वह नाम जो कभी आठ दस वर्ष पूर्व ब्लॉगर जगत में अपने आत्मीय लगते थे अब अजनबी हो गये हैं। उसम समय हिन्दी का अंतर्जाल पर नामलेवा तक नहीं था। उस समय यह अनजाने लोग इस आभासी दुनियां में अपनेपन का अहसास दिलाते थे। उनमें से कई नाम अब भी सक्रिय हैं पर लगता है जैसे अजनबी हो गये हों। इनमें से ही कुछ लोगों ने बताया था कि अंतर्जाल की दुनियां एकदम आभासी है। हमने उनकी बात समझ ली। वह नाम थे, जबकि उनके वास्तविक नाम कुछ अलग थे। इन लोगों के बीच शाब्दिक युद्ध भी होता था जिसमें हम अपनी टांग फंसाते थे।
एक लेखक होने का मतलब समाज में अकेला हो जाना होता है। उस पर योग साधना तो एकांत में ही चिंत्तन की तरफ ले जाती है। दस वर्ष पूर्व जब हमने अपनी अंतर्जाल पर शब्दिक यात्रा प्रारंभ की थी तो तय कर लिया था कि इसी पर ही बने रहेंगे। केवल ब्लॉगर सुरेश चिपलूनकर जिन्हें हम भौतिक तो दूसरे परमजीत बाली जिन्हें हम भावनात्मक रूप से प्रमाणिक मानते हैं।
एक है मैथिली गुप्ता जो कभी अंतर्जाल पर ब्लॉगवाणी चैनल चलाते थे। वहां जाकर ऐसा लगता था कि लेखकें के मोहल्ले में आ गये। उनके ही सद्प्रयासों से हिन्दी ने अंतर्जाल पर लंबे समय तक अपने अस्तित्व का संघर्ष किया। वह आज भी सक्रिय हैं। हमने कभी किसी के भौतिक सत्यापन का प्रयास नहीं किया क्योंकि इस आभासी दुनियां का सच इन लोगों ने बता दिया था। यहां एक स्थानीय समाचार पत्र में हिन्दी के लिये अंतर्जाल पर सक्रिय आठ लोगों के नाम प्रकाशित हुए थे पर अंतर्जाल पर किसी का नाम नहीं पढ़ा था। इसका अर्थ हमने यह लगाया कि वह छद्म रूप से यहां सक्रिय थे पर उनमें हिन्दी लेखन से प्रतिबद्धता थी वरन् उच्च कोटि के व्याकरणविद भी वह लोग थे। जब हमने फेसबुक का खाता खोला था इनमें से अनेक लोगों ने मित्र बनाने का प्रस्ताव भेजा था पर हमें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी-क्योंकि इसका भविष्य में होने वाले महत्व का पता नहीं था। बाद में जब हम सक्रिय हुए थे तब इनको स्वयं हमने मित्रता प्रस्ताव भेजा।
हमने आज इनको याद इसलिये किया क्योंकि हिन्दी के उस स्वरूप से उनका गहरा संबंध है जो अब सभ्रांत समाज से लुप्त होती जा रही है। चलते चलते पूर्णिया बर्मन की बात भी करते हैं जिन्होंने अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन में हमारी सहायता की। श्रीश शर्मा, उड़नतश्तरी, अनुनादसिंह, ममता श्रीवास्तव तथा अनेक लोग हमारे जेहन में बसे हैं। एक बात तय रही कि वह आठ हैं पर किसी न किसी तरह अंतर्जाल पर हिन्दी के प्रचार में सलंग्न हैं-उन्हें भले ही इसका आर्थिक लाभ होता हो पर इससे उनकी हिन्दी से प्रतिबद्धता तथा निष्ठा पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकते। कभी हमारे ब्लॉग के हर पाठ पर टिपप्णी हुआ करती थी। आज भी हमें टिप्पणी का इंतजार वहां उसी तरह नहीं रहता जैसे कि फेसबुकर पसंद का। हिन्दी लेखन हमारी सांस है जिसे किसी दूसरे पार आश्रित नहीं रख सकते।
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