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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/25/13

गणतंत्र (जनतंत्र) दिवस का विश्वरूपम-हिन्दी लेख (gantantra(jantantra diwas ka vishvarrpam-hindi lekh)

         गणतंत्र दिवस पर लिखा गया एक लेख इंटरनेट पर जबरदस्त हिट ले रहा है।  25 जनवरी 2012  को लिखे गये इस लेख का लिंक ही दे रहे है।  उस लेख की बातें दोहराने का कोई अर्थ यहां नहीं है।  उस लेख पर एक पाठक ने लिख दिया कि यह बोरिंग लेख है।  उसने सच कहा।  जब कोई लेख मस्तिष्क की गहराईयों में डूबकर लिखा जाता है तो उसे पढ़ना भी उसी तरह पड़ता है।  तय बात है कि लेखक और पाठक को गहराईयों में जाकर ही कुछ मिल सकता है। इंटरनेट पर चिंत्तन के रूप में लिखे गये लेखों में इसी तरह कह टिप्पणियां झेलने को तैयार भी रहना चाहिए। अगर कोई हमारा लेख झेल रहा है तो हमें भी टिप्पणियां भी झेलनी ही पड़ती हैं।  एक लेखक के रूप में हमारा स्वयं का मानना है कि उस लेख में कोई असाधारण बात नहीं थी।  अब आ गया  25 जनवरी 2013, लगता है कि इस बार भी हम ऐसा कुछ नहीं लिख सकते जो कि असाधारण हो।
         इस गणतंत्र की पूर्व संध्या पर हमारे सामने खड़ी है कमल हासन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ जिसे प्रतिबंधों और  विरोध का सामना करना पड़ा है।  अभी तक यह तय करना कठिन है कि यह विरोध सैद्धांतिक है या व्यवसायिक। कमल हासन ने इस विरोध के जवाब में कहा है कि ‘यह तो सांस्कृतिक आतंकवाद’ है। इस सांस्कृतिक आतंकवाद की बात अनेक लोग पहले भी चुके हैं पर कमल हासन जैसे महान फिल्मकार के श्रीमुख से निकला यह शब्द अनेक लोगों को हिलाने वाला है।  जहां तक कमल हासन के व्यक्तित्व का प्रश्न है तो भारत में उनकी छवि अत्यंत धवल है।  महान फिल्मकार पर निर्विववाद व्यक्त्तिव के स्वामी कमाल हासन की ‘विश्वरूपम’ पर प्रतिबंध इस देश के अनेक लोगों को नाखुश कर सकता है।  सवाल यह है कि फिल्म पर प्रतिबंध और विरोध का कोई ऐसा पहलू भी है जिसे कोई नहीं देख रहा है।  कुछ लोगों ने अपना यह संदेह जता दिया है कि इस फिल्म के प्रति कुछ लोगों की व्यवसायिक सहानुभूति है जो इसका विरोध प्रायोजित करा रहे हैं।
       कमल हासन का कहना है कि जब फिल्म को अनुमति देने वाली संस्था की अनुमति मिल गयी तो कुछ लोग उसका विरोध  अपने पूर्ण समुदाय का प्रतिनिधि होने का दावा करते हुए कैसे कर सकते हैं।
      प्रतिप्रश्न भी सामने आया है कि आखिर सार्वजनिक प्रदर्शन से पूर्व  यह फिल्म किसी समुदाय विशेष के चालीस  ठेकेदारों को दिखाई क्यों गयी थी?
