हमारा मानना है कि फेसबुक पर हिन्दी रोमन लिपि लिखने वाले निष्प्रभावी हो
रहे हैं। हमारी सलाह है कि इससे बेहतर तो यह है कि वह अंग्रेजी भाषा में ही लिखें ताकि हम उसे अपने मस्तिष्क के
अंग्रेजी सर्वर से सहजता से पढ़ सकें भले ही वह अल्प क्षमता वाला है। हम जैसे पाठकों के लिये यह बहुत कष्टप्रद है कि
दूसरें के विचार शब्द को रोमन में vichar सहजता से पढ़ लें। इससे बेहतर तो यह
होगा कि वह thoght,
thingking, think ही लिखें।
एक बात दूसरी भी है कि रोमन लिपि में हिन्दी लिखने वाले अपने अंतर्जालीय
ज्ञान पर इतरा जरूर लें पर उससे हिन्दी भाषा में उनकी कमजोरी हंसने को ही बाध्य कर
देती है। खासतौर से जब वह किसी पाठ या
टिप्पणी पर प्रतिकूल शब्द लिखने वालों को यह समझ लेना चाहिये कि उनकी बात इतने लोग
पढ़ नहीं रहे हैं जो पढ़ रहे हैं तो समझ
नहीं रहे।
खासतौर से विचाराधाराओं से जुड़े लोगों को हमारी सलाह है कि वह स्वतंत्र तथा
मौलिक लेखकों और पाठकों से अन्याय न कर हिन्दी देवनागरी लिपि में ही लिखें। इसके लिये साधन अंतर्जाल पर उपस्थित हैं। हमारे देश में तीन धाराओं से जुड़े लेखक
हैं-जनवादी, प्रगतिशील और राष्ट्रवादी। इनमें राष्ट्रवादी अंतर्जाल पर हिन्दी देवनागरी
लिपि में लिखकर बढ़त बना लेते हैं। इतना ही
नहीं यह राष्ट्रवादी अपने प्रतिंद्वंद्वियों के पाठों पर टिप्पणियां भी हिन्दी
देवनागरी लिपि में लिखकर उनकी रचनाओं से ज्यादा प्रभाव कायम कर जाते हैं। कई बार पाठ तो रोमन में होता है और यह राष्ट्रवादी
देवनागरी में टिप्पणी हिन्दी देवनागरी में इस तरह करते हैं कि पाठक का ध्यान पाठ
की तरफ कम उनकी टिप्पणियों पर अधिक जाता हैं।
उधर जब अन्य विचारधारा के कुछ लेखकों के पाठ या टिप्पणियां रोमन में होते
हैं तो हम जैसे पढ़ाकू का दिमाग लटकने लगता है।
इधर हिन्दी से पढ़े कि उधर अंग्रेजी का सर्वर चालू करें, यह तय करना कठिन लगता है। हमारी
उत्सुकता सभी को पढ़ने में रहती है पर रोमन लिपि दीवार की तरह रास्ता रोक लेती
है। जब पढ़ते हैं तो शब्द दिमाग में ऐसे ही
घुसते हैं जैसे डिस्क का कनेक्शन खराब होने पर टीवी के दृश्य आते हैं। रोमन लिपि में पढ़ने के बाद आह और वाह करने लायक
हमारा मस्तिष्क नहीं रह पाता।
हम उन मौलिक तथा स्वतंत्र लेखकों में है जो आलोचकों की बात पर ध्यान देते
है क्योंकि वही आगे की रचना का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। हिन्दी को देवनागरी तथा अंग्रेजी को रोमन लिपि
में पढ़ने का ऐसा अभ्यास है कि यह तीसरा मार्ग हमें सहज नहीं लगता। अभी हाल ही में हिन्दी दिवस बीता तब टीवी
चैनलों पर बहस हुई कि तब अनेक विद्वानों ने समझाया कि हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों
का अनावश्यक इस्तेमाल न हो। मगर सब
बेकार। अब तो टीवी वाले खुलकर अंग्रेजी का
उपयोग कर रहे हैं। हमें लगता है कि हिन्दी के प्रचार माध्यमों के पास योग्य हिन्दी
वाचकों और लेखकों की कमी है। इस हिंग्लिश का प्रचलन इसलिये ही प्रारंभ किया गया
ताकि प्रचार प्रबंधकों के प्रबंध कौशल पर किसी की दृष्टि नहीं जाये जो हिन्दी में
योग्य लोगों की तलाश नहीं कर पाते
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्रसंघ में अपना भाषण हिन्दी में
देंगे। इस पर हमारे टीवी चैनल यह कहते हुए इतरा रहे है कि पीएम अपनी स्पीच हिन्दी
में देंगे। यह एक वाक्य कानों में ही
सहजता से नहीं पहुंचता। पहुंचता है तो बहुत देर बार हमारा मस्तिष्क इसे यूं ग्रहण
करता है कि प्रधानंमत्री अपना उद्बोधन हिन्दी में करेंगे। रोमन लिपि में हिन्दी और
देवनागरी में हिंग्लिश वाक्य अपने मस्तिष्क में स्थापित करने के लिये उसके
परिष्कृत करना पड़ता है। अगर सीधा हो तो
बिना बाधा के तो वह सहज गेय होता है।
हिन्दी के जिन महानुभावों ने जो यूनिकोड बनाया हैे उनके लिये पद्मश्री जैसा सम्मान भी छोटा लगता है। हमें जब हिन्दी के देव परिवार का यूनिकोड में
परिवर्तित करने का साधन मिला तो प्रसन्नता का ठिकाना नहंी रहा था। यही कारण है कि हम जब कोई पाठ लिखने बैठते हैं
तो वह लंबा हो ही जाता है। हालांकि रोमन
लिपि से भी देवनागरी में परिवर्तित कर हिन्दी में लिखने का भी साधन है पर वह जल्दी
थका देता है। अपनी बात कहकर जल्द समाप्त करने की इच्छा होती है और जब पाठ पूरा
होता है तो लंबी लंबी सांसे लेते हैं।
हिन्दी साधन से हम जैसे लेखकों को अपनी बात सहजता से लिखने की जो सुविधा है
उसने एक पाठक के रूप में रोमन लिपि पढ़ने में असहज बना दिया है।
इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि यह हमारी समस्या है। हमारा मानना है कि हम
जैसे अनेक लोग ऐसे होंगे। यह अलग बात है कि अपनी बात कहने में उनको संकोच यह सोचकर
होता होगा कि जब स्वयं के अंदर ही हिन्दी देवनागरी लिखने में सामर्थ्य नहीं है तो
दूसरे से कैसे कहें? एक बात तय है कि अंतर्जाल पर-फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग-जिनको अपनी बात हिन्दी में लिखकर प्रभावी होना है उन्हें
देवनागरी का मार्ग अपनाना चाहिए। खासतौर
से अगर वह अर्थ,
समाज, राजनीति, कला, फिल्म,
साहित्य और खेलकूद के क्षेत्र में शिखर पर न हों तब
यह अनिवार्यता ही होगी। शिखर पुरुषों पर
तो प्रचार माध्यम टकटकी लगाये बैठे रहते हैं कि कब वह कोई शब्द किसी भी भाषा में
अंतर्जाल पर टपकायें और उसे लपक लें। आम लेखक को ऐसी अपेक्षा कभी नहीं करना
चाहिये।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja "Bharatdeep"
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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