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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/3/13

क्रिकेट और फिल्म-हिन्दी व्यंग्य (cricketaur film-hindi vyangya or satire)

      कुछ लोग अक्सर यह सवाल करते हैं कि ‘आप कंप्यूटर पर इतना कैसे लिख लेते हैं? हमें कोई इसका जवाब नहीं सूझता।  सच बात तो यह है कि हमारे जैसे लोगों में इधर उधर की फालतु निंदा परनिंदा वाली बातों में समय बरबाद  करने की बजाय स्वस्थ मनोरंजन की चाहत होती है जिसके पूरा न होने पर वह स्वयं ही मनोरंजन का सृजन करने लगते हैं।  जब क्रिकेट की बातें हमारे दिमाग में भरी हुईं होती थीं उस दौर में हमारा लेखन कम हो गया था।  बाद में जब इसमें फिक्सिंग की बातें सामने आयी तो मन उचट गया।  उसी समय इंटरनेट कनेक्शन लिया था और पता नहीं यह ब्लॉगर और वर्डप्रेस के   ब्लॉग हमारे हाथ आ गये।  हमें पता नहीं था कि यह ब्लॉग हमें कहां ले जाने वाले हैं।  यकीनन वह क्रिकेट की जगह ले रहे थे।  यही कारण की इन पर हमारी शुरुआती रचनायें क्रिकेट का मखौल उड़ाने वाली थी। 
      सच बात तो  है कि अब तो हम यह मानने लगे हैं कि क्रिकेट कोई खेल नहीं है वरन् यह एक व्यवसाय है।  हमने यह देखा कि जब क्रिकेट का आकर्षण चरम पर था तब अनेक जगह इसका मनोरंजन की तरह वैसे ही आयोजन किया जाता जैसे फिल्मी गानों का आयोजन होता है।  गानों के कार्यक्रम में समस्या यह होती है कि जिसे गाना आता है वही माइक पर गा सकता है और बाकी लोगों को श्रोता बनना पड़ता है।  एसे में दर्शकों को गाना न आने का मलाल तो रहता ही है। क्रिकेट ने यह सुविधा दे दी कि इसे चाहे जो इसे खेल सकता है।  यही कारण है कि कहीं स्त्री- पुरुष, कहीं अधिकारी-कर्मचारी तो कहीं मालिक-नौकर के वर्ग बनाकर अवकाश के दिन मैच होते रहे।  जैसे ही फिक्सिंग के बाद क्रिकेट का आकर्षण कम हुआ यह सब बंद हो गया।
      हमारा मानना है कि क्रिकेट का आकर्षण अब न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है।  अगर अब यह चल रहा है तो केवल टीवी चैनलों की वजह से ही इसका अस्तित्व है।  बाज़ार और प्रचार प्रबंधक मिलकर क्रिकेट को पुनः लोकप्रिय बनाने का प्रयास कर रहे हैं।  इधर एक टीवी चैनल हिन्दी में भी कमेंट्री प्रसारित कर रहा है जो शुद्ध रूप से एक व्यवसायिक प्रयास है।  वरना तो क्रिकेट वाले भला कब हिन्दी बोलते हैं।  क्रिकेट के फिल्म जैसे ही मनोरंजक व्यवसाय होने का प्रमाण यह है कि पर्दे के अभिनेता अभिनेत्रियों जहां कहीं मैदान में इनाम लेते हैं तो  अंग्रेजी में ही बोलते है।  उनकी तरह  मैदान के खिलाड़ी भी  पर्दे पर आकर अंग्रेेजी में बोलते है। जो क्रिकेट में हिट हुआ उसका किसी किसी तरह से फिल्म के साथ नाता जुड़ ही जाता है।  सुपर क्रिकेट स्टार और सुपर फिल्म एक्ट्रेस के बीच इश्क का प्रायोजन कर उसे भी भुनाने के अनेक प्रयास हम देख चुके हैं। 
       बाज़ार के उत्पाद बेचने के लिये फिल्म के अभिनेता और अभिनेत्रियों के साथ क्रिकेट के खिलाड़ी भी पर्दे पर उतरते हैं।  प्रचार प्रबंधक भी इनके साथ ऐसे ही जुड़े रहते हैं जैसे कि यह उनके अपने नायक हों।  क्रिकेट के मैदान पर कंपनियों के विज्ञापन बोर्ड पूरी कहानी बयान करते हैं। इसे समझने वाला कोई पाठक अर्थशास्त्री होना चाहिये।  जब बीसीसीआई की क्रिकेट टीम कभी कभी लगातार हारने लगती है तब कुछ आम क्रिकेट प्रेमी चिल्लाते हैं कि ‘उस खिलाड़ी को हटा दो’, ’उसे कप्तानी से हटा दो’ या ‘‘इस बॉलर को टीम में क्यों नहीं लिया, उस बल्लेबाज को क्यों रख लिया’, तब हमें हसंी आती है।  