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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

3/10/13

महाशिवरात्रि का पर्व और हमारे जन्मदिन का योग संयोग-हिन्दी संपादकीय(mahashiratri ka parva aur hamara janma dinka yog sanyog-hindi article or lekh)

       आज हमारा जन्मदिन और महाशिवरात्रि का पर्व एक दिन ही पड़ा। सच बात तो यह है कि हमने उस प्राचीन संस्कारित परिवार में जन्म लिया जहां जन्मदिन को मनाना तो दूर याद भी नहीं रखा जाता।  हमारी आधिकारिक जन्म तिथि और छठी में दर्ज दिनांक में डेढ़ वर्ष का अंतर है।  विद्यालय में पिताजी एक बार भरती कराने गये तो फिर बाकी सफर अपनी बुद्धि के सहारे ही तय किया।  यह पता ही नहीं कि विद्यालय में हमारी जन्मतिथि कब और कैसे दर्ज हुई।  बहरहाल हमें अब उसका अफसोस नहीं है।  सच बात तो यह है कि अध्यात्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण उन लोगों से हमारी अधिक मित्रता नहीं चलती जो केवल सांसरिक विषयों में ही व्यस्त रहते हैं। अवसर आने पर धार्मिकता के नाम पाखंड भर करते हैं।
  पहले अपनी अपनी जिंदगी के विषय पर अनेक लोगों से शिकायत होती थी पर जब श्रीमद्भागवत् गीता पढ़ी तो फिर लगने लगा कि हमने बेकार ही दूसरों के चरित्र पर प्रतिकूल टिप्पणियां कर अपना वक्त बर्बाद किया।  उसमें वर्णित ‘‘गुण ही गुणों में बरतते हैं’’ के फार्मूले ने हमारी आंखें खोलकर रख दी।  उसके बाद जब समाज के विभिन्न लोगों के व्यवहार, विचार और व्यक्तित्व का अध्ययन किया तो पाया कि उनमें वह सब कमजोरियां हैं जो हममें पायी जाती हैं।  अंतर यह है कि हमने अपनी कमियों को पहचाना है और बाकी यह समझ नहीं पाते।  दूसरी बात यह है कि हमारे अंदर जो कमियां हैं वह कभी दूर नहीं हो सकती हैं क्योंकि उनका संबंध देह से हैं पर  यह अलग बात है कि जीवन में पड़ने वाले उसके दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है।  नहीं भी बचा जा सके तो नियति मानकर खामोश हो जाते हैं।
      अपनी जिंदगी में दो अफसोस रह जायेंगे कि एक तो हमें  प्रारंभ से ही किसी ने योगविद्या से परिचित नहीं कराया दूसरा यह कि श्रीमद्भागवत् गीता का ज्ञान किसी ने उस रूप में नहीं समझाया जिसके संपर्क में अब आकर हमें लगता है कि अपना जीवन अधिक बेहतर ढंग से बिता सकते थे।  यह प्रारंभ से ही अध्यात्मिक प्रवृत्ति का परिणाम रहा कि भटकते भटकते हम योग विद्या तथा गीता के ज्ञान की तरफ  आ ही गये।  निरंकार सत्य ही सत्य है और यह संसार मायावी है यह अब साफ लगने लगा है।  अगर इस विषय पर लिखने  बैठें तो लेख लंबा हो जायेगा।  हां, इस पर यह जरूर कहना चाहेंगे कि जो हमने कल बिताया वह आज सपना हो गया और आज जो बिता रहे हैं वह कल सपना होगा।  हम लौटा कल वापस नहीं ला सकते इसका सीधा मतलब यह है कि यह संसार वाकई अयथार्थ है।  सत्य वह जिसे हम पकड़ सकते हैं, जो असत्य है उसे छू भी नहीं सकते।  अभी दो दिन पहले दूसरे शहर गये थे।  वहां कुछ अच्छे दृश्य देखने को मिले।  उस समय हम सोच रहे थे यह दृश्य कल अतीत हो जायेंगे।  बस याद रहेंगे, पर हम फिर उनको नहीं देख रहे होंगे।  देखेंगे भी तो वह वैसे ही दिखें यह जरूरी नहीं।  वैसे दिखें भी तो पहले की तरह प्रिय लगें यह भी संभव नहीं।  वह दृश्य था पर सपने की तरह बीत गया।  