचते हैं कि यहीं रहने वाले लोगों की दृष्टि में अपना देश क्या बना गया है? अगर वाकई यह देश यहां के लोगों की दृष्टि में गौरवशाली होता तो फिर हमारे यहां भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का ऐसा प्रभाव नहीं होता औ और लोकपाल बनाने का विचार जन्म नहीं लेता। तय बात है कि हमारी कार्यशैली तथा विचारों में विरोधाभास है।
इस अवसर पर अपने ब्लॉग लेखक और फेसबुक पर सक्रिय मित्रों तथा पाठकों को बधाई। इस कामना के साथ कि उनका नववर्ष मंगलमय हो।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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1 comment:
नव सम्वत्सर समस्त भारतभूमि के लिए कल्याणमय हो!!
आपको विक्रम सम्वत्सर २०६९ की अनंत शुभकामनाएँ
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