दौलत के लिये नया स्वांग रचाते, बहुरुपिया हैं नाम सेवक नाम बताते।
‘दीपकबापू’ सेवा लेकर दाम चुकाते, सौदागर फिर भी अहसान जताते।।
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चालाक दूल्हों के साथ चमचे बराती, दूर खड़े तमाशा देखते घराती।
‘दीपकबापू’ किराये पर नचाते भांड, प्रसिद्धि पाते यूं ही वफा के घाती।।
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किसान की धरती नहीं हिलती, मेहनत कभी बेकार नहीं मिलती।
‘दीपकबापू’ बसे स्वर्णिम महल में, जहां चिंता की गलती नहीं खिलती।।
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नारों लगाने से आगे अक्ल पर ताले, शब्द गायें पर अर्थ से मुख टाले।
‘दीपकबापू’ प्रचार बाजार में सजे, वह अक्लमंद जिसे विज्ञापन पाले।।
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रात के नशे में बोल जाते हैं, सुबह अपनी बात से झोल खाते हैं।
‘दीपकबापू’ लगा होठों से जाम, कड़वे में मीठा रस घोल जाते हैं।
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जिंदगी में हमसफर भी चलते हैं, बिछड़ने से पहले बहुत मचलते हैं।
‘दीपकबापू’ अंधेरों से लड़ने के आदी, चिराग सदा बेपरवाह जलते हैं।।
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किताब पढ़ भी अकल कहां आती, उपाधि बाज़ार जहां नकल वहां छाती।
‘दीपकबापू’ पहचान में खाते धोखा, योग्यता खरीदने पर भी कहां आती।।
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