आंखों से देखा पर वह सपने की तरह बीत गया।  वह सच था तो हमने उसे पकड़ा क्यों नहीं? नहीं पकड़ा तो इसका मतलब वह मायावी था। तब यह बात समझ में आयी कि क्यों ऋषि मुनि इस संसार को असत्य या मायावी कहते हैं।  इसका मतलब यह नहीं कि हम निराशावादी हो गये हैं।  ठीक है आज जो निकल गया वह कल नहीं होगा पर जो कल होगा वह नवीनता लिये होगा।  यह शर्तिया बात है क्योंकि योग साधना और ध्यान के बाद हमें हर दृश्य नवीनता देता है।  पुराने प्रिय दृश्यों की सुखद अनुभूति दिमाग में रख लेते है। अप्रिय दृश्यों का दुःख भस्म कर आगे चल पड़ते हैं।  प्रिय दृश्य भी सपना थे यह सत्य स्वीकार करने के बाद जो आत्मविश्वास आता है वह अगले पल के लिये नवीनता तब ही दे सकता है जब योगसाधना की जाये।  पुराने ब्लॉग मित्रों ने बता दिया था कि इंटरनेट पर एक आभासी दुनियां हैं। आज जब ढेर सारे बधाई संदेश मिले तो हैरानी हुई।  इसका मतलब यह है कि आभासी दुनियां का भी विस्तार हुआ है।  दरअसल इंटरनेट तो सपने में भी एक उपसपने जैसा है।  जब सपने ही अब विचलित नहीं करते तब उपसपने  हमें अपनी जगह से हिला लें यह संभव नहीं।
       संयोग से आज महाशिवरात्रि का पर्व भी है।  शिव सत्य के प्रतीक माने जाते हैं।  आज अनेक शिव मंदिरों में जाने का अवसर मिला।  एक मंदिर में हम ध्यान लगा रहे थे।  वहां अनेक लोग जल और बेलपत्री चढ़ाकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए नज़र आये।  हम ध्यान में ही जमे रहे। जब निवृत्त हुए तो एक सज्जन हमारे पास आये और बोले-‘‘यह सबसे अच्छा है।  मैं बहुत देर से देख रहा हूं कि आप ध्यान लगाये बैठे हैं और सबसे बड़ी पूजा यही है।’
      हम मुस्करा दिये।  दरअसल जब किसी के साथ मंदिर में जायें तो वह जब तक अपनी पूजा कर ले तब तक ध्यान लगाकर हम अपने अंदर ऊर्जा का संचय करते हैं।  श्रीमद्भागवत् गीता में ध्यान को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया गया है। ध्यान की शक्ति का बखान करना बेकार है क्योंकि जो इस विद्या को जानते हैं वही इसे मानेंगे।  भगवान शिव की जिस तीसरी आंख का ज्ञान कराया जाता है वह उनकी योग शक्ति का ही प्रतीक है। यह तीसरी आंख हमें ध्यान में दिखाई दे सकती है। जब हम बाहर की आंखें बंद कर भृकुटि पर दृष्टि जमायेंगे तब इसका आभास होगा। योग शक्ति ही मनुष्य और सत्य के बीच सेतु का काम करते हुए उनको मिला सकती है।  बाह्य वस्तुओं से शिव की उपासना करना बुरा नहीं है पर जब हम ध्यान लगाकर अपने भावों में ही उन वस्तुओं का सृजन कर उसे उनके चरणों में अर्पित करेंगे तब जीवन का आनंद दुगना हो जायेगा।  हमने अपने अंदर की ऊर्जा उनके चरणों में चढ़ाई  तब वह निश्चित रूप प्रसाद के रूप में दुगुना कर उसे वापस करेंगे। बाहर यह सब नहीं दिखेगा पर इसकी अनुभूति अंदर करने के लिये निरंतर ध्यान का अभ्यास करें तो निश्चित ही जीवन आनंदमय हो जायेगा।
     इस महाशिवरात्रि के पर्व पर अपने फेसबुक, ब्लॉग तथा ट्विटर के लेखकों और पाठकों को बधाई।  उनका भविष्य उज्जवल हो इसकी हम कामना करते हैं।  जन्मदिन की बधाई का आभार व्यक्त करते हुए यह आशा व्यक्त करते हैं कि वह भविष्य में भी अपना प्रेम बनाये रखेंगे।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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