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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/5/16

अन्ना के चेलों के पास जीतने पर भी असली हीरा आया ही नहीं (Anna Hazare and His Followers)

हमने बचपन से ही देखा है कि जिस आदमी की पुलिस प्रशासन पर पकड़ है उसकी खूब चलती है। हमारी मार्केट में दुकान थी। एक दुकानदार का सम्मान इसलिये हुआ करता था क्योंकि वह सरकारी महकमों में काम करा देता था। उसके यहां पुलिस प्रशासन के लोग आकर बैठते थे। मजे की बात यह कि कोने पर दुकान होने के बावजूद उसकी दुकान पर ग्राहक कम आते थे। सुना था कि उसकी कोई चावल मिल में साझेदारी भी थी और वह वहां समय पास करने के लिये बैठता है। ताश का माहिर खिलाड़ी था और हमारे दादाजी के साथ जोड़ी बनाकर कोटपीस खेलता था। यह अलग बात है कि हमारे ताऊ व पिताजी उसकी दुकान से दुकान लगी होने के बावजूद किसी सरकारी काम में उसकी मदद लेना पसंद नहीं करते थे। समय के साथ बड़े हुए तो पता चला कि वह शुल्क के साथ मध्यस्थता करवाता था-उसके लिये हमारे मन में आज भी इतना सम्मान है कि दलाल शब्द प्रयोग नहीं करना चाहते।
हमारे एक सहकर्मी गांव की पृष्ठभूमि के थे। उन्होेंने बताया कि गांव में लोग न्यायालयीन मुकदमों से नहीं वरन् पुलिस से ज्यादा डरते हैैं। उनके लिये वही आदमी बड़ा है जो उन्हें पुलिस से बचाता रहे। इससे हमने यह निष्कर्ष निकाला कि भारत मेें लोगों को भय केवल इस बात का रहता है कि कहीं किसी कारण से निरपराध कानून के शिकंजे में न फंसें इसलिये पुलिस से बचना चाहिये। फिर हमने देखा कि अपराधियों ने भी ऐसे संपर्क बना लिये कि पुलिस से बचते रहें। अब हम लोकतंत्र में देख रहे हैं कि ऐसे लोग समाज के ठेकेदार बन रहे हैं जो अपने अपराध या कांड छिपाने के लिये सेवा का पद धारण करते हैं।
अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के समय अनेक ऐसे लोग उसमें शामिल हुए जिन्हें तत्कालीन स्थापित दलों में जगह बनती नहीं दिख रही थी और वह नये दल की आशा में अपना चेहरा स्थापित करने आये। उनकी नीयत भी ऐसी ही थी कि सत्ता समीकरण उनके पक्ष में हो जायें तो पुलिस प्रशासन पर उनका वर्चस्व स्थापित हो जाने पर काले कारनामे छिपाने का अवसर मिल जायेगा। दिल्ली में अन्ना हजारे जी ने कोई राजनीतिक भूमिका नहीं निभाई पर उनकी छाया के प्रभाव से ही चेले चुनाव जीत गये। आमजन भले ही बदलाव की आशा कर रहे थे पर हम जानते थे कि यह एक छलावा साबित होगा। जोश में आकर अन्ना के चेले चुनाव मैदान में तो आ गये पर जीतने पर पता चला कि असली हीरा पुलिस प्रशासन तो उनके हाथ आया ही नहीं। अन्ना के विजेता चेले एक एक कर पुलिस के हत्थे चढ़ रहे हैं और विशेषज्ञों की माने तो कुछ और भी फंसने वाले हैं। असली बात यहीं आकर टिकती है कि क्या अगर पुलिस अन्ना के चेलों के पास होती तो वह क्या फसते? यही कारण है कि पंजाब और गोवा में वह अपना भाग्य आजमा रहे हैं। लोकतंत्र में सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध असंतोष जरूर होता है और अन्ना के चेलों को इन राज्यों में मतों का अच्छा प्रतिशत भी प्राप्त होगा। जहां तक राज्य प्रबंध में स्वच्छता का प्रश्न है अन्ना के चेलों से से आशा करना अब निरर्थक साबित होगी। यह पता नहीं है कि सत्ता उनके पास आयेगी या नहीं पर आ गयी तो अन्ना के शिष्य निष्कलंक बने रह सकते हैं। इसी आशा में लोकतंत्र का झंडा उन्होेंने उठाया है। वैसे दिल्ली में मंत्री का सीडी कांड अन्ना के चेलों के रथ को ऐसे गड्ढे में ले गया है जहां से उसका निकलना कठिन है भले ही वह सोचते हों कि जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है।
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