अब इन आलोचकों को यह कौन समझाये कि अगर क्रिकेट के खिलाड़ियों का चयन आम लोगों की दृष्टि से होगा तो कंपनियों के उत्पाद कौन खरीदेगा और कौन बेचेगा? कोई खिलाड़ी अगर किसी विज्ञापन में बना हुआ है और टीम से हटा दिया जाये तो जो उत्पाद का नुक्सान होगा उसे कौन भरेगा? पता नहीं भारत के आम क्रिकेट प्रेमियों को यह कैसा भ्रम है कि क्रिकेट खेल उनकी वजह से चल रहा है? भले ही कुछ क्रिकेट खिलाड़ी जो अब विशेषज्ञ बन गये हैं यह दावा करते हैं कि आम आदमी के लिये क्रिकेट खेला जा रहा है पर यह सच नहीं है। हां, कुछ क्रिकेट खिलाड़ी जरूर तारीफ करने लायक हैं जो कि मानते है कि  क्रिकेट खिलाड़ियों को अच्छा खेलना चाहिए ताकि दर्शकों का मनोरंजन हो।  स्पष्टतः वह इस तर्क को ही हवा देते हैं कि यह खेल नहीं वरन् मनोरंजन है। यह अलग बात है कि अगर उनसे कहा जाये कि यह मनोरंजन है खेल नहीं तो वह उखड़ भी सकते हैं।
       भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बिगड़ते हैं तो क्रिकेट में सबसे पहले बिगड़ते हैं।  जब बनाने की बात आती है तो भी क्रिकेट मैच दोबारा खेलने से ही शुरुआत होती है।  भारत में कुछ लोग दावा करते हैं कि क्रिकेट में रिश्ते बढ़ाने से भारत पाकिस्तान की दोस्ती बढ़ेगी।  हैरानी होती है!  यह नुस्खा बीस सालों में पांच दस बार आजमाया जा चुका है पर कभी परिणाम पर खरा नहीं उतरा।  कभी कभी संगीत और फिल्म में भी इस तरह के संपर्क जोड़कर संबंध मधुर करने की  बात कही जाती है।  यह दोनों ऐसे व्यवसाय है जिनमें पैसा खूब है।  जब पाकिस्तान से भारत का रिश्ता खराब होता है तो चोट इन्हीं दो क्षेत्रों में होती है।  पाकिस्तान क्रिकेट टीम के साथ मैच न खेलने के साथ उसके गायकों और हास्य कलाकारों को मुंबई से भगा दिया जाता है। 
       हमें इन चीजों से कोई लेना देना नहीं है पर  जब पाकिस्तान इन कदमों से हताश होता नज़र आता है उससे यही लगता है कि कहीं न कहीं उसके यहां के गायकों, नायकों और खिलाड़ियों के अलावा अन्य व्यवसायी भी  इससे लाभान्वित होते हैं।  इससे यह प्रमाण मिलता है कि क्रिकेट और फिल्म एक जैसे ही व्यवसाय है।  ऐसे में अगर बीसीसीआई की टीम कभी पाकिस्तान से हारती है तो वैसे ही अफसोस नहीं होता जैसे किसी फिल्म के पिट जाने पर कोई चिंता नहीं होती।  जीत जाती है तो भी हमें खुशी नहीं होती क्योंकि किसी की फिल्म हिट हो तो हमें क्या मिलता है।  क्रिकेट से हमारा ही नहीं अनेक मित्रों का मोह इतना भंग हुआ है कि अब तो वह क्रिकेट का नाम नहीं लेते पर हम जैसे लेखक के लिये यह भूलना कठिन होता है कि इस खेल ने हमारे पूरे पंद्रह वर्ष बरबाद किये। अगर हम क्रिकेट नहीं देखते तो यकीनन बहुत बड़े लेखक होते। 
    पहले इस क्रिकेट ने दुःखी किया तो हमने मैच देखने बंद या कम किये पर अब तो समाचार हो या मनोरंजन चैनल वह कहीं न कहीं क्रिकेट का विज्ञापन कर रहा है।  पहले हम इच्छा से देखते थे पर अब यह जबरन हम पर थोपा जा रहा है।  पाकिस्तान से दोस्ती का तो नाम भर है, टीवी चैनलों के  विज्ञापन देखें तो पता चलेगा कि दुश्मनी को भुनाया जा रहा है।  ऐसे में चिढ आती है तब ऐसे व्यंग्य लिखने का मन करता है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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