     कमल हासन भले आदमी है पर 94 करोड़ से बनी इस फिल्म से कमाने का विचार करने वाले व्यक्ति या समूह की रुचि इस पर विवाद खड़ा कर अधिक धनार्जन के लिये किया गया निश्चय भी हो सकता है।  प्रत्यक्ष रूप से कमलहासन अकेले इस फिल्म के स्वामी हैं पर पर्दे के पीछे उसके अनेक स्वामी भी हो सकते हैं।  ऐसे में एक धर्म विशेष के ठेकेदारों को विरोध के लिये प्रायोजित करने का विचार अगर किसी स्तर पर हुआ हो तो कोई बड़ी बात नहीं है।  दूसरी बात यह भी है कि  कमल हासन का वितरकों से विवाद पहले भी चल रहा है।  कमल हासन अपनी फिल्म पूरी दुनियां को एक साथ दिखाने के लिये इसे उन टीवी चेनलों को भी सौंपना चाहते थे जो आम दर्शकों से सीधे जुड़े हैं।  फिल्म के वितरक अपनी कमाई कम होने की आशंका से इस वैश्विक प्रदर्शन के  विरोधी हैं।  इसका मतलब यह है कि कहीं न कहीं फिल्म व्यवसाय से जुड़ा कोई ऐसा वर्ग भी हो सकता है जो ‘विश्वरूप’ को वैश्विक प्रदर्शन होने से रेाकना चाहता हो।
      कमाल हासन महान फिल्मकार हैं और उनकी आर्थिक हानि न हो इस पर सब सहमत हैं पर फिल्म पर प्रतिबंध या विरोध पर अलग अलग तर्क सामने आये हैं।  बहस चलते चलते गणतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी तक पहुंच गयी है।  कमल हासन स्वयं किसी विवाद में पड़ना या खड़े होना चाहें यह तो नहीं लगता पर उनके संपर्क सूत्रों के बारे में यह दावा नहीं किया जा सकता।  यह फिल्म आज नहीं तो कल प्रदर्शित होगी, यह बात तय है।  आतंकवाद से संबंधित विषय  पर अनेक फिल्में बन चुकी हैं।  धर्मों पर प्रहार करते हुए भी फिल्में बनती हैं। अभी हिन्दी में एक फिल्म बनी थी ‘ओ माई गॉड’। इसमें हिन्दू धर्म का विषय चुना गया था।  कुछ हिन्दू संगठनों ने इस पर आपत्ति की थी पर आमजनों ने इस फिल्म को बड़ी रुचि के साथ देखा।  सच कहें तो यह फिल्म हम जैसे अध्यात्म चिंतकों को अत्यंत पसंद आयी।  हमारा मानना है कि अध्यात्मिक ज्ञान  और धर्म को प्रथक प्रथक बताने वाली यह वैसी फिल्म थी जिस पर अनेक भारतीय चिंत्तक अपनी बात कहते रहे हैं।  एक तरफ हिन्दू धर्म पर प्रहार था तो वहीं श्रीमद्भागवत गीता का महत्व भी बताया गया।  शुद्ध रूप से मनोंरजक फिल्म थी।  उसने समाज में कोई परिवर्तन भले नहीं किया पर उसका विषय अनेक लोगों को पसंद आया।  यही कारण है कि हिन्दू धर्म के समर्थक कमल हासन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ का  बचाव  करते हुए यही कह रहे हैं कि हमने भी तो अपने धर्म पर प्रहार करती हुई एक फिल्म झेली है तो दूसरे समुदायों में विरोघ कैसे हो सकता है?  अक्षय कुमार, मिथुन चक्रवर्ती, परेश रावल और गोविंद नामदेव ने इस फिल्म में जो अभिनय किया वह रोमांचित करने वाला है।  ऐसी फिल्मों को रोकना अनुचित है।  हम क्या मानते हैं कि आस्था के नाम पर लोगों को बरसों पुराने अंधविश्वासों में जीने की आदत पड़ी रहे?  क्या हम लोकतंत्र में  लोगों की आस्था बचाने के नाम पर सड़े गले समाज का अस्तित्व बनाये रखना चाहते हैं।  दूसरी बात यह कि धर्म को चौराहै का विषय मानना ही गलत है। जिसे मानना है अपने घर में माने। सड़क पर उसकी आस्था बचाने का काम राज्य को नहीं करना चाहिए।
    हम गणतंत्र के नाम पर धर्मतंत्र की रक्षा करने का लक्ष्य नहीं रखें तो अच्छा है।  हम कमाल हासन के सांस्कृतिक आतंकवाद वाली बात का समर्थन नहीं करते क्योंकि 94 करोड़ से बनी इस फिल्म के प्रचार के लिये इसका विरोध व्यवसायिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिये भी हो सकता है पर चंद लोगों को किसी धर्म का ठेकेदार मानने के हम भी विरोधी हैं।  हालांकि प्रचार माध्यमों से यह  जानकारी मिली  है कि इस फिल्म को पहले ही समुदाय विशेष के ठेकेदारों को दिखाया गया था। ऐसी हालत  फिल्म से जुड़े लोगों को ही इसका जवाब भी देना होगा जो कमल हासन ने किया है।  
    बहरहाल प्रत्यक्ष रूप से गणतंत्र या अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा यह कोई बड़ा विषय है हमें नहीं लगता पर बाज़ार और उसके प्रचार समूहों के लिये विज्ञापन प्रसारित करने के लिये बहस के रूप में  प्रसारण सामग्री दिलाने में इसका बहुत बड़ा योगदान रहेगा यह बात तय है।  